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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jul 13, 2014

नेता मे आक्रामकता ज़रूरी है क्या ?


अपने शीर्षक को थोड़ा सा उलट देता हूँ की क्या नेता बनने के लिए आक्रामकता ज़रूरी है ?, इस कथन की
की विवेचना करना इसलिए आवश्यक है , क्योंकि यह श्री दिग्विजय सिंह उवाच है , आम आदमी कोई ऐसी टिप्पणी करता तब उसको
गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं होती , पर यह कथन एक ऐसे आदमिके श्री मुख से उद्घाटित हुआ तो , विवेचना का मुस्तहक बन गया|
इसके कई कारण हो सकते है , परंतु मेरी समझ से प्रदेश के दस साल की अवधि तक मुख्य मंत्री रह चुके डिग्गी राजा कोई अंट-शंट
बयान नहीं देते | दूसरा वे काफी निहितार्थ वाली टिप्पणी के लिए भी जाने जाते है | तीसरा यह कथन जिस संदर्भ और व्यक्ति के बारे मे
मे किया गया वह और कोई नहीं वरन काँग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी है ! जिनके संदर्भ मे यह अक्सर कहा जाता है की दिग्विजय सिंह ने
उन्हे प्रजातन्त्र मे दलीय राजनीति के गुर सिखाये है | अब ऐसे मे यह टिप्पणी महत्वपूर्ण बन जाती है | क्योंकि लोकसभा चुनावो मे हुई
पराजय के बाद उनका यह कहना की """""राहुल जी मे शासक बनने की छंटा नहीं है , जिस आक्रामकता की जरूरत होती है उसका अभाव
है , वे तो गलत के वीरुध लड़ाई लड़ना चाहते है """ अब इस का क्या अर्थ लगाया जा सकता है ? इसको सतही तौर पर यह कहा जा रहा
की राहुल जी नेत्रत्व करने की छमता का अभाव है |

अब इसकी विवेचना के लिए काल और परिस्थिति का अनुमान लगाना जरूरी है , क्योंकि
सामान्य दिनो मे यदि यह टिप्पणी की गयी होती इसे एक व्यक्ति के मूल्यांकन के रूप मे लिया जाता , परंतु शिकस्त के बाद ऐसा कहना
काफी लोगो को अटपटा लगा , ना केवल काँग्रेस मे वरन पार्टी के बाहर भी | लगभग इसी समय पार्टी के कद्दावर नेता ए के एंथनी कनहे
की ""पार्टी की धर्म निरपेक्षता की छवि को धक्का लगा है "" उनके बयान का संदर्भ काफी दिनो बाद यह बताया गया की केरल मे ईसाई
समुदाय को ऐसा महसूस हो रहा की सरकार उनके हितो के प्रति चिंतित नहीं है | अब केवल केरल मे ही काँग्रेस मिलीजुली सरकार की एक
घटक है और उसी का प्रतिनिधि मुख्य मंत्री है जो संयोग से ईसाई है |




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