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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 22, 2022

 

विधान सभा सचिव के अर्ध शासकी पत्र 16481 दिनक 25 --10 --21

विषय त्रैमासिक शोह पत्रिका विधायनी हेतु आलेख लिखने बाबत

----------------------------------------------------------------------------------- शीर्षक विधान सभा अध्यक्ष की संवैधानिक स्थिति


किसी भी सदन या संस्था अथवा संस्थान में अध्यछ न केवल उस निकाया की पहचान होता हैं वरन वह सम्पूर्ण संस्था के अधिकारो से समाहित होता हैं | भारत का संविधान , जो राज्यो के संघ से बना है | उसमें 29 राज्य और 9 केंद्र शासित छेत्र थे | जम्मू -कश्मीर के विभाजन के बाद अब 28 राजय रह गए | इन सभी प्रदेशो में सभी में विधान सभा का अस्तित्व है | आज़ादी के पूर्व जिन राज्यो में 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के समय दो विधायी सदन थे ,वनहा दूसरे अथवा उच्च सदन को विधान परिषद कहा जाता है | जिसका संचालन सभापति करता है |

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 178 से लेकर 217 तक के प्रविधान अध्यक्ष के अधिकारों और कर्तव्यो का वर्णन है | परंतु यह प्रविधान "अध्याछ" के सदन के अनुमानित कार्यो और दावीत्वों के बारे में ही हैं | परंतु वास्तविकता परम्पराओ में है | हमने लोकतन्त्र के संसदीय प्रणाली को ब्रिटेन के वहाइट हाल सिस्टम से लिया हैं | वनहा लोवर हाउस अथवा जन प्रतिनिधियों के सदन या हाउस ऑफ कामन्स के "” अध्याकछ " को ही स्पीकर कहते है | मध्य काल में मैगना कारटा से नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकार परिभाषित हुए थे | प्रशासक और नागरिक के संबंधो में सम्मानजनक रिश्ते की शुरुआत हुयी | जो बाद में देशो के नागरिकों के लिए मूल आधिकारों का आधार बना |राजा या सम्राट के सामने नागरिकों के अधिकारो पर हो रहे अत्याचार को कहना ही तब उसका कर्तव्य हुआ करता था | चूंकि वह सदस्यो और नागरिकों के अधिकारो के लिए राज सत्ता के सामने ले जाकर कहने के कारण ही "””स्पीकर " नाम मिला | ग्रेट ब्रिटेन के संसद में हाउस ऑफ कामांस के स्पीकर ही अपने सदस्यो की आवाज़ सम्राट तक ले जाने का कर्तव्य निभाते हैं | आज भी यह परंपरा सदन के शुरुआत में निभाई जाती हैं |

यह सब बताने का मतलब आज की संसदीय परंपरा में जनता के प्रतिनिधि के सदन का सर्वोतम अधिकारी होता हैं | वह ना केवल सम्पूर्ण सदन की आवाज़ होता हैं , वरन वह सदन के सदस्यो को अनुशासन में रखने का भी जिम्मेदार होता हैं | वह सदन के नियमो की मर्यादा का भी रखवाला होता हैं | उत्तर प्रदेश विधान सभा में 60 के दशक में एक व्यक्ति ने दर्शक दीर्घा से कुछ पर्चे फेंके और कूद गए | इस हरकत को सदन की अव मानना मानते हुए अध्याकछ मदन मोहन वर्मा ने सदन में में दोषी को एक माह की क़ैद की सज़ा दी | दोषी के वकील सलोमन ने इलाहाबाद हाइ कोर्ट में हैबियस कार्पस याचिका दायर करते हुए विधान सभा अध्याकक्ष के विरोध कारवाई की प्रार्थना की | तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश नसरुल्ला बेग ने पुलिस को बंदी को हाजिर करने का आदेश दिया | लखनऊ के वारिस्ठ पुलिस अधिक्षक पियरसन ने अदालत के आदेश को विधान सभा अधकष को दिया | दूसरे दिन विधान सभा का सत्र आहूत होने पर संसदीय कार्य मंत्री ने मुख्य मंत्री सुचेता कृपलानी के निर्देश पर हाइ कोर्ट के निर्णय करने वालो को सदन की अवमानना मानते हुए , उन्हे सदन में बुला कर प्रताड़ित करने का वारंट पुलिस वारिस्ठ अधीक्षक को दिया की वे न्यायाधीशो को सदन में पेश करे | इन हालत में पुलिस के लिए वारंट तामिल करना मुश्किल हो गया | खबर चीफ़ जुस्टिस नसरुल्ला बेग तक भी पहुँच गयी | उनके सहयोगी जजो ने इस अनदेखी -अनसुनी समस्या के लिए इलाहाबाद में "”फुल कोर्ट "” में विचार कर आगे की कारवाई करने का विचार किया | सभी 7 या 8 जज मोटर से इलाहाबाद गए | राजय में माहौल गरम हो गया था ,बात दिल्ली में प्रधान मंत्री तक पहुंची | विधान सभा अध्यछ मदन मोहन वर्मा ने अपने फैसले को विधान सभा का सर्वानुमती का फैसला बताते हुए , मुल्तवी करने से इंकार करते हुए इस्तीफा देने का प्रस्ताव तक रख दिया | जिसे तत्कालीन मुख्य मंत्री सुचेता कृपलानी ने नामंज़ूर कर दिया | देश की विधान सभा के इतिहास में मदन मोहन वर्मा , अध्यक्ष के रूप में सभी राजनीतिक दलो के सम्माननिय बने | उन्होने इसके बाद चुनाव ही नहीं लड़ा | अंततः विधान सभा और उच्च न्यायालय की रस्साकशी में राष्ट्रपति का हस्तछेप हुआ और दोनों निकायो को एक -दूसरे के अधिकारो का सम्मान करते हुए ,टकराव की स्थ्ति से बचने की सलाह दी गयी | तब से अब तक विधान सभा और उच्च न्यायालय एक दूसरे को बचा कर चलते हैं |

परंतु विधान सभा अध्यछ की अनुशासन की शक्ति पर भी अनेकों फैसलो में सवाल उठे हैं | जैसे राज्यपालों की शक्तियों पर भी अनेक बार अदालत ने सवाल उठाते हुए उनके फैसलो को नामंज़ूर कर दिया | निज्लिंगप्पा के मामले में भी सरकार का बहुमत साबित करने के राज्यपाल के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने भी अमान्या कर दिया था | अभी हाल में महाराष्ट्र विधान सभा के 20बीजेपी विधायकों को साल भर के लिए सदन से निलंबित करने के के फैसले को भी, सुप्रीम कोर्ट ने विधायकों के लोकतान्त्रिक कर्तव्यो से वंचित करने वाला निरूपित किया |

अध्याकाछ का निर्वाचन – चूंकि सदन के बहुमत से होता है अतः उस का झुकाव सरकार के प्रति होना स्वाभाविक हैं | वह मूलतः एक पार्टी का विधायक ही होता हैं , जिसे सत्तारूद दल इस पद के लिए नामित करता हैं | अनेकों बार ऐसा हुआ है की पद ग्रहण करने के बाद अध्यकष ने दल की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया हैं | वे अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार में भी भाग नहीं लेते है | यह इसलिए किया जाता हैं की "”पीठ"” पर पक्ष पात का आरोप न लगे | उसका आसान भी सदन के "” लेफ्ट और राइट के मध्य में ही होता हैं , जो इंगित करता हैं की वह किसी भी पक्ष में नहीं हैं |

अध्यक्ष की भूमिका -शक्ति और दायित्व ---- वह दुनिया के समक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करता हैं , एवं अपने परिसर का स्वयंभू स्वामी होता हैं | प्रदेश में भले ही सरकार का डडा बजता हो , परंतु विधान सभा परिसर तो अध्यकष की ज़िम्मेदारी हैं वनहा उसका ही राज चलता हैं | परिसर में प्रवेश तक उसकी अनुमति के बगैर नहीं हो सकता | सिर्फ राज्यपाल ही इसका अपवाद हैं |

उसका प्रथम कर्तव्य है की सरकार द्वरा सदन में लाये गए विधायन कार्य को सम्पन्न कराये ,और सभी सदस्यो के अधिकारो की सुरक्षा करे | विधायकों की पुलिस द्वरा गिरफ्तारी किए जाने के बाद उसकी सूचना सदन के माध्यम से उसे दी जाती हैं |

सदन का विघटन और अध्यकष ----------- राष्ट्रपति द्वरा सदन को किनही भी कारणो से विघटित किए जाने की हालत में जनहा सभी विधायक -पद हिन होजते हैं , परंतु अध्यकष ही एक मात्र पद हैं जो अगली विधान सभा के गठित होने तक रहता हैं | जब राज्यपाल सदस्यो को कसम खिलाने के लिए "””प्रो टेम " स्पीकर की नियुक्ति करता हैं तब अध्यकष पद मुक्त होता हैं |

अध्यकष की राजनीतिक दल की सदस्यता ------------ यूं तो अध्यकष को निस्पकछ माना जाता हैं | परंतु वर्तमान में दलीय सिस्टम में वह भी मूल रूप में तो एक विधायक ही होता हैं | उसे पार्टी द्वरा ही चुना जाता हैं | और उसे दुबारा भी चुनाव लड़ना होता हैं | ऐसी स्थिति में उसका निर्विवाद होना संभव नहीं |

हाँ -यदि हम ग्रेट ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स की परंपरा को स्वीकार करे तब जरुर यह पद पक्ष पात से ऊपर हो जाएगा | वनहा जो भी अद्यक्ष चुन लिया जाता है , तब सभी राजनीतिक दल उसके वीरुध कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा करते | यद्यपि कोई भी व्यक्ति उनके वीरुध चुनाव में खड़ा हो सकता हैं | परंतु बिरले ही ऐसा होता हैं | वह जब तक चाहता है पद पर बने रह सकता हैं | जैसे अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जज के अवकाश प्राप्ति की कोई आयु नहीं होती | वह म्रत्यु पर्यंत पद पर आसीन रहता हैं |





Feb 15, 2022

 

अहले वक़्त में मीडिया कैसा है और होना कैसा चाहिए --प्रभाव ?

हम शायद उन चंद खुश् नसीबों वाले है -जिनके जनक भी

अखबारनवीसी करते हुए कूच कर गए , और हम हैं की उनकी राहो पे चलने की कोशिस डगमगाते हुए कर ही रहे हैं | कुछ यार दोस्तो ने कहा की हम भी हिमाकत कर दे की यह बताने की ,गए वक़्त अखबार नवीसी कैसी होती थी और आज कैसी है ? हालांकि यह दोनों वक्तों में मुकाबला अव्वल तो हो नहीं सकता ---क्यूंकी तब मीडिया के नाम पर सिर्फ "प्रैस"” या पत्रकार ही हुआ करते थे और आज प्रैस को मीडिया कहा जाता हैं | जिसमें कल्म्घिस्सू अखबार के मुलाज़िम जिनहे सरकार से सनद हैं की वे बाकायदा खबर लिखने की नौकरी किसी अखबार में करते हैं | उसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया हैं --जिसमें ओहदेदारी वैसे तो अखबार की जैसी ही है मसलन रिपोर्टर - एडिटर -- कैमरा परसन --ऐंकर फिर कंटेन्ट एडिटर और एयक -आध चैनल में रिसर्च करने वाले भी मिडियकर्मी ही है |

तब अखबार में संपादक -संवाददाता और सब एडिटर कमरे में होते थे बाक़ी प्रोडकसन का काम अलग था | वह प्रिंटिंग प्रैस था | संपादक वह शख्स होता था जिससे मालिक भी कभी -कभार ही बात करते थे | सरकारी अफ़सरान और पॉलिटिकल लीडरान भी बड़े अदब से पेश आते थे | उनके नाम का सिक्का शहर में चलता था | हमारी भी गर्दन अकड़ जाया करती थी , रिपोर्टर की हैसियत से नाम लेते वक़्त ! इस जलवे जलाल के बाद भी सिगरेट मांग के और चाय के लिए बंदे खोजे जाते थे | क्यूंकी माहवारी तंख्वाह सिर्फ "”तन "” को बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती थी | पर पेशे के जलवे के कारण अपना रोना किसी के आगे रो भी नहीं सकते थे | आज की मंहगाई के मुक़ाबले तब बाजार सस्ता था पर लोग मंहगे हुआ करते थे | तब अखबारनवीसी यानि की आज की पत्रकारिता में उतना ही फर्क हैं जितना की एक इंसान और एक "”ममी "” में हैं | खास तौर पर गए सात सालो में तो मुल्क का इतिहास से लेकर ज़िंदगी और नौजवानो के मुस्तकबिल ही 180 डिग्री बदल गया हैं |

तब पत्रकारिता में लोग सैकड़े की तंख्वाह में भी इसलिए टिके रहते थे क्यूंकी अधिकतर में राजनीतिक सोच और जुनून हुआ करता था | उनमें अधिकतर राजनीतिक मुद्दो की हक़ीक़त और उनके परिणामो पर बहस में ही उनकी शामे गुजरती थी | और जोड़ -जमा कर कबाब और शराब की महफिल किसी टीचर या लेखक { जिनकी घर की माली हालत मजबूत हुआ करती थी } जमती थी | तरह -तरह के मुद्दे मसलन कोई ऐसी घटना जो आम लोगो की नजरों में नहीं आती | या किसी बड़े आदमी की ज़िंदगी की गोपनीय घटना जिसको उजागर ना करने की ताकीद हुआ करती थी | कुछ आम बातो की भी चीर फाड़ हुआ करती थी | बस यूं ही दिन गुजर जाता था , फिर एक नयी सुबह के लिए |

आज की पत्रकारिता :- आज कल पत्रकारिता दो तरह की होती हैं , एक अखबार के लिए दूसरी चैनल के लिए | पर आज नजरिया बिलकुल बदल गया हैं | अब सुबह देर से होती हैं , और दो चार फोन पत्रकार मित्रो को और सौर्स को लगाया , की खबर की मोहकमें में क्या सुन -गुन रही और यार दोस्तो की खबरों की तारीफ और कुछ नुक़्ताची कीगई | फिर झटपट अखबार के दफ्तर में हाज़िरी लगाने और संपादक जी के हुकुम नामे को सुना , कुछ झाड सुनी ,बस मीटिंग बर्खाष्त | निकल लिए अपने छोड़े हुए मुद्दो की खोज परख के लिए | इस बीच घर जा कर खाना खाने की उम्मीद भी नहीं करना | हाँ कुछ खलीफा पत्रकार जिनकी अखबार के मालिकान से अच्छी पकड़ होती थी -वे "लंच " के लिए घर जाते है | बाकी सड़क छाप कुछ कचौरी - पोहा आदि खा कर भूख मिटा लेते

फिर वे अपनी अपनी "बीट " पर निकाल जाते , गोया की सिपाही अपने एरिया की गश्त पर निकल गए !! तब बीट नहीं बोलते थे | नगर निगम - फलां पार्टी के आफिस याकि सेक्रेटेरियट अथवा किसी मुहकमे में जाते थे | लोग सवालो के जवाब दे दिया करते थे | जिनसे खबर बनाई जाती थी | अब ऐसा नहीं होता , अब तो अफसर आप का परिचित नहीं हैं तो वह आप का विजिटिंग कार्ड वापस भी भिजवा देगा !! यह हैं अंतर तब और अब में | इसी कारण रिपोर्टर महकमे में कुछ लोगो से कुछ ज्यादा ही रब्त जब्त रखता हैं क्यूंकी "”अंदर की बाते "” उसे बताते हैं | जो दूसरे दिन अखबार में विस्फोट बन कर आती हैं | तब शाबासी या धौल ढप्प मिलने का कारण होता हैं की अमुक महकमा मालिक के कितने नजदीक हैं या नहीं हैं | तब रिपोर्टर पर नुक्ताचीनी उसकी खबर की सच्चाई पर होती थी , और संपादक उनसे रोज बात किया करते थे | तब मालिक नामक व्यक्ति दफ्तर से दूर ही रहता था , आजकल वह दफ्तर में ही विराजता हैं | क्यूंकी अब अखबार एक व्ययसाय नहीं व्यापार बन गया हैं | जनहा संपादक से लेकर चपरासी तक "” उसके मुलाज़िम"” हैं !!!! तब ऐसा नहीं था | आज दफ्तर के बाहर अकड़ से चलने वाला पत्रकार ,बिल में आकार सीधा हो जाता हैं | तब ऐसा नहीं होता था | खबर के प्रस्तुति करन को लेकर समाचार संपादक कुछ बाते पूछ लेते थे ,बस | आज अपनी खबर को लेकर पत्रकार को बाकायदा सफाई देनी होती हैं | जो पत्रकार मालिक के लिए फायदेमंद "” हुआ करता हैं उसका रुतबा दफ़्तर में हमेशा झलकता हैं | बात विज्ञापन की होती है और मालिको के अन्य व्यापार संबंधो को लाभ पाहुचने के सरकारी फैसलो की | इसलिए अब पत्रकार "”हक़ीक़त "” नहीं उजागर कर सकता , वरन उसे अपना व्ययसाय छोडकर मालिक के व्यावसायिक हितो की रक्षा का चौकीदार बनना पड़ता हैं | बस यही अंतर हैं की अखबारो में अब "” पूंजी "” का दबदबा हैं | इसीलिए भवन निर्माता या अन्य कारोबारी जिनहे सरकारी मोहकमो से ज्यदा "खतरा " रहता हैं , वे लोकतन्त्र की "”लाठी "” को अपने हितो की रक्षा के लिए इसे "”छाता "” बना देते हैं ! अब आप समझ सकते हैं की उस अखबार में आम जानो की तकलीफ या सरकार के अफसरो के भ्रष्टाचार की खबर कैसे लिखेगा ? वह तो उपलबधिया लिखेगा क्यूंकी उसे तो नौकरी बचानी है | जिससे की उसका घर चल सके |

चैनलो में पत्रकारिता "” बहुत आसान भी है और बहुत श्रम साध्य भी है "” यू ट्यूब और आकाशी चैनलो में की भीड़ में लोकल चैनल गुम से हो गए हैं | आम आदमी का सारोकार शहर की उलझ्नो के सुलझाने में होता हैं | अब विज्ञापन का खेल यानहा भी बहुत तगड़ा हैं | और आकाशी चैनलो में नब्बे फीसद तो मोदी सरकार के गुणगान या काँग्रेस की खामियो अथवा हिन्दू -मुसलमान और भारत का छुपाया गया इतिहास और नए मंदिरो से बनता देश ही उनके लिए मुख्या है | एक अमेरिकी पत्रकार ने कहा था की "”खबर वह नहीं हैं ,जिसे दिखाये जाने की कोशिस है , खबर वह हैं जिसे छुपाए जाने की कोशिस की जाये "” अब इस कसौटी पर तो खरा उतरना देश के 99 फीसदी चैनलो के लिए संभव नहीं हैं | क्यूंकी वे सरकार के बयानो और उनके लोगो के इंटरव्यू दिखाने में ही लगे रहते हैं | आप देश की घटनाओ की हक़ीक़त को जानने के लिए बीबीसी या सीएनएन अथवा अल जज़ीरा देखना पड़ता हैं | अब जिनहे सरकारी बयानो को ही मानना हैं , उन्हे कोई खास मेहनत नहीं करनी होती | पर कोरोना के पहले लहर के लाक डाउन में लाखो लोगो के पैदल -साइकल और ऑटो आदि ट्रक से उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर "””मार्च "” को कितने चैनलो ने दिखाया ,आप उत्तर खोजे | और कितने अखबारो में ऑक्सीज़न की कमी से होने वाली मौतों को दिखाया ? कितनों ने गंगा में बहती हुई हजारो लाशों को भारत की जनता को दिखाया ? जो अखबारनवीसी सत्ता का साथ दे वह "”नौकरी "” हैं व्यवसाय नहीं | आखिर में अपने पिता जी का कहा लिखना चाहूँगा , जो उन्होने पत्रकार और सरकार के संबंधो के बारे में कहा था "”’’ पत्रकार को सरकार की आंखो में एक किरकिरी बन के रहना चाहिए ,जिसे वह जनता के दुख दर्द की असलियत सामने ला सके | वनही सरकार भी दुश्मन नहीं जो खतम कर दिया जाये | {समाप्त }

लेखक --विजय कुमार तिवारी

-43 , 45 बंगले ,भोपाल

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया

जवाहर चौक , भोपाल 30387

आईएफ़एस कोड एसबीआई एन 0030387 स्विफ्ट

अकाउंट नंबर 53000760570

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Feb 9, 2022

 

मोदी जी गोवा का मुक्ति अभियान के अंतराष्ट्रीय परिणाम थे !!

1961 के दिसंबर 17 को भारत सरकार ने गोवा को मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन विजय शुरू किया | थल और सागर की ओर से भारतीय सेनो की टुकड़ियों ने ,मेजर जनरल के पी कैनडेथ की अगुवाई में भोर में अपना अभियान शुरु किया था | जो 48 घंटे में पूरा कर लिया गया | 18 दिसंबर को पंजीम में जनरल कैनडेथ ने मिलिट्री गवर्नर के रूप में 1500 वर्ग मिल छेत्रफल वाले पुर्तगाली उपनिवेश को आज़ाद करा कर भारतीय गणराज्य में मिला लिया |

2022 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में कहा था "””की   अगर सरदार पटेल की तरह जूनागद और हैदराबाद का फौजी रूप से विलय कर लिया होता तो देश को "”””15 वर्ष "”” तक गोवा को परतंत्र नहीं रहना पड़ता !!!!

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का अध्ह्य्यन अधूरा ही रहता हैं , अथवा वे जान बूझ कर तथ्यो को या तो गायब कर देते हैं अथवा उनको भूल जाते हैं !

मोदी जी ने पंडित जवाहर लाला नेहरू पर अंतराष्ट्रीय सारोकारों को ध्यान में रखने और राष्ट्रिय सरोकारों की अनदेखी करने का आरोप संसद में लगाया ! जो की दो अर्थो में दुर्भाग्यपूर्ण रही | प्रथम उन्हे यह नहीं मालूम की पुर्तगाल नैटो सैन्य संधि का सदस्य था | जिसका अर्थ होता हैं की अम्रीका के नेत्रत्व में बने इस सैनिक संगठन की शर्त ही है "”” एक देश की प्रभुता पर हमला सभी सदस्यो पर हमला है "” ! इस संगठन के सदस्य अमरीका -ब्रिटेन - फ्रांस और यूरोपीय देश जर्मनी आदि थे | ऐसी स्थिति में मोदी जी राष्ट्रियता "”” का 15 वर्ष पूर्व ---गोवा को अधिकार में लेने का अर्थ होता दुनिया के बड़े राष्ट्रो की सैन्य ताकतों को चुनौती देना ! क्या एक नवोदित स्वतंत्र राष्ट्र ऐसी "””मूर्खता पूर्ण राष्ट्रीय हरकत "” कर सकता था ? उत्तर होगा नहीं | बल्कि पंडित नेहरू ने इस अभियान के लिए "उचित" समय चुना |

1961 के दिसंबर माह में सोवियत रूस के राष्ट्रपति बोरिस वोरोशिलोव दिल्ली की यात्रा पर आए हुए थे | 17 दिसंबर को वे दिल्ली में ही थे | जब दुनिया को भारतीय सैन्य कारवाई की जानकारी हुई , और "”नाटो "” सैनिक संगठनो के राष्ट्रो को खबर हुई की उसके सदस्य देश पुर्तगाल की संप्रभुता वाले उपनिवेश गोवा को भारतीय सेनाओ ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया ,तब अमरीका ब्रिटेन फ्रांस और पुर्तगाल ने -इस कारवाई का सनिक "””प्रतिरोध"” करने का विचार किया | नवोदित राष्ट्र के सामने भयंकर चुनौती थी |

तब रूसी राष्ट्रपति बोरिस वोरोशिलोव ने दिल्ली से एक बयान जारी कर के भारतीय कारवाई को जायज बताया | शीट युद्ध के उस काल में रूस के राष्ट्रपति की यह चुनौती ने अमेरिका और अन्य यूरोपीय राष्ट्रो को सोचने पर मजबूर कर दिया की भारत पर सैन्य कारवाई का मतलब रूस से भी भिड़ना होगा | अनेक यूरोपीय राष्ट्रो को सामने अपनी सीमा पर तैनात रूसी टैंको का भय लगा |

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभ में यह कहना की "”की अगर नेहरू जी राशत्रवादी सोच से निर्णय लेते तो गोवा को 15 साल की गुलामी नहीं भोगनी पदनी पड़ती ! “”

आज़ादी के समय रियासटो के विलय को विदेशी उपनिवेशों मसलन गोवा - दमन - डीयू और पाओण्डिचेरी के बराबर नहीं रखा जा सकता ना तो कानूनी रूप से और नाही संप्रभुता की द्राशती से |

लगता है गोवा के विलय के माले की सम्पूर्ण जानकारी विदेश मंत्री जटा शंकर अरे जय शंकर जी ने मोदी जी के भासन की जानकारी नहीं रही होगी ,अन्यथा विदेश सेवा का एक पूर्व अधिकारी इतनी गलत तथ्य सार्वजनिक रूप से लोकसभा में नहीं कहने देता | गोवा के मामले में हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी कारवाई नहीं संभव हैं क्यूंकी --- यह विदेश नीति और अंतराष्ट्रीय कूट नीति का मामला हैं | आज यूक्रेन और रूस में तनाव की जो स्थिति है और नैटो तथा रूस की सेनाए जिस प्रकार युद्ध को आमंत्रण देती दिख रही हैं , वैसा ही कुछ माहौल होता मोदी जी , तब क्या भारत इस ताक़त और स्थ्ति का मुक़ाबला कर सकेंगे ? अभी अपने दोस्त शी ज़ीन पिंग की लद्दाख की सीमाओ पर रोक भर ले | अंतराष्ट्रीय मुद्दा बन गया तो एक तिब्बत और बन जाएगा | श्रीमान कुछ जानकारी लेकर बयान दिया करे मदारी जैसे बयान से देश की समस्याए हल नहीं होती |

Feb 7, 2022

 

ग्रहस्थाश्रम --विवाह - में संतान- और सहवास में सहमति ?


भारतीय संसक्राति में अध्ययन पूर्ण करने के बाद ,जब युवक आजीविका से लग जाता हैं तब , सभी धर्मो में उसका विवाह ,परिवार की प्राथमिकता होती हैं | आजकल शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप लड़की के अध्ययन पूर्ण होने पर उसका भी विवाह प्राथमिकता होता हैं | आशय यह है की वंश बेली को आगे ले जाने के लिए विवाह से संतान की आशा सभी अभिभावकों को होती है | सदियो से चली आ रही इस परंपरा में अब एक कानूनी पेंच आ सकता हैं | यह तथ्य दिल्ली उच्च न्यायालय में कुछ "””नारी संगठनो "” द्वरा दायर एक याचिका से उपजा हैं | इसमें वर्तमान में भारतीय दंड संहिता के एक प्रविधान को लेकर आपति की गयी हैं |

इस याचिका में मांग की गयी हैं की दंड संहिता की

धारा 376 में बलात्कार की परिभाषा में , संशोधन कर के पत्नी को भी यह अधिकार दिया जाए की पति द्वरा बिना पत्नी की सहमति के सहवास को बलात्कार की श्रेणी में माना जाये ! अब तक यह माना जाता था की पत्नी के अलावा अन्य महिला से उसकी सहमति के बिना किया गया सहवास ही "”बलात्कार "” माना जाता था ,वह भी उस महिला की शिकायत के बाद | क्यूंकी कानुनन दो व्यसक आपसी सहमति से अगर सहवास करते हैं तब यह बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता है | हाँ यदि पैसा देकर यदि यह संबंध बनाया जाता हैं तब वह वेश्या व्रति के दायरे का अपराध हैं |

अब इन हालत में पति -पत्नी के मध्य भी सहवास को अगर "”पत्नी की सहमति "” को कानूनन मान्यता मिलती हैं , जिसका याचिका कर्ता मांग कर रहे हैं ----तब विवाह और परिवार की अस्मिता ही खतम हो जाएगी | क्यूंकी आज भले ही पति और पत्नी दोनों ही आजीविका कमाते हो , पर पहले घर चलाने के लिए धन का बंदोबस्त का दावित्व पति का होता था | एवं पत्नी संतान सुख और भोजन अथवा घर की व्यसथा की जिम्मेदार होती थी | परंतु स्त्री के हक़ की बात आज इसलिए उठाई जा रही हैं ,चूंकि अब महिलाए भी काम करती है | वे अब आर्थिक रूप से स्वतंत्र है | इसलिए वे अब अन्य छेत्रों में समान अधिकार पाने के बाद ---अब सहवास में भी अपना अधिकार चाहती हैं | वैसे शारीरिक संबंध को "”संभोग "” कहा गया हैं , अर्थात दोनों ही पक्षो द्वरा भोगा जाने वाला समान रूप का सुख | इस में नारी की सहमति स्पश्स्त हैं | परंतु देखा गया हैं की पुरुष अक्सर महलाओ की सहमति को जरूरी नहीं मानते हैं |

महानगरो और राजधानियों में जनहा , कामकाजी दंपतियों की संख्या बहुतायत से हैं वनहा ऐसी स्थिति बनती हैं | जब दोनों के अहम टकराते हैं | तब घर के हर निर्णय में बराबरी की हिस्सेदारी की बात उठती हैं | और यह घर से होती हुई उनके शयन कछ में भी आ जाती हैं | जिसके परिणाम स्वरूप सहवास में सहमति की बात उठती हैं |

पर इसका दूसरा पहलू भी हैं कामकाजी महिलाए अपनी आज़ादी को विवाह के नाम पर "”पुरुष"” के पास गिरवी नहीं रखना चाहती हैं | जिसका कारण हैं की अध्यापन और मेडिकल के छेत्र में कार्यरत महलाए "’अविवाहित "” रहती हैं | उनके माता -पिता इस स्थिति को अपूर्ण मानते हैं और दुखी होते हैं | अक्सर विवाह के विज्ञापनो में 40 वर्ष की महिलाओ के लिए भी "”वर "” खोजने की खबरे मिलती हैं | साफ हैं की इन "”वारिस्ठ कन्याओ "” के माता बनने का अवसर नहीं होता हैं | तब वे क्यू पति चाहती हैं ? उत्तर है वे पति नहीं साथ रहने वाला पुरुष चाहती हैं | अक्सर कैरियर को महत्ता देते हुए उसमे एक मुकाम बनाते -बनाते उनका निजी जीवन खोखला हो जाता हैं | व्यवसाय में मिलने वाला धन और सम्मान उन्हे अपनी निजी जिंदगी में झाँकने ही नहीं देता | फलस्वरूप जीवन के संध्या काल में उनका "”अकेलापन " उन्हे डँसता है |

परंतु इस हक़ीक़त के बाद भी अधिकतर महिलाए या तो "”एकाकी और बिना किसी के दखलंदाज़ी "” के बिताना चाहती हैं | उन्हे विवाह यौन सुख का एक रास्ता और परिवार की इकाई एक बोझ लगती हैं | वे अपने कार्य स्थल पर "बॉय फ्रेंड " से संतुष्ट रहती हैं | जो उन्हे डेट पर घुमाने और डिनर खिलाने या पार्टी मे साथ लेकर जाता हैं | जबकि उसकी पत्नी घर पर होती है ! ऐसे संबंध बसे -बसाये परिवार को बिखेर देते हैं | क्यूंकी यह संबंध सुविधा पर बने होते हैं -जो तात्कालिक सुख आधारीत होते हैं | जिनमे कोई कर्तव्य नहीं होता | जबकि परिवार पति और पत्नी के अधिकार और कर्तव्य से बनता हैं , जिसमे अधिकतर दोनों को ही मन मारकर जिम्मेदारिया निभाना होती हैं |