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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 1, 2013

कुम्भ पर्व या मेला

 कुम्भ पर्व या मेला  यह प्रश्न  इसलिए मौजू  हैं चूँकि इस भव्य आयोजन में एक करोड़ से ज्यादा लोगो के आने की उम्मीद हैं ,और इस   हिसाब से बंदोबस्त भी हैं ।उत्तर प्रदेश सरकार  द्वारा  सौ करोड़ से अधिक की धनराशी और हजारो लोगो का सरकारी  अमला  भी लगा हुआ हैं ।वंहा प्रकाश - पुल -सड़क और अस्पताल  और शांति -व्यस्था   के लिए भारी पुलिस बंदोबस्त हैं ।परन्तु इस आयोजन  का महत्वपूर्ण अंग हैं ,यंहा पधारे हुए संत -महात्मा ।वैसे तो इनकी संख्या यंहा पर आये विभिन्न  अखाड़ो से पता लगायी जा सकती हैं , परन्तु इस समुदाय से अलग भी एक बड़ी संख्या उन साधू संतो की हैं जो किसी भी अखाडे से जुड़े नहीं हैं ।इन एकल साधुओ  को देखना अपने एक अनुभव हैं ।कोई तीस वर्षो से एक हाथ उठाये  परमपिता परमेश्वर से विश्व  शांति  के लिए प्रार्थना कर रहे हैं ,तो कोई देश की खुशहाली के लिए एक पैर से तपस्यारत हैं , अब आप ही बताये की परोपकार के लिए एक व्यक्ति का इस से बड़ा योगदान किया हो सकता हैं ।वह भी आज के भागम-भाग युग में ?एक और जंहा  ऐसे हठ  योगियों की कठिन साधना सर झुकाने पर मजबूर करती हैं , वंही  दूसरी और जगत गुरु -महा मंडलेस्वर - तथा मठ्धिशो के विशाल और भव्य पंडाल तथा उनके रहने की सुंदर व्यस्था तथा  अन्न्छेत्र  में मिलने वाला प्रसाद उनकी हैसियत का  प्रतीक बन रहा हैं । 
                           उ,द्घाटन के दिन अखाड़ो के स्वामियों की सवारी देखते ही बनती थी,उनका सिघासन और पीछे चवर डुलाते भक्त इन भगवा वस्त्र धारियों  को एक राजा को मिलने वाले सम्मान की याद दिला  देता हैं ।वैसेएक सवाल भी उठता  हैं की इस राजसी ठाठ से धरम अथवा समाज का कितना भला हो रहा हैं ?वैदिक परंपरा के अनुसार तो सन्यासी को बहुत कम  वस्तुओ की जरूरत होनी चाहिए , क्योंकि वह तो अपरिग्रह का मार्ग  अपनाये हुए हैं । शानो-शौकत की सवारी और लाव लश्कर तो इस नियम के विपरीत हैं  ।परन्तु श्रधालुओ  का दान और शिष्यों की अधिकता भी  इन्हे बंदोबस्त  करने पर मजबूर करती होगी । तभी  इतना सब करना पड़ा । 
         समुन्द्र मंथन से निकले अमृत के बटवारे में छलकी  बूंदों के कारन ही इस पर्व का आयोजन किया जाता हैं , वस्तुतः इस धार्मिक  आयोजन का रूप अब तो  एक विशाल मेले जैसा हो गया हैं ।जंहा  धर्म धवजा लहराने वाले मठाधिसो और मण्डलो  के अधिस्वरो की अपरिमित सम्पन्नता  और प्रभाव दिखाई पड़ता हैं ।जिसमें गृहत्यागी - स्वयं का तर्पण कर  चुके त्यागी और वीतरागी होऩे  के भाव का सर्वथा अभाव हैं । शायद  इसलिए इस अति विशाल और विहंगम आयोजन में श्रधा का भाव कम लगता हैं , अधिकतर लोग तो इस अवसर पर स्नान को ```एक धार्मिक ड्यूटी समझ कर आते हैं . भले ही कुछ लोगो में परम पिता परमेश्वर की आराधना  का भाव हो ।  ज्यादातर बाबा लोग तो अपनी  उपस्थिति ही दर्ज करते लगते  हैं , जन्हा उनके शिष्यों  को आना होता हैं । हाँ दुनिया  के सबसे  बड़े इस आयोजन को देखने के लिए विदेशियों की लम्बी -चौड़ी संख्या होती हैं , जिनके लिए यह एक कतुहल का विषय हैं की तीन करोड़ से लोग यंहा सिर्फ गंगा और यमुना के संगम में दुबकी लगाने के लिए एकत्र  होते हैं . ।यूरोप के अनेक देशो की कुल जनसँख्या भी इतनी नहीं हैं । हालाँकि अनेको विदेशी अनेक धार्मिक संगठनो के माध्यम से भी आते हैं  ,जो स्न्नसनार्थियो के लिए कौतूहल का विषय होते हैं । आज़ादी के साठ साल    बाद भी ''गोरा साहेब'' देखने की जिज्ञासा रहती हैं और अगर गोरी मेम दिखाई पद जाए तो ठिठक कर रूक कर भी लोग उन्हे देखते हैं ।देसी या विदेशी लोगो को  सबसे ज्यादा उत्सुकता  नागा साधुओ को देखने की होती हैं  देह में भसम रमाये नंग -धडंग चिंता बजाते हुए इनकी  टोली सभी के लिए आकर्षण का कारन होती हैं । उन विदेशी लोगो के लिए  जंहा NUED  क्लुबो की लम्बी कड़ी हैं और  नंगे नहाने की सदियों पुराणी परंपरा हैं  ।हमारे यंहा तो श्री कृष्णा ने गोपियों की इस आदत को समाप्त  करने के लिए उनके कपडे तक उठा लिए थे ।
                         लगभग एक से दो करोड़ की चलती -फिरती आबादी के लिए  सुरक्षा -चिकित्सा -प्रकाश  और साफ़ सफाई का बंदोबस्त कठिन कार्य हैं  ,पर अंगरेजो के ज़माने से इस आयोजन का बंदोबस्त राज्य शास न का दायित्व रहा हैं ।जिसे सभी सरकारों ने बखूबी निभाया हैं फिर भले ही वे किसी भी रंग की रही हो    ।
                                     वैसे पाठको के लिए एक प्रश्न तो छोड़ ही रहा हूँ की इसे ''पर्व कहे या मेला ''?आप बताये ।