लोकतंत्र बनाम जिम्मेदार सरकार ---भारतीय नागरिक
प्रयागराज में "”महा कुम्भ "” मे हुई अव्यवस्था और भगदड़ पर सोशल मीडिया पर "” एक भक्त"” ने पोस्ट लिखा की " सरकार के बेहतरीन इंतजाम के बावजूद ट्रेनों में तोडफोड और जगह -जगह गंदगी को देखते हुए , लगता हैं भारत के नागरिक "”लोकतंत्र "” के लिए तैयार नहीं हैं ! अब इन सज्जन को क्या कहे की आज के भारत को जिस प्रकार का राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा मिल हैं --वह हमारे पूर्वजों की "देन " नहीं हैं बल्कि ब्रिटिश या अंग्रेजों की विरासत हैं | कुछ अति उत्साही मौजूदा लोकतंत्र को सम्राट अशोक के "”नगर गणतंत्र" की विरासत मानेंगे ! वे पूरी तरह गलत नहीं हैं , परंतु सही भी नहीं हैं |
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वरा देशी रियासतों को परास्त करने के बाद शोषण और अत्याचार की परिणिती ही 1857 का विद्रोह का जनक था | जिसके बाद ब्रिटिश शासक ने भारत की प्रशासनिक और राजनीतिक बागडोर अपने हाथों मे ले ली | 1858 में विक्टोरिया चार्टर द्वरा भारत के उन प्रांतों को जन्हा कंपनी बहादुर सीधे लगान वसूलती थी और उन रियासतों का प्रबंध सीधे ब्रिटिश संसद के माध्यम से महारानी की सरकार ने अपने हाथों में ले लिया | 1861 में भारत में ब्रिटेन की सरकार की ओर से भारत के लिए वायासरॉय की नियुक्ति की गई जिसकी मदद के लिए पाँच सदस्यीय कौंसिल बनाई गई , जो महारानी के मंत्रिमंडल के , भारत के सचिव के अधीन थी | एक जिम्मेदार शासन व्यवस्था के लिए "”भारतीय सिविल सेवा "” का गठन किया गया | जो आज के मौजूदा आईएएस के पुरखे थे | वायसरॉय की मदद के लिए पाँच सदस्यीय काउंसिल का गठन हुआ --जो गृह -सेना --कानून --वित्त और राजस्व मामलों के लिए जिम्मेदार थी | इसमे वैसे तो अंग्रेज ही सदस्य होते थे परंतु भारतीयों के लिए भी एक जगह थी |
1905 में ब्रिटिश संसद ने भारत के लिए एक "”जनोन्मुखी "’ प्रशासन देने की पहल करते हुए 1909 में सीमित मताधिकार द्वरा धर्म आधारित निर्वाचन छेत्र बनाए | जिनको वायासरॉय को सलाह देने के लिए एक काउंसिल के लिए चुना जाता था | इसमे हिन्दू और मुसलमान लोगों के लिए अलग -अलग निर्वाचन छेत्र थे | 1919 में सिखों के लिए भी प्रथक निर्वाचन छेत्र गठित किए गये | ऐसा भारत के आम लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति सद भावना उत्पन्न करने का प्रयास था | एक विदेशी कौम द्वरा भारत को प्रशासनिक ढांचे मे बांधने का शायद यह प्रथम प्रयास था | 1919 के अधिनियम द्वरा केंद्र में दो सदन का गठन किया गया | जिसमे तत्कालीन "” नरेंद्र मण्डल "” यानि की खुद मुख्तार देशी राजाओ की ओर से प्रतिनिधि नामित होते थे | दूसरे सदन में नरेश मण्डल अर्थात बड़े -बड़े महराज बहादुर और राजा बहादुर , जो की वास्तव में इलाकों से किसानों से मालगुजारी --लगान वसूलते थे | ब्रिटिश शासित इलाकों में दो प्रथा थी | एक में इलाके की पैदावार के हिसाब से सरकार नियात राशि का भू राजस्व तय करती थी | फिर उसको वसूलने का अधिकार किसी देशी सेठ साहूकार या जमींदार को मिलता था | जिसकी जिम्मेदारी उस राजस्व को खजाने में पहुचने की थी | कुछ इलाकों में जन्हा अंग्रेज भी जमीन लेकर फसल उगाते थे , वन्हा किसानों को जमीन के रकबे के हिसाब से मालगुजारी नियत की जाती थी | इस प्रथा में किसान सीधे खजाने मे लगान जमा करता था | अवध में दोनों प्रथा थी | चूंकि उस समय शासन का मुख्य ये का श्रोत लगान या मालगुजारी ही हुआ करता था ------इसलिए जिलों मे सर्वोच अधिकारी को "”कलेक्टर '’ नाम दिया गया | जीसे आज हम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कहते हैं | जिम्मेदार प्रशासन की दिशा में यह पहला कदम था -----जिसमे कोई भी नागरिक अपनी शिकायत कलेक्टर साहब से सीधे कर सकता था , जो उसकी जांच करता था | आज तो आम आदमी सिर्फ मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री से ही शिकायत कर सकता हैं | हालांकि कलेक्टर साहेबान भी जन सुनवाई करते तो हैं | यह भी ब्रिटिश सीस्टम से ही आया हैं |