आरोप लगाया हैं तो साबित भी करो नहीं तो सज़ा भुगतो
भारतीय अपराध प्रक्रिया संहिता के आधार पर ही किसी भी अपराध को पुलिस सज्ञेय अथवा असज्ञेय की श्रेणी मे रखकर विवेचना करती हैं | अपराध की विवेचना के दौरान सबूत एकत्र करने और गवाह खोजने के लिए वे किसी को भी थाने मे बुलाने और पूछताछ करने का 'अधिकार; हैं | इतना ही नहीं अगर उन्हे शक हैं तो वे किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे तक हवालात मे भी रख सकते हैं - कानूनन | परंतु यह सब अधिकार उन्हे इस उम्मीद मे मिले थे की वे ''अपराधी को सज़ा दिलाने ''मे कामयाब होंगे | परंतु आंकड़े बताते हैं की देश मे पुलिस मे दर्ज़ अपराधो मे से मात्र एक तिहाई भर ही अदालत द्वारा दोषी करार दिये जाते हैं | नाकामयाब हुए इन मुकदमो मे भी पुलिस का भ्रष्ट तंत्र ''फलता-फूलता'' हैं | अखबारो मे पुलिस द्वारा डरा -धमका कर पैसा वसूलने की खबरे रोज छपती हैं | रिश्वत लेते पुलिस अफसरो को पकड़ने की भी खबरों को देखा जाता हैं | अदालतों मे पुलिस की इन असफलताओ को विभागीय स्तर पर कभी - कभी परख भी लिया जाता हैं | परंतु असफल होने पर सिर्फ सवाल - जवाब ही किया जाता हैं | फिर सब कुछ पहले की ही तरह चलने लगता हैं | विभाग भी पुनः असंवेदनशील रुख पर बना रहता हैं | चुनाव मे और सभाओ मे नेता अगर पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कारवाई की मांग करता हैं तब सरकार के अधिकारी और मंत्री कभी संसाधनों की कमी या गवाह और सबूत का अभाव बता कर जन आक्रोश को भरमाने का काम करते हैं |
परंतु इस सब कारवाई मे वह व्यक्ति जिसे अदालत निर्दोष बताते हुए रिहा कर चुकी होती हैं |परंतु वह और उसका परिवार जो अदालत की पेशियो और वकीलो के खर्चे और अदालत मे दी गयी रिश्वतों के कारण या तो कर्ज़ मे डूब चुका होता हैं अथवा उसकी ज़मीन और मकान गिरवी होते हैं या बिक चुका होता हैं | इसके अलावा समाज मे जिन उपाधियों से उस आदमी और परिवार को नवाजा जाता हैं वह उन्हे ही पता होता हैं | उसे निर्दोष सिद्ध होने मे इतना सब कुछ हो जाता हैं और जिस विवेचना अधिकारी की कारण उसे इतना अपमान और धन खर्च करना पड़ा हैं सामाजिक प्रताड्ना झेलनी पड़ी हैं , वह तो अधिकतर मौके पर अदालत मे फैसला सुनाये जाने के वक़्त मौजूद भी नहीं होता हैं | क्योंकि उसे अपने मुक़दमे की कमजोरी का भान होता ही हैं | कभी -कभार ही कोई संवेदनशील जज विवेचना अधिकारी के खिलाफ टिप्पणी लिखता हैं | कभी ही वे पुलिस को इस टिप्पणी पर कारवाई करने और पुलिस अधिकारी को दंडित करने का हुकुम सुनाते हैं |
परंतु अब सूप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरोप लगाने वाले दारोगा जी को अदालत मे भी अपने कहे -लिखे और की गई विवेचना को सही सीध करना होगा | नहीं तो सज़ा के लिए तैयार रहना होगा | इस आदेश को थाने तक पहुचने मे काफी वक़्त लग सकता हैं | क्योंकि सूप्रीम कोर्ट के इस आदेश से देश की पुलिस मे खलबली मच जाएगी | क्योंकि अपने किए को अपना अधिकार और शासन का महत्वपूर्ण अंग मानते हुए ---किंग डज नो रांग की तर्ज़ पर हमेशा अपने को सही मानने का दंभ पाले रहते हैं | इसीलिए अदालतों मे निर्दोष पिस्ते रहते हैं | हर कोई भय से ग्रस्त रहता हैं की कब कोई पुलिस वाला आकर कहेगा थाने चलो | और वह बीस या चौबीस घंटे वह या तो बेंच पर या हवालात मे बैठे रहना पड़ेगा | उसके बाद उसको गाली देकर भागा दिया जाएगा - ''जा जा इस बार छोड़ रहे हैं आगे से कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए | '' जिन मामलो मे सर्वाधिक मुक़दमे अदालत मे खारिज हो जाते हैं -वे अधिकतर यौन संबंधी होते हैं | हालांकि दो बालिग व्यक्ति आपसी सहमति से संबंध बनाने का अधिकार रखते हैं |वे कही भी एकांत मे बैठने और मर्यादित व्याहर करने के लिए स्वतंत्र हैं | परंतु पुलिस इन सब को ''आवारगी'' करने मे सार्वजनिक रूप से उठक -बैठक करवाती हैं या थाने पकड़ कर ले जाती हैं | थाने पर लड़के -लड़की के माता-पिता को बुलवाया जाता हैं , उन्हे सीख दी जाती हैं की वे बच्चो को लगाम मे रखे | होटल के कमरे मे अगर स्त्री-पुरुष सहमति से यौन संबंध बनाते हैं तब उन्हे अङ्ग्रेज़ी मे ""सीता"" कानून के अंतर्गत बंद कर के उनका जुलूस निकाला जाता हैं | इस दौरान भी दारोगा जी आमदनी कर लेते हैं | अदालत मे जब ऐसे केस छूट जाते हैं तब भी उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होने तो दोनों पछो को ''दुह '' लिया होता हैं |
अब सूप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद उम्मीद तो यही की जानी चाहिए की ''कोई निर्दोष को आरोपी न बनाया जाये ''वैसे भी विधिशास्त्र का नियम हैं की ''दस अपराधी भले छूट जाये पर एक बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए """...................
भारतीय अपराध प्रक्रिया संहिता के आधार पर ही किसी भी अपराध को पुलिस सज्ञेय अथवा असज्ञेय की श्रेणी मे रखकर विवेचना करती हैं | अपराध की विवेचना के दौरान सबूत एकत्र करने और गवाह खोजने के लिए वे किसी को भी थाने मे बुलाने और पूछताछ करने का 'अधिकार; हैं | इतना ही नहीं अगर उन्हे शक हैं तो वे किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे तक हवालात मे भी रख सकते हैं - कानूनन | परंतु यह सब अधिकार उन्हे इस उम्मीद मे मिले थे की वे ''अपराधी को सज़ा दिलाने ''मे कामयाब होंगे | परंतु आंकड़े बताते हैं की देश मे पुलिस मे दर्ज़ अपराधो मे से मात्र एक तिहाई भर ही अदालत द्वारा दोषी करार दिये जाते हैं | नाकामयाब हुए इन मुकदमो मे भी पुलिस का भ्रष्ट तंत्र ''फलता-फूलता'' हैं | अखबारो मे पुलिस द्वारा डरा -धमका कर पैसा वसूलने की खबरे रोज छपती हैं | रिश्वत लेते पुलिस अफसरो को पकड़ने की भी खबरों को देखा जाता हैं | अदालतों मे पुलिस की इन असफलताओ को विभागीय स्तर पर कभी - कभी परख भी लिया जाता हैं | परंतु असफल होने पर सिर्फ सवाल - जवाब ही किया जाता हैं | फिर सब कुछ पहले की ही तरह चलने लगता हैं | विभाग भी पुनः असंवेदनशील रुख पर बना रहता हैं | चुनाव मे और सभाओ मे नेता अगर पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कारवाई की मांग करता हैं तब सरकार के अधिकारी और मंत्री कभी संसाधनों की कमी या गवाह और सबूत का अभाव बता कर जन आक्रोश को भरमाने का काम करते हैं |
परंतु इस सब कारवाई मे वह व्यक्ति जिसे अदालत निर्दोष बताते हुए रिहा कर चुकी होती हैं |परंतु वह और उसका परिवार जो अदालत की पेशियो और वकीलो के खर्चे और अदालत मे दी गयी रिश्वतों के कारण या तो कर्ज़ मे डूब चुका होता हैं अथवा उसकी ज़मीन और मकान गिरवी होते हैं या बिक चुका होता हैं | इसके अलावा समाज मे जिन उपाधियों से उस आदमी और परिवार को नवाजा जाता हैं वह उन्हे ही पता होता हैं | उसे निर्दोष सिद्ध होने मे इतना सब कुछ हो जाता हैं और जिस विवेचना अधिकारी की कारण उसे इतना अपमान और धन खर्च करना पड़ा हैं सामाजिक प्रताड्ना झेलनी पड़ी हैं , वह तो अधिकतर मौके पर अदालत मे फैसला सुनाये जाने के वक़्त मौजूद भी नहीं होता हैं | क्योंकि उसे अपने मुक़दमे की कमजोरी का भान होता ही हैं | कभी -कभार ही कोई संवेदनशील जज विवेचना अधिकारी के खिलाफ टिप्पणी लिखता हैं | कभी ही वे पुलिस को इस टिप्पणी पर कारवाई करने और पुलिस अधिकारी को दंडित करने का हुकुम सुनाते हैं |
परंतु अब सूप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरोप लगाने वाले दारोगा जी को अदालत मे भी अपने कहे -लिखे और की गई विवेचना को सही सीध करना होगा | नहीं तो सज़ा के लिए तैयार रहना होगा | इस आदेश को थाने तक पहुचने मे काफी वक़्त लग सकता हैं | क्योंकि सूप्रीम कोर्ट के इस आदेश से देश की पुलिस मे खलबली मच जाएगी | क्योंकि अपने किए को अपना अधिकार और शासन का महत्वपूर्ण अंग मानते हुए ---किंग डज नो रांग की तर्ज़ पर हमेशा अपने को सही मानने का दंभ पाले रहते हैं | इसीलिए अदालतों मे निर्दोष पिस्ते रहते हैं | हर कोई भय से ग्रस्त रहता हैं की कब कोई पुलिस वाला आकर कहेगा थाने चलो | और वह बीस या चौबीस घंटे वह या तो बेंच पर या हवालात मे बैठे रहना पड़ेगा | उसके बाद उसको गाली देकर भागा दिया जाएगा - ''जा जा इस बार छोड़ रहे हैं आगे से कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए | '' जिन मामलो मे सर्वाधिक मुक़दमे अदालत मे खारिज हो जाते हैं -वे अधिकतर यौन संबंधी होते हैं | हालांकि दो बालिग व्यक्ति आपसी सहमति से संबंध बनाने का अधिकार रखते हैं |वे कही भी एकांत मे बैठने और मर्यादित व्याहर करने के लिए स्वतंत्र हैं | परंतु पुलिस इन सब को ''आवारगी'' करने मे सार्वजनिक रूप से उठक -बैठक करवाती हैं या थाने पकड़ कर ले जाती हैं | थाने पर लड़के -लड़की के माता-पिता को बुलवाया जाता हैं , उन्हे सीख दी जाती हैं की वे बच्चो को लगाम मे रखे | होटल के कमरे मे अगर स्त्री-पुरुष सहमति से यौन संबंध बनाते हैं तब उन्हे अङ्ग्रेज़ी मे ""सीता"" कानून के अंतर्गत बंद कर के उनका जुलूस निकाला जाता हैं | इस दौरान भी दारोगा जी आमदनी कर लेते हैं | अदालत मे जब ऐसे केस छूट जाते हैं तब भी उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होने तो दोनों पछो को ''दुह '' लिया होता हैं |
अब सूप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले के बाद उम्मीद तो यही की जानी चाहिए की ''कोई निर्दोष को आरोपी न बनाया जाये ''वैसे भी विधिशास्त्र का नियम हैं की ''दस अपराधी भले छूट जाये पर एक बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए """...................