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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Dec 22, 2013

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र क्या दिल्ली मे संभव हैं ?

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र क्या दिल्ली मे संभव हैं ?

आप पार्टी द्वारा दिल्ली विधान सभा चुनावो मे दूसरी बड़ी पार्टी केरूप मे उभार के आने के बाद भी , जिस प्रकार अलापमात की सरकार के गठन के लिए स्वयंभू जनमत संग्रह किया , उस से अनेक प्राशन खड़े हो गए हैं | सबसे पहला तो यह हैं की ''चुनाव'' किस हेतु सम्पन्न हुए थे और आप पार्टी ने किस भूमिका को निभाने के लिए इनमे भाग लिया था ?स्पष्ट हैं की सरकार गठन के लिए ही चुनाव कराये गए थे -क्योंकि वह संवैधानिक बाध्यता हैं | आप पार्टी ने भी सरकार के गठन के लिए ही इसमे भाग लिया था, अथवा सदन मे विपक्ष मे बैठने के लिए ?अब सवाल यह हैं की सबसे बड़ी पार्टी के रूप मे भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने से साफ माना कर दिया क्योंकि जनता ने उन्हे ''स्पष्ट बहुमत प्रदान नहीं किया | यद्यपि ज़िम्मेदारी उनकी ही बनती थी | परंतु काँग्रेस बहुमत के लिए उनका समर्थन नहीं कर सकती थी | अतः दूसरा विकल्प आप पार्टी का था | परंतु निर्वाचन की राजनीति मे पहली बार आयी इस पार्टी को शासन और सरकार का विरोध तो करने की कुशलता तो थी परंतु ""लोगो को किए गए वादो """ को पूरा कैसा किया जाएगा इसका ज्ञान नहीं था | जनता की निगाहों मे आप की साख बनी रहे इसके बारे मे उन्हे असमंजस था | शायद अपने संदेह को मिटाने और अपनी नव गठित पार्टी की ''साख''' बनाए रखने के लिए 1करोड़ 50 लाख मतदाताओ मे से कितने उनके पक्ष मे हैं , यह जानना उनके लिए ज़रूरी भी था | जो उन्होने किया |

परंतु उन्होने घोसणा की ''उनकी सरकार के सभी फैसले सार्वजनिक सभा मे लिए जाएँगे | अब सरकार के फैसले अधिकतर तो प्रशासन की सलाह पर ही किए जाते हैं | अतः क्या प्रशासन के भी सभी फैसले सभाओ मे किए जाएँगे , यह प्रश्न हैं ? क्योंकि अगर ऐसा किया गया तब तो ना तो Financial hand book and Rule of Buisness ""दोनों का पालन असंभव हो जाएगा फलस्वरूप कानून का शासन किस प्रकार संभव हो पाएगा कठिन हैं |क्योंकि ''जनता ''का समर्थन हर अधिकारी के लिए पाना कठिन होगा | फर्ज़ कीजिये पोलिक किसी अभियोगी को पकड़ के थाने मे लाती हैं और सौ लोगो की भीड़ उस अभियुक्त को रिहा करने का दबाव बनाते हैं तब अधिकारी क्या करेगा ?कानून का पालन अथवा जनता की मांग का सम्मान ? हरियाणा और मध्य प्रदेश के राजस्थान से सटे इलाक़ो मे जाति और धर्म के आधार पर ''साथ''' देने की पुरानी परंपरा हैं | अभी हाल मे मध्य प्रदेश मे एक थाने मे पारदी जाती के व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उसके जाती वालों ने थाने को घेर लिया | स्थिति इतनी बिगड़ गयी की अफसर को अभियुक्त को छोडना पड़ा | बाद मे बल के आने पर उसके निवास पर छापा मार कर उपद्रवियों को बंदी बनाया गया | अगर आप पार्टी की सरकार ऐसे मे भीड़ का साथ देती हैं तब वह कानून का उल्लंघन करती हैं
और ऐसा न करने पर उसकी ""टेक"" की पब्लिक सब जानती हैं ---की अवहेलना होती हैं |

प्रशासनिक फैसले अधिकतर सरकार की सहमति से अफसरो द्वारा लिए जाते हैं | विधि निर्माण के लिए--जनता के सामने जाना समझ मे आता हैं , परंतु प्रशासन के निर्णयो के लिए बहुमत नहीं वरन स्पष्ट मत की ज़रूरत होती हैं | अनेक उत्साही लोग सोश्ल मीडिया और काफी हाउस आदि मे यह कहते सुने जाते हैं की ""सभी फैसले हमारी सहमति से हो """ तभी तो वास्तविक प्रजातन्त्र आएगा | प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र --अर्थात शासन के हर फैसले पर जनता का बहुमत ''अनिवार्य '' हो | यह स्थिति काफी कल्पनाशील और लोक लुभावन तो हो सकती हैं , परंतु >संभव क़तई नहीं हैं | दुनिया मे दो ही स्थान हैं जनहा यह प्रणाली आज भी जारी हैं | दोनों ही स्थान स्विट्ज़रलैंड मे हैं | अब वनहा की व्यसथा को समझना जरूरी हैं | स्विट्ज़रलैंड कुल 26 कैन्टन अर्थात प्रशासनिक इकाइया हैं | जिनसे मिलकर वनहा का ""संघ"" बना हैं है | यह इकाइया एक तरह से प्रदेश हैं | इनमे INNERHAUM AND GLARUS इनमे पहले का छेत्रफल 137 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 15717 हैं जबकि दूसरे की जनसंख्या 39369 और सौ वर्ग किलो मिटर से कम का छेत्रफल हैं | यह प्रथा इन दोनों स्थानो मे 14 वी शताब्दी से चली आ रही हैं | वनहा के शेष 24 कंटन मे गोपनीय मताधिकार द्वारा निरण्य किए जाते हैं | अब केजरीवाल द्वारा 1.50 करोड़ मतदाताओ
मे जनमत संग्रह कितना वास्तविक होगा कहना मुश्किल हैं |

एक दैनिक समाचार पत्र ने इस मुद्दे पर विशेस सामाग्री प्रकाशित की | जिसमे उल्लिखित बारह मुद्दो पर जनमत संग्रह का सुझाव था | उसमे चीन -पाकिस्तान के साथ के साथ कैसे संबंध हो और सी बी आई स्वतंत्र आगेकी बने या नहीं जैसे मसलो पर आम राय लेने का सुझाव तह | क्या हम यह स्वीकार कर ले विदेश नीति को आम मतदाता ठीक से जानता हैं ? क्या वह उन सीमाओ को भी जानता हैं जिनके भीतर रहकर किसी भी देश को काम करना होता हैं ? क्या सभी मतदाताओ को संविधान की सीमाए मालूम हैं ?क्योंकि सरकार और प्रशासन इनहि सीमाओ मे रहकर ही किया जाता हैं | क्या सभी मतदाताओ को मालूम हैं की """ असंवैधानिक'' कौन कृत्य होगा और उसे कौन परिभासित करनेवाली संस्था हैं ? मेरी समझ से इन सभी बारीकियों को समझने वाले कुछ लाख लोग ही देश मे होंगे | अब ऐसे संवेदनशील मुद्दो पर कोई भी '''भड़काऊ भासण देकर जनभवना को गलत दिशा मे मोड सकता हैं | जो देश को युद्ध अथवा विघटनकारी घटना का भागीदार बना सकता हैं |एक्सपेर्ट रॉय के युग मे हम अगर आम आदमी से विशेष मुद्दे पर मत लेगे तो वह सही नहीं होगा | क्योंकि वह उस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं | किसी भी मिल मे मजदूर से लेकर अनेक श्रेणियों मे कार्य विभाजित रहता हैं | अब सभी को उनकी योग्यता के अनुसार ही काम दिया जाता हैं , एक का काम दूसरा नहीं कर पाएगा | बस यही वह ''सीमा'' हैं जो फर्क करती हैं | उन मुद्दो पर सभी से रॉय ली जा सकती हैं जिसका परिणाम उन्हे प्रभावित करता हो --जैसे लड़के --लड़की मे शारीरिक संबद्ध की क्या उम्र होनी चाहिए | सरकारी और निजी स्कूलो की फीस मे कितना अंतर मान्य होना चाहिए ---- समलैंगिकता को मान्य होना चाहिए या नहीं ? जनमत संग्रह की व्यसथा अभी भी हमारे संविधान मे हैं | परंतु वह विधि निर्माण तक ही सीमित हैं | सरकार या प्रशासन के मसलो पर नहीं | अतः जनमत संग्रह सबको संतुष्ट करने की औषधि नहीं हैं | वास्तविकता तो यह हैं हैं की """परमात्मा भी सभी को संतुष्ट नहीं कर सके """ तो हम क्या कर सकेंगे |









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