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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Sep 30, 2013

आशाराम से ओजस्वी तक की कथा .........

              आशाराम से  ओजस्वी तक  की कथा .........
                              यौन उत्पीड़न के आरोप मे फंसे आशाराम  जब जोधपुर की जेल  मे एकांतवास की सज़ा भुगत रहे तब उनके वारिस और संतान नारायण ''स्वामी'' ने नयी राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया हैं | उधर उनके  आश्रमो  पर सरकार  ने बेदखली की मुहिम चला दिया हैं | इंदौर - देवास और छिंदवाड़ा के आश्रमो के प्र बन्धको  ने जमीनो के दस्तावेज़ दिखाने मे असफल रहे हैं | मजबूरन जिला प्रशासन को तोड़-फोड़ और कब्जे की कारवाई करनी पड़ी | इस कारवाई से एक बात साफ हो गयी की आलीशान आश्रम  सभी सरकारी जमीनो पर गैर कानूनी कब्जा कर के बनाए गए थे | मतलब यह की ''धर्म ''' की दूकान  अधर्म  की जमीन पर बनाई गयी थी |  तब यह साफ हो गया की यह सब एक """पाखंड"" था , कोई धर्म प्रचार नहीं | उनकी असलियत दुनिया के सामने आने के बाद अनेक जगह उनकी फोटो को टोकरी पर सर पर उठा कर उन्हे नदी या नाले मे ''सिरा'' दिया हैं | जैसे शादी के ''मौर '' को जल मे सिधार दिया जाता हैं , बिलकुल वैसे ही | 
                              इन जैसे फर्जी धर्म के ठेकेदारो से ही आज लोगो का विश्वास धर्म पर उठता जा रहा हैं , लेकिन फिर भी बहुत से लोगो की श्रध्दा वास्तविक सिद्धांतों से उठती जा रही हैं , और अंध विश्वासों पर जमती जा रही हैं | जिसको तोड़ने का कोई उपाय हमारे समाज मे नहीं किया जा रहा हैं | इसके खिलाफ ये बाबा लोग कोई भी ऐसा काम नहीं कर रहे हैं जिस से लोगो का अंध विश्वास समाप्त  हो | 
                            पहले ये बाबा लोग पहले  शिष्यो की फौज खड़ी करते हैं --फिर आश्रम  के नाम पर या तो उनकी जमीन लेते हैं अथवा सरकारी जमीन पर कब्जा  जमाते हैं | फिर उस पर निर्माण होता हैं फाइव स्टार आश्रम का ,जिसमे स्विमिंग पूल भी होता हैं , हाल भी होता हैं अनेक कच्छ होते हैं जिनमे  कहने के लिए ध्यान किया जाता हैं परंतु होते हैं शयन के लिए | कही-कही  लड़को -लड़कियो के लिए शिक्षा का प्रबंध भी होता हैं , उनके लिए छात्रावास भी होता हैं | अब उनमे कैसा इंतजाम होता हैं , यह आशाराम के ''किस्से ''' से साफ हो गया हैं |किस प्रकार  वहा के  छात्रो के साथ व्यवहार होता हैं यह सूरत मे और छिंदवाड़ा के आश्रमो मे लड़को की  संदिग्ध  मौतों से साफ हो गया हैं | हालांकि उस समय उन मामलो को राजनीतिक दबाव के चलते दबा दिया गया था | परंतु अब जबकि इन  गाड़मैनो के कर्मो का  ढक्कन  खुल गया हैं तब सब मामले एक - एक करके सामने आ रहे हैं और उन पर कारवाई भी हो रही हैं |

             यह लोग भी रामदेव की तरह राजनीतिक  उम्मीदे  पालते हैं , क्योंकि ''उन नेताओ की '''उपस्थिती  इन्हे वीआईपी का दर्जा दिलाती हैं | जो उनके शिष्यो की तादाद बढाती  हैं ,  उनका रुतबा ब ढाती  हैं |फलस्वरूप उनकी समाज मे हैसियत बनती हैं , बड़े -बड़े लोग पैर छूते हैं | बस यही से पतन की शुरुआत होती हैं | क्योंकि तब वे अपने को समझने लगते हैं  ''स्वयंभू अवतार ''' और भगवान |
                                     ऐसे मे वे सभी सांसरिक सुख पाने के बाद राजसत्ता को प्रभावित करने के मंसूबे बनाने लगते हैं | फिर शुरू होता हैं रामदेव और आशाराम जैसे गुरुओ का खेल , अब इसे धर्म कहे या व्यापार या कोई और नाम दे .......................                                   

Sep 22, 2013

संविधान के संशोधन की पहल समता के मूल अधिकार को खंडित करने वाला प्रयास होगा

 संविधान  के संशोधन  की पहल समता के मूल अधिकार  को खंडित करने वाला प्रयास होगा           
                           सजायाफ्ता और जैल मे निरूढ़  व्यक्तियों  को  चुनाव के लिए अपात्र   घोसित  किए जाने के सूप्रीम कोर्ट के फैसले से आहत राजनीतिक दलो ने  अब संविधान मे संशोधन का मन बनाया हैं |   इस मुहिम मे संसद के सभी राजनीतिक दल  '''एकमत '''' हैं | एक -दूसरे को पानी पी- पी कर  कोसने वाले दल भी सहमत हैं की यह '''ठीक''' नहीं हैं | भले ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी बिल कानून न बन पाये क्योंकि लोकसभा मे लगातार हँगामा होने के कारण  विधायी  काम काज ही नहीं हो पा रहा हैं | परंतु  अपराधियो को चुनाव लड़वाने के लिए भरपूर प्रयास इसलिए हो रहे  चूंकि वे """ जिताऊ""" कैंडिडैट  होते हैं | 

                                         संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार  भारत के सभी नागरिकों को ''विधि '' के  सम्मुख समानता का अधिकार हैं |  परंतु इसको नियन्त्रित करने के लिए संसद कानून बना सकती हैं | सवाल यह हैं  की राजनीति को अपराधी करण से ''मुक्त'' करने की बात सभी दल करते हैं , फिर वो काँग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो  वामपंथी दल हो | छेतरीय दलो मे शिव सेना - समाजवादी - बहुजन समाज -  द्रमुक हो या अन्न द्रमुक - इतेहादुल मुसलमिन - हो या मजलिसे  मुसावरात  सभी मे ''दागी'' यानि सजायाफ्ता  नेताओ की ख़ासी संख्या हैं | सबसे ज्यादा दागी  संसद और विधायक काँग्रेस मे फिर भारतीय जनता पार्टी मे उसके बाद समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी मे  हैं , परंतु प्रतिशत के अनुसार समाजवादी और बहुजन मे इन लोगो की बहुतायत हैं | 

                       प्रस्तावित संशोधन के अनुसार ""अपील  के अंतिम अवसर तक किसी व्यक्ति को चुनावो मे भाग लेने  का अधिकार रहेगा , "" | यदि कोई  सजायाफ्ता  व्यक्ति समय सीमा मे निचली  अदालत के फैसले के खिलाफ अपील दायर नहीं करता हैं , तब वह चुनाव के लिए अपात्र हो जाएगा |आम आदमी अगर सजयाफ़ता हैं तो वह न तो सरकारी नौकरी के लिए योग्य होता हैं ना ही वह पासपोर्ट बनवा सकता हैं | अनेक स्थानो पर आने जाने के अथवा काम पाने के लिए आवेदनो मे भी सज़ा  याफ़्ता होने के कारण काम नहीं मिलता हैं | ऐसा आदमी समाज के लिए उपयोगी नहीं हो पता हैं | भले ही सज़ा के दौरान उसने ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली हो जिस से वह समाज मे अपनी भूमिका निभा सकता हो | 

        अब ऐसी परिस्थित्यों मे एक विधायक या संसद सदस्य का चुनाव लड़ सकते हैं वरन  वे जिम्मेदार पदो पर रह भी सकते हैं सिर्फ मंत्री बनने के |पद  पर नियुक्त नहीं हो सकते क्योंकि  उसमे  शपथ  लेनी होती हैं ''जिसमे कहना होता हैं की बिना राग या द्वेष ......के ''' अपने कर्तव्य का निर्वहन करूंगा | एक अभियुक्त या सजायाफ्ता के लिए यह शर्त निभाना आसान नहीं होगा |    

                        यह प्रस्तावित संशोधन संविधान की मूल भावना को आहत करेगा , परंतु सभी राजनीतिक दल  इस के पक्ष मे हैं क्योंकि उन्हे लगता हैं की ''जनप्रतिनिधि ''' और कॉमन मैन''' मे काफी फर्क हैं | अब इस सोच को क्या कहे जो चुनने वालों को चुने जाने वालों से कमतर मानता हैं | यह स्थिति ही इस मांग को बल प्रदान करती हैं की इन एम एल ए और एम पी को अपने छेत्र की जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाये | परंतु दिक्कत यह हैं की इस मांग को अमली जमा कैसे पहनाया जाये ? सरकार की ओर से कह दिया जाता हैं की हर बार मतदान कराने का खर्च बहुत ज्यादा हैं | अतः यह  जनप्रतिनिधि को जवाबदेह बनाने का बहुत खर्चीला समाधान हैं | बस बात यही पर थप हो जाती हैं | हालांकि  मध्य प्रदेश मे स्थानीय संस्थाओ  मे प्रतिनिधि को वापस बुलाने  का ''प्रविधान'' हैं और उसका प्रयोग भी कई बार हो चुका हैं | जब ताक़ कोई किफ़ायती और सहज उपाय नहीं खोज लिया जाता हैं तब तक तो हालत को भुगताना  ही मतदाता की मजबूरी हैं |

Sep 20, 2013

क्यों भरोसा नहीं होता हैं अपने राज्य की पुलिस पर ?

क्यों  भरोसा नहीं होता हैं अपने राज्य की पुलिस पर ?
                                                                              माहौल चुनाव का गरमा रहा हैं और हम हैं की परेशान हैं की ""आम आदमी "" को अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं होता | बात कुछ ऐसी हैं की हर खास - ओ - आम के जेहन मे पुलिस का नाम लेते ही एक  कडक  चेहरा और हाथ मे बैटन  तनी मुछे और इन सब का खौफ अगल - बगल के लोगो को ज़रा हट के चलने पर विवश करता हैं | परंतु अखबार मे छपी खबर के अनुसार बीते दिनो  छोटे लाट {[ राज्यपाल का नाम जो बरतनिया हुकूमत के दौर मे चलता था ]} के घर के सामने पुलिस के एक आला अफसर  {[सहायक  पुलिस महानिरीक्षक}] जो अपनी सरकारी गाड़ी से पुलिस मुख्यालय जा रहे थे , उसी समय एक बाइक पर सवर तीन ''नौजवानो''' ने सड़क पर ही स्टंट दिखाना शुरू कर दिया |जिस से चलते यातायात मे रुकावट आई और आला अफसर की भी गाड़ी फंस गयी | जब इनहोने देखा की ''छोकरे'' तो अपनी ज़िद पर आमादा हैं , तब उन्होने जा कर उन्हे समझाया की उनकी हरकत गैर कानूनी हैं और उन्हे ऐसा नहीं करना चाहिए | तब उसमे से एक ''बरखुरदार '' जिनके वालिद {पिता} ने हॉकी  मे नाम किया और ओलिम्पिक पदक हासिल किया था , उन्होने आव न देखा ताव और  अफसर के गिरेबान पर हाथ डाल दिया और हुज्जत करने लगे | कहा जाता हैं की औलादों ने तो यानहा ताक़ कह दिया की '''तू होता कौन हैं हुमे रोकने वाला " | इतना सब कुछ होता रहा और सड़क पर आने - जाने वाले  शहरी {नागरिक}  आते - जाते रहे , एक निगाह डालते और आगे बाद जाते मानो कुछ हुआ ही नहीं | किस्सा - कोताह यह की आला अफसर को पुलिस को फोन करना पड़ा तब पुलिस के दो जवान आए और लड़को को अपने साथ बैठा कर  सब  डिविजनल मैजिस्ट्रेट  की अदालत ले गए | पर चूंकि अफसर ने एफ आई आर  नहीं लिखाई थी , इसलिए मोटर साइकल  पर सवार  'तीनों ' लड़के  गुर्राते हुए नवाब भोपाल  की  रिहाइस {निवास} के बगलगीर हो लिए | जी हाँ वे सभी भोपाल की सबसे मंहगी और पोष  कॉलोनी  कोहे ए फिजा के रहने वाले थे |

                                                                          इस किस्से को यहा बयान करने का आशय सिर्फ इतना हैं की इस घटना से एक तथ्य बहुत ही साफ तरीके से सामने आया  हैं की --- दो - दो लाख की मोटर साइकल पर चलने वाले इन नौजवानो को सिर्फ "" फिल्मी "" कारनामे ही  भाते हैं , और अपने हेरो की नक़ल करने की कोशिस करते हैं | अब यह बात अलग हैं की उनकी इस गलत हरकत मे कानून और भले नागरिकों को कितनी दिक़्क़त यथानी पड़ती हैं | वह उनके लिए कोई  मायने नहीं रखता , क्योंकि  वे तो पैसे वालो जागीरदारों और रसूख वालो की औलाद हैं |  इसीलिए तो पुलिस अफसर पर हाथ उठाने के बावजूद  भी आधे घंटे मे राज़ी - खुसी घर पहुँच गए | जबकि यही भोपाल  पुलिस चौराहो पर किसी अकेले जा रहे  छात्र को ड्राइविंग और गाड़ी कागज़ दिखाने के नाम पर उलझा लेते हैं |

                                  सड़क पर हुए इस कारनामे  के कई दूरगामी परिणाम हुए हैं --पहला तो यह की ''पुलिस''' का रुतबा  खतरे मे पद गया हैं | कहावत हैं की  पुलिस  से बुरे लोगो को खौफ होना चाहिए और भले लोगो को संरक्षण मिलना चाहिए | परंतु  यहा कुछ  उल्टा ही हो रहा हैं | भले लोग तो वर्दी और थाने से डरते हैं और बदमाशो से पुलिस डरती हैं | दूसरा सदको पर चलना कितना  सुरक्शित हैं यह भी पता लगता हैं की , जब एक पुलिस का आला अफसर  अगर बेइज़्ज़त होता हैं इसलिए की वह कुछ सही और कानूनी काम को आंजम देना चाहता था | फिर मध्य प्रदेश सरकार की """ सिटीजेन्स पुलिस """ योजना को भोपाल लागू करने का क्या मतलब हैं ? शायद यही वजह हैं की  दुर्घटनाओ मे  घायलों की  चीख सुनने के बाद भी लोग नज़र बचा कर चले जाते हैं | फिर जब ''निर्भया""जैसी वारदात  होती हैं तब '''समाज और नागरिक ''की ज़िम्मेदारी की बात की जाती हैं |  पर क्या इस घटना को देखने वालों ने और पदने वालों  के तो दिल - दिमाग मे तो यह बस ही गया होगा की ''भैया'' आपण बच के चलो |

                                                        जिस घटना का हवाला ऊपर की  पंक्तियों  मे किया गया हैं  उसका सचित्र हवाला भी भोपाल के सभी अखबारो  ने  सचित्र  छापा  हैं |   सहायक पुलिस महानिरीक्षक  संदीप  दीक्षित  ,जिनके साथ यह घटना हुई , उन्होने '' दया  वश ""  रिपोर्ट लिखना उचित नहीं  समझा , की लड़को का कैरियर[[ {जो की है ही नहीं }}बर्बाद न हो जाये | परंतु भले नागरिक --सहृदय पुरुष --की भूमिका तो निभाई परंतु उन्होने  ''जनता के रक्षक अर्थात पुलिस  के जिम्मेदार अफसर के रोल को निभाने ज़रूर चूक हुई हैं | दूसरी ओर एक महिला पुलिस अधिकारी के पति जो की  उद्योग  विभाग मे समुक्त संचालक  है , जिन पर एक  छात्रा  के साथ दफ्तर मे अश्लील हरकत करने का आरोप हैं , उन्हे मध्य प्रदेश पुलिस 11 ग्यारह डीनो से नहीं पकड़ पा रही हैं | जबकि ऐसे ही आरोप मे तथाकथित   [अ]]संत  आशा राम  जोधपुर की जेल मे आराम फार्म रहे हैं | अब किसे चुस्त - दुरुस्त पुलिस माने राजस्थान की पुलिस को या मध्य प्रदेश की पुलिस को ?

                                 इन बातों का उल्लेख इसलिए समीचीन हैं क्योंकि अगले ही महीने प्रदेश मे राज्य की विधान  सभा के चुनाव होने हैं | ऐसी स्थिति मे इन घटनाओ से लोगो का मॉरल  डाउन होता हैं | उधर हरदा मे सांप्रदायिक  सघर्ष  होने और कर्फ़्यू लगाए जाने के बाद  वातावरण कुछ   गड बड हो गया हैं | उम्मीद तो यह की जा रही थी की चुनाव की पदचाप  सुनकर सरकार और प्रशासन  बेहतर  हालत की ओर अग्रसर होंगे , परंतु यहा  तो मामला उल्टा ही पड़ रहा हैं | कल तक जो उत्तर प्रदेश मे मुजजफ्फरनगर  की घटनाओ के लिए वनहा की सरकार से इस्तीफा मांग रहे थे , आज वे खुद उसी हालत मे हैं | इसे कहते हैं """ खुदरा फजीहत -दीगरा नसीहत """


                                          

Sep 19, 2013

दूकान लगी नहीं की लूटेरो ने मंसूबे बनाने शुरू कर दिये

दूकान लगी नहीं की लूटेरो ने मंसूबे बनाने शुरू कर दिये 

                                                                                   चुनाव का मौसम आया नहीं ,हाँ हफ्ते दस दिन की बात हैं , जब प्रदेश सरकार का सारा काम काज एक तरह से माने तो stand still हो जाएगा | सभी अधिकारी फैसले करने से बचने लगेंगे | उनका जवाब होगा की आचार संहिता  ''लग गयी हैं """ | मानी आचार संहिता न हुई कोई भूत हो गया ,जिसके  डर के मारे  सब काँप रहे हैं | बाबू लोगो की इस मौके पर मौज हो जाती हैं , उन्हे ''वे सब काम करने की आज़ादी मिल जाती हैं ''' जिसे वे "'किनही""कारणो से करना चाहते हैं | वह कारण या तो सगे संबंधी का काम होता हैं अथवा  ''फिर बड़ा माल''लेकर  काम करना होता हैं "" | मतलब यह की सरकारी मोहकमो मे दिन प्रतिदिन के भी काम करने के किए कहे जाने पर  दफ्तरो मे जवाब होगा की  साहब आचार संहिता लग गयी हैं अब तो सब काम चुनाव के बाद ही होंगे | नयी सरकार आएगी तब नए फैसले लिए जाएँगे |वे आपको यह  समझाने  का प्रयास होगा की अब आप वनहा से चलते बनिए , आपका काम ""चुनाव नामक जीव ने रोक दिया हैं ""

                    अगर बाबू लोगो के यह हाल होगा तो  बड़े अधिकारियों का  रुख होगा की साहब क्या करें , हमारे तो हाथ ही बांध दिये हैं इस चुनाव ने , मानो पहले वे खुले हाथो से सब काम निपटाया करते थे | मंत्री के यानहा सिर्फ संतरी ही मिलेंगे क्योंकि साहब तो चुनाव ''लड़ने'' गए हैं का जवाब मिलेगा | भूले - भटके एक आध मंत्री मिला तो , तो पक्का  जानिए की उसे पार्टी ने टिकिट नहीं दिया हैं और ज़िले तथा निर्वाचन छेत्र मे ''न जाने ''' का पार्टी का हुकुम हो गया हैं | वो तो बस आपसे चुनाव की हवा किस ओर बह रही हैं यह जानने की कोशिस करेंगे | एवं अपना ज्ञान बताएँगे की ऐसा क्यों हो रहा -अगर मेरे बताए तरीके से काम करते तो ऐसा नहीं होता , आदि आदि |

               अब बात करे मीडिया की तो एलेक्ट्रोनिक  मीडिया ने तो चुनाव की पूर्वा संध्या मे अपने पैर फैला दिये हैं | अभी हाल मे दो चैनलो  ने तो इसका शुभारंभ भी कर दिया | उन्होने बकायदा एक सर्वे कर के मध्य प्रदेश - राजस्थान और -छतीसगरह  मे भारतीय जनता पार्टी के जीतने भविस्य वाणी भी कर दी हैं |इन दोनों ही चैनलो ने कर्नाटक विधान सभा चुनवो मे भी सर्वे किया था , परंतु वह मतदान के बाद किया गया था | जिसे मत गन्ना के पूर्वा दुनिया के सामने लाया गया था | वैसे निर्वाचन आयोग ने किसी भी प्रकार के सर्वे प्रकाशित  करने पर ''प्रतिबंध '' लगा रखा हैं | परंतु वह बंदिश चुनाव की तारीखों की घोसना के उपरांत लागू होती हैं | फिलवक्त तो चुनाव कार्यक्रम की घोसणा  नहीं हुई हैं |

                                 कर्नाटक चुनाव के परिणामो  की घोसणा के पूर्वा ""कुछ"" संशय तो लोगो के मन मे था की सरकार काँग्रेस की बन पाएगी या भारतीय जनता पार्टी निरदलियों को लेकर  सरकार का गठन करेगी | इनहि चैनलो ने न केवल भारतीय जनता पार्टी को शताधिक  सीट  जीतने की भविस्य वाणी की थी | वनही काँग्रेस को साथ सत्तर सीट पर समेट दिया था |  परंतु जब परिणाम  आए तब तक़ भविस्यवानी  पूरी तरह से चूर - चूर हो चुकी थी | दूसरे दिन जब इन चैनलो पर '''चुनावी मीमांसा''' की जा रही थी तब भी उनमे  कोई छोभ  नहीं था | न ही उन्होने एक बार यह स्पष्ट किया की वे अपनी ''गलती''  पर पशेमान है | इस तर्क के पीछे एक वजह थी की उस सर्वे को एक कंपनी ने किया था -जो ऐसे ही सर्वे किया करती हैं |  हालांकि कितनी उसकी भविस्य वाणि सच हुई यह तो एक शोध  का  विषय हैं | शोध का विषय तो यह भी हैं की बार गलत साबित होने पर भी चैनल  क्यों इन्हे सर्वे का काम देते हैं | यह खेल हैं  टार गेट रेटिंग पॉइंट्स का |

                              लेकिन क्या इसका दूसरा अर्थ नहीं हो सकता ? की यह जानबूझ कर  की गयी कारवाई हो जो किसी गुट द्वारा अपने लाभ के लिए किया गया हो ? क्योंकि इन सर्वे मे न तो यह बताया गया हैं की की किन छेत्रों मे और किस वर्ग के लोगो के कितने व्यक्तियों से बात करके इसे तैयार किया गया हैं ? यद्यपि ऐसे सर्वे मे इस बार कुछ  अकलमनदी करते हुए सत्तारूद दल की होनी  हैं  उतनी ही संख्या  विपक्ष को प्रदान की गयी हैं |  परंतु  सरकार बनेगी भारतीय जनता पार्टी की | यद्यपि ऐसा हो भी सकता हैं और नहीं भी हो सकता हैं  सावल यह भी हैं की क्या इससे  वास्तव मे चुनाव के परिणामो पर या प्रचार पर कोई असर पड़ेगा ? अनुभव यह कहता हैं की  ऐसे  तथ्य  जमीनी हक़ीक़त से दूर ही होते हैं |

                                                         क्योंकि चुनाव मे मतदान के दिन तक़ क्या - क्या घटनाए होती हैं , उनका क्या प्रभाव होगा अथवा किसी स्थानीय  मामला किस पार्टी को अथवा किस उम्मीदवार के हक़ मे जाएँगे यह कहना वह भी लगभग तीस दिन पूर्व  , जब अभी सिर्फ नेताओ  ने  ही दौरे का सिलसिला  शुरू हुआ हैं |अभी पार्टियो ने अपने पत्ते भी नहीं खोले हैं---_मतलब की  किसी भी पार्टी ने अपने उम्मीदवार  घोसीत नहीं किया हैं | हाँ   उन पार्टियो ने जरूर  अपने प्रत्याशी  घोसीत  किए जिनका  वजूद सरकार बनाने की भूमिका मे नहीं हैं | जैसे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी | शायद दो एक दिन मे गोंडवाना पार्टी भी मैदान मे उतरने का ऐलान कर दे | परंतु भले ही इनको  सत्ता मे हिस्सेदारी नहीं मिले , परंतु कई जगह इनकी मौजूदगी दोनों बड़े दल  के लिए  ""वोट काटू"" हो सकते हैं | जिस से परिणाम मे भारी उलट फेर हो सकती हैं | क्या इन तथ्यो को सर्वे मे ध्यान  रखा गया हैं |

                   अब पुनः मूल मुद्दे पर आते हैं की अमरीकी  तरीके से  किए गए  सर्वे  भारत  जैसे   देश मे  कितना सत्य हो सकता हैं ? यह महत्वपूर्ण मुद्दा हैं | फिर आखिर इनका इस्तेमाल  करने का उद्देस्य क्या हो सकता हैं ? केवल राजनीतिक दलो को अपने प्रचार  की लिस्ट मे एक वादा भर दे देने का ,अथवा मीडिया को लिखने और दिखाने  का मसाला  देने के लिए जिस से टीआरपी  मे सुधार किया जा सके ?

 

Sep 18, 2013

Indian Jurisprudence in Question ?

Indian jurisprudence in Question ?
                                                           Andhra   Pradesh  High Court  in a judgment has declared that  there is no legal provision  to award any compensation to ""innocent  people detained by Police "". This decision came in the case of a blast case in which more than twelve Muslim youths were arrested , latter due to the  absence of evidence all those who were implicated in the case were Discharged . Andhra Pradesh Government  announced financial compensation  to all the ''accused'' persons.

                      Latter a petition was filed challenging the Andhra Pradesh Government  decision to award the financial assistance to those who were ""wrongly detained by Police """. The High court observed that their is no Legal Provision to provide financial assistance to those persons who have been arrested by police without sufficient evidence . This judgment has Negated the Very fundamental  edifice of Indian Jurisprudence , which says ""That  let the ten criminal be freed but Even One innocent should not be punished """ . Now this doctrine  has been  totally  proved WRONG !

                   Hope Andhra Pradesh Government will go to Supreme Court and to file  review of the High Court Judgment . Because if the innocent persons will have no  way to get the justice . The question is this judgment will ''encourage the police officials " not to respect the Fundamental Rights of Individuals . After all some remedy has to be provided  to those who are arrested '''on mere suspicion""  , . Even our Criminal Procedure Code  gives the right to any Station Officer to detain  any person   for 24 hours without LAWFUL order . Meaning that Any body can be put behind the HAWALAT , resulting in the damaging the reputation and honor of the detained person . Many of us must have known and witnessed such detention .  

Sep 17, 2013

क्या निर्वाचन आयोग इस प्रचारों पर ध्यान देगा ?

    क्या निर्वाचन आयोग  इस प्रचारों पर ध्यान देगा  ?
                                                                                   निर्वाचन आयोग ने पैड न्यूज़ पर  नज़र रखने के लिए  तो अनेक शिंकंजे कसने शुरू कर दिया हैं , परंतु धर्म की राजनीति की दूकानों पर निगाह के लिए अभी ताक़ कुछ नहीं किया हैं | ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आजकल  चुनावी राजनीति मे जिस प्रकार धर्म का इस्तेमाल किया जा रहा हैं , वह क्या उतना ही ''गैर कानूनी "" नहीं हैं जितना की पैड न्यूज़ ?  योग शिक्षक जो अपने को ''बाबा''' कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं , उनका कहना हैं की  मोदी मे राम जैसी प्रतिभा और बल हैं | इतना ही नहीं , विश्व हिन्दू परिषद  के  आद्यकष  अशोक सिंघल ने तो मोदी को पहले ही राम की शक्ति का प्रतीक कह दिया हैं | मध्य प्रदेश के एक मंत्री कुसमरिया ने तो उन्हे भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार बता दिया हैं | दो दिन पूर्व ही इलाहाबाद  मे कपूर नाम के कलाकार ने """ रेत""" के ऊपर ब्रम्हा -विष्णु- महेश  की त्रिमूर्ति मे मोदी का चेहरा  बनाया हैं |  यह तो हुई कुछ धर्म की राजनीतिक दूकाने जो चुनाव के समय ही सक्रिय हो जाते हैं | अब इनको निर्वाचन आयोग की नज़र मे क्या कहा जाये ? क्या यह जो किया जा रहा हैं उसे """सही""" कहा जा सकता हैं ?  क्या धर्म की भावनाए उभार  कर लोगो की  रॉय  को प्रभावित करना कहा  तक  उचित हैं ?अगर पैसा देकर  अपने  पछ मे खबर छपवाना  तो इन '''हरकतों''' से कनही ज्यादा  अनुचित और ''अवैधानिक'' हैं |

                                 अभी मध्य प्रदेश मे  योग शिक्षक रामदेव  ने मालवा मे अपने '''योग शिक्षा शिविरो ""'मे अध्यात्म अथवा पतंजलि के योग सूत्र की जगह  वे  लोगो को  यह समझा रहे हैं की ""काँग्रेस  तो अंग्रेज़ो की जासूस थे """ अब उनसे कोई यह पूछे की स्वतन्त्रता  संग्राम की किस किताब मे यह सब लिखा गया हैं ? क्योंकि  अभी तक तो अंग्रेज़ो के काल  के दस्तावेज़ो के अनुसार तो सावरकर ने ही  ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी |  यह तो दस्तावेजी सबूत हैं |  दूसरा आरोप उन्होने यह कहा की काँग्रेस '''चरित्रहीन और अपराधियो''' की पार्टी हैं | यह आरोप कोई राजनीतिक दल के नेता  द्वारा लगाया जाता तो , समझ  मे आता हैं , परंतु कोई   भगवा वस्त्र धारी  - तथाकथित सन्यासी  यह '''आरोप'' लगाए जो पूर्णतया ''राजनीतिक'' बयान हो  कितना उचित  हैं ?

                हमे और निर्वाचन आयोग को यह तय करना होगा की क्या इस प्रकार के प्रचार को ''जायज'' कहा ज़ सकता हैं ? चुनाव संहिता मे भी धर्म  से संबन्धित  प्रचार को ''अयोग्यता'' निर्धारित किया गया हैं | यहा तक की  चुनाव के प्रचार बंद हो जाने के बाद   आयोग ने  अखंड रामायण  आदि के नाम पर पार्टी द्वारा  किए जाने वाले कार्यक्रमों पर पूर्णतया रोक लगाने का फरमान जारी किया हैं | जब इस प्रकार के आयोजनो को  ''अवैधानिक'' माना जा रहा है |तब फिर संहिता लगने  के बाद भी क्या इस प्रकार  के """धर्म की पैकिंग  मे किया जा रहा राजनीतिक प्रचार """ जारी रहेगा ? तब  कितना नियमो के अधीन ""स्वतंत्र और निसपक्ष " चुनाव संभव हो पाएंगे ?

चुनावी शाम मे मुसलमा होते नेता और उनका हश्र

 चुनावी  शाम  मे  मुसलमा  होते नेता और उनका  हश्र
                                                                                  वैसे तो हर एक चुनाव मे ही ''नेता '' दल बदलू होते हैं , यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं | परंतु समझ मे यह नहीं आता की सैकड़ो मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करने वाला ''पार्षद'' हो चाहे विधान सभा का चुनाव ही अथवा लोकसभा के  चुनाव हो , यह ''परंपरा'' दुहराई  ही जाती हैं | महत्वाकांचा  राजनीति मे आने वालों की पहली शर्त होती हैं , यह सभी जानते हैं ,परंतु अधिकतर ''नेता'' जो  ""अति महत्वाकांछी "" होते हैं उन्हे सदैव  अपनी पार्टी और उसके कर्र्न्धारों से यह शिकायत रहती हैं की  ''उनकी ''महत्ता को वे लोग पहचान नहीं रह रहे हैं | भले ही ऐसे नेता अक्सर ''बिना दल'' या निर्दलीय हो कर भी अपना भाग्य आज़मा चुके होते हैं , और सौ मे से अस्सी पराजय क्का स्वाद भी चख चुके होते हैं परंतु फिर भी जनहा काही बैठे की नहीं और शुरू हो गए ""परनिंदा""पुराण लेकर और लगे उसका वाचन करने | उनसे जब भी तर्क या तथ्य की बात करो तो वे एक ही बात कहते हैं की ''फला ""फला" ने हरवा दिया अथवा विरोधी पार्टी की ""बयार"" चल रही थी इसलिए जमानत ज़ब्त हो गयी नहीं तो धूल चटा देता "" |

                                            कुछ ऐसा तो नहीं परंतु इसके विपरीत भी इस बार विधान सभा चुनावो के समय लोग काँग्रेस छोड़ कर अथवा निर्दलीय ---सत्तारूद दल मे शामिल हो रहे हैं | ऐसा क्यो हो रहा हैं -इसका जवाब तो वे लोग ही दे पाएंगे , हम तो सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं | भारतीय जनता पार्टी मे जो लोग शामिल हो रहे हैं ज़रूरी सी बात हैं की वे चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के ''प्रत्याशी'' बनना चाहते हैं | परंतु क्या जिस स्थान से वे टिकट चाह रहे हैं उस स्थान की पार्टी इकाई उनके नाम का समर्थन कर रही हैं ? नब्बे फीसदी मामलो मे तो पार्टी इकाइयां  ऐसे दलबदलून के विरोध मे ही रहती हैं | ऐसे मे अगर पार्टी ने उन्हे प्रत्याशी बना भी दिया तो ''विजय श्री ''' की उम्मीद कम ही रहती हैं |  फिर क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव की वेला मे बाहरी व्यक्तियों या लोगो को अपने यहना शरीक करती हैं ?

                                                      शायद ऐसे लोगो को शामिल करने के लिए कुछ ''बड़े नेताओ''' का अहंकार ही कारण होता हैं , जिसके फलस्वरूप ऐसे लोग दल मे आकार """खलबली '' मचा देते हैं | इस श्रेणी मे रींवा राजघराने का नाम लेना समीचीन होगा , क्योंकि जंहा महाराजा  पुष्प राज सिंह  काँग्रेस मे शामिल हुए वनही उनके युवराज  आदित्य राज भारतीय जनता पार्टी मे शामिल हुए | यह घटनाए एक सप्ताह के अंदर हुई | हालांकि पुष्प राज सिंह  काँग्रेस से विधायक एवं मंत्री रह चुके हैं बाद मे वे पार्टी छोड़ कर चले गए थे |   अब कौन सा मोह उन्हे वापस ले आया -कहना मुश्किल होगा | काँग्रेस विधायक दल के उप नेता राकेश सिंह चतुर्वेदी ने भी पार्टी द्वारा लाये गए अविसवास प्रस्ताव पर अपने दल के नेत्रत्व  का विरोध किया | परिणामस्वरूप  उन्हे पार्टी से निलंबित भी किया गया | शायद तकनीकी कारणो से उन्हे पार्टी से '''बर्ख्ख़स्त ""नहीं किया गया | लेकिन जिस स्वागत - सत्कार से उन्हे पार्टी  मुख्यालय मे  लाया गया ,उस से यह तो साफ हो गया की उन्हे भिंड की उनकी ही सीट से बीजेपी प्रत्याशी बनाने का मन बना चुकी हैं | छतरपुर के निर्दलीय विधायक मानवेंद्र सिंह ने भी सत्तारूद दल का दामन थाम लिया हैं , अब पार्टी उन्हे वनहा से   टिकेट दे पाएगी यह कहना मुश्किल हैं | वैसे वे काँग्रेस की सरकार मे मंत्री रह चुके हैं | रीवा  के सीधी ज़िले से निर्दलीय विधायक  के के सिंह  ज़रूर अपने छेत्र मे लोकप्रिय हैं ,इसलिए बीजेपी ने उनका इस्तेमाल नेता प्रति पक्ष अजय सिंह को चुनौती देने के लिए करने की मंशा है | ऐसा इसलिए भी संभव हो पाएगा की भले ही कम परंतु वे भी स्वर्गीय अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत  के भागी दर हैं | जैसे मेनका गांधी और वरुण गांधी  श्रीमती इन्दिरा गांधी की विरासत का दावा करते हैं | महत्वाकांचाओ और  विरासतों  की साझेदारी का क्या परिणाम होगा यह तो चुनाव मे ही सामने आएगा ?

Sep 16, 2013

cमहाकुंभ मे महारथियो की पीठ मिलेगी या मुंह ?

cमहाकुंभ मे महारथियो की पीठ मिलेगी या मुंह ?
आगामी 25 सितंबर को भारतीय जनता पार्टी के कार्य कर्ताओ के प्रदेशव्यापी सम्मेलन की जंगी तैयारियो के साथ एक प्रश्न हवा मे तैर रहा हैं ,की क्या मंच पर लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी तथा शिवराज सिंह के मध्य व्याप्त खटास ‘’कुछ’’दूर होगी ?  हालांकि सत्तारूढ पार्टी के नेताओ का मानना है की तीनों के मुह त्रिमूर्ति की भांति अलग – अलग दिशाओ मे ही रहेंगे | इसके कई कारण हैं , पहला जिस ढग से 13 सितंबर को पार्टी द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसित किया गया , उस से खिन्न आडवाणी जी तो नरेंद्र मोदी से बात भी नहीं करना चाहेंगे |  बीजेपी संसद जेठमलानी की जन्मदिन की पार्टी मे भी आडवाणी और मोदी पहुंचे थे ,परंतु कोई बात नहीं हुई | दूसरे यानहा ‘’मेजबान’’ भी उन्हे ‘’बिन बुलाये’’’ मेहमान की तरह ही मानते हैं | क्योंकि पार्टी नेत्रत्व को बार – बार स्पष्ट किए जाने के बाद ,की मोदी मध्य प्रदेश मे”” वोट बढाने “” वाले  नहीं वरन “”कटाने””वाले सिद्ध होंगे , उनपर गुजरात के मुख्य मंत्री को थोपा जा रहा हैं | तुलनात्मक दृष्टि से शिवराज चुनाव की अपनी लड़ाई ‘’खुद’’ लड़ने मे सक्षम हैं ,परंतु राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के दबाव से शिवराज को इस बिन बुलाये मेहमान को माला पहनने के लिए मजबूर किया ज़ा रहा हैं | यह कोई ‘’प्रिय’’’एवं सुखद स्थिति न तो पार्टी के लिए हैं ना ही उस व्यक्ति के लिए जो चुनावी युद्ध का सेनापति हैं | वैसे ही कुछ शिवराज विरोधियो ने एक नारा तैरा दिया हैं की  ''अगर विधान बभ चुनाव जीते तो मोदी के फैसले पर मोहर लगेगी ,और अगर पराजित हुए तो शिवराज सरकार की हार होगी | 

                     इस स्थिति से काँग्रेस मे होने वाला वाकया याद आता हैं की चुनाव मे जीत हुई तो हाइ कमान  की और हार ही तो मुख्य मंत्री की | इस लिहाज से अब भारतीय जनता पार्टी भी वैसी ही केन्द्रीकरण की पार्टी बन गयी हैं जैसा की वे काँग्रेस के बारे मे आरोप लगते हैं | कुछ अजीब सा लगता हैं ,परन्न्तु सत्य हैं ,की दोनों ही दलो का शीर्ष नेत्रत्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता | अगर काँग्रेस मे गांधी परिवार सर्वोच  शिखर पर हैं तो भारतीय जनता पार्टी मे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के मोहन भगवत , ये लोग जो कह दे वह बिना न - नुकुर के मानना ही होता हैं | एक का काम 10 जनपथ से अगर चलने का दावा किया जाता हैं तब दूसरे की कमान  नागपूर का संघ कार्यालय हैं | अब कोई पूछे की दोनों ही ''व्यक्तियों ''की मनमर्जी पर चलने वाले हैं तो '''अंतर''' कहा हैं ? कुछ तो नारो मे हैं और कुछ सोच मे हैं | वैसे काँग्रेस ने स्वतन्त्रता  के संग्राम की अगुवाई की और भारत को आज़ाद कराया | इस लड़ाई मे जिन वल्लभ भाई पटेल को नरेंद्र मोदी अपना ''आदर्श ''' मानते हैं उन्हे भी सरदार की उपाधि गुजरात  मे ही जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने प्रदान की थी , उसे नरेंद्र मोदी भूल गए जिसे सारी दुनिया ''महात्मा "" के नाम से जानती हैं |  पर मोदी को पटेल पसंद आए गांधी नहीं ,क्योंकि उनको लगता हैं की गांधी को तो कांग्रेस अपना चुकी हैं , और दुनिया भी उन्हे मानती हैं ,ऐसे मे किसी दूसरे को अपना आदर्श बनाया जाये | वैसे यानहा एक बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की मोदी भी उसी वर्ग से आते हैं जिससे पटेल थे | यानि पिछड़े वर्ग से | अब वैसे हमारे शिवराज सिंह भी इसी वर्ग के हैं | अब चुनावी हिसाब से देखे तो इस वर्ग का वोट बैंक सबसे बड़ा हैं |                 अब एक बिन बुलाये मेहमान और एक पार्टी से उपेक्षित नेता तथा तीसरा चुनावी तैयारी मे जूझ रहे हैं , ऐसे मे क्या कार्यकर्ताओ को सही """संदेश""" मिल सकेगा ? कल तक़ जिन आडवाणी जी को सम्पूर्ण पार्टी ""पित्र"" पुरुष मान के सम्मान करती थी क्या वही सम्मान मोदी के सामने प्रदेश के पदाधिकारी दे पाएंगे ?यह भी एक प्रश्न हैं की मोदी भोपाल मे आडवाणी को मिलने वाले सम्मान को क्या ''पचा '' पाएंगे ? क्योंकि नरेंद्र मोदी ऐसे व्यक्ति हैं जो ""तनिक भी असहमति'"" बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं |गुजरात की भारतीय जनता पार्टी और वनहा के संघ के नेता इस बात का ठीक और सही जवाब दे पाएंगे |
                            वैसे नरेंद्र मोदी मे चुनाव की जीतने की संभावना का आंकलन शिवराज सिंह ने जबलपुर की चुनावी सभा मे ही स्पष्ट कर दिया था | जब नरेंद्र मोदी ने विधान सभा आद्यकश  ईस्वर दास रोहानी को  फोन कर के हाल - चाल पूछा | सवाल हैं की उन्हे रोहणी को फोन क्यो किया ? मुख्य मंत्री को क्यो नहीं किया ? क्या इस लिए की उनसे मिलने वाले व्यवहार के बारे मे अंदाज़ था ?  फिर क्यों यह फोन किया ? 
                       
              इस अबोलेपन से यह तो साफ हो गया की मोदी जी मध्य प्रदेश के चुनावो के लिए  सहायक नहीं होंगे फिर आखिर बार - बार यहा  आने की ''ज़िद्द'' क्यो ? क्या इसलिए की यहा  से संगठन मंत्री के रूप मे भारतीय जनता पार्टी की सरकार का पत्ता साफ करने की ज़िम्मेदारी भी उनही के सिर -माथे पर आई थी , और वे बड़े - बे आबरू हो कर यहा  से गए थे | अब वे यहा से """सुर्ख़ृ """ हो कर जाना चाहते हैं की जिस से की उनके ऊपर पटवा जी की सरकार को गिरवाने का कलंक समाप्त हो सके | 
          
             खैर वास्तव मे मोदी के मन मे क्या हैं यह तो वे ही जाने परंतु इतना तो स्पष्ट हैं की ""शुभ -लाभ''' की कामना करना संदेहास्पद होगा | अनचाहे  साथी और सहयोगी कभी भी ''मोर्चे'' पर मददगार नहीं होते हैं | विश्वाश और साहस माफिक वातावरण से मिलती हैं , शिवराज सिंह जी को क्या वह वातावरण मिलेगा ? उम्मीद करनी चाहिए |


     
  
              

Sep 15, 2013

ध्रुवीकरण कितना माफिक होगा शिवराज को ?

ध्रुवीकरण कितना माफिक होगा  शिवराज को ? 
                                                                     नरेंद्र मोदी का राजनीतिक छितिज पर ऐसे समय मे आना जब जब  प्रदेश की सरकार के लिए चुनाव होने जा रहे हैं , भारतीय जनता पार्टी के लिए कितना माकूल होगा यह देखना होगा | क्योंकि संघ की वोटो को '''इकठा""'करने की रणनीति से शिवराज को कितना लाभ या हानि होगी इसका लेखा - जोखा करना होगा |  अभी जल्दी ही भोपाल मे भी मोदी की ''जुंगी'''सभा का ऐलान किया गया हैं , उसका अलपसंखयकों  पर क्या प्रभाव होगा ? अथवा  समाज के सभी वर्गो को लेकर चलने की मुख्य मंत्री शिवराज सिंह की नीति गलत साबित होगी या सही ?

                                                 आगामी विधान सभा चुनावो  मे प्रदेश मे बीस से तीस विधान सभा छेत्रेय ही ऐसे  हैं जंहा मुस्लिम मतदाताओ का समर्थन  ''निर्णायक ''' साबित हो सकता हैं | इत्फाक से  सदन मे बहुमत और  नंबर दो पर आने वाली पार्टी मे भी अनुमानतः  इतनी ही सीटो  का अंतर होने की संभावना बताई जा रही हैं | विगत विधान सभा चुनाओ मे यह फर्क  कही ज्यादा था |  हालांकि अभी चुनवो की विधिवत घोसना नहीं हुई हैं परंतु  रण का शंखनाद  तो हो ही चुका हैं | काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के नेताओ के बीच आरोपो का दौर - ए -दौरा शुरू हो गया हैं | ज्योतिरादित्य  सिंधिया के आने से काँग्रेस को एक खूबसूरत चहरा  मिल गया हैं जो खबरिया  चैनलो  के काफी माफिक हैं , इसलिहाज से सत्तारूद दल को कुछ  कण अहमियल मिलेगी |

                    अक नयी बात सामने आ रही हैं की मुख्य मंत्री पार्टी को पीछे रखकर अपने को आगे कर के चुनाव प्रचार कर रहे हैं | इसलिए अगर चुनाव मे विजय हुई तो उनकी होगी और पराजय भी उनही के खाते मे जाएगी | तुरंत ही मुख्यमंत्री के समर्थको की ओर से इसका  प्रति उत्तर भी आ गया की  अगर चुनाव जीते तो शिवराज और हारे तो उत्तर  प्रदेश के दंगे और मोदी जिम्मेदार | अब इसका अर्थ तो यही हुआ की सत्तारूद दल मे भी  मोदी के ''चुनावी प्रभाव''' को लेकर असमंजस हैं |  यानि की पार्टी मे भी  ''उदारवादियों  और अनुदारवाड़ियों  "" की अलग - अलग रॉय हैं |

                                      एक सवाल यह भी हैं की इस प्रदेश मे 1957 से आज तक  जीतने भी चुनाव हुए  वे ''दो ही पार्टियो''' के मध्य होते रहे हैं | 1967 और 1977 और 2002 के चुनावो मे गैर काँग्रेस और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार बनी है | इसलिए   कुछ लोगो का यह ''अंदाज़''' बिलकुल गलत हैं की प्र्तदेश मे  किसी तीसरी पार्टी के सहयोग से सरकार बनेगी | क्योंकि बहुजन समाज और समाजवादी पार्टी  का प्रभाव कुछ ही छेत्रों मे हैं , और कोई ''चमत्कार हो जाये तभी """ केंद्र की भांति '''मिलीजुली''' सरकार की कल्पना की जा सकती हैं | अन्यथा नहीं |

                         इस माह के अंत तक विधान सभा चुनावो की तिथियो की घोसणा होने की संभावना हैं | उसी के साथ ही ''चुनावी आचार संहिता '''' लग जाएगी | उस परिप्रेक्ष्य  मे मोदी का जय हिन्द के स्थान पर वन्देमातरम और गुजरात के महात्मा गांधी के स्थान पर उनके अनुयाई वल्लभभई पटेल का स्मारक बनाने वह भी नुयोर्क की स्वतन्त्रता की देवी की मूर्ति से दो गुणी बड़ी , काफी महतवाकांछी योजना हैं | इस मूर्ति के निर्माण के लिए देश के सभी ग्रामो से उन्होने ''किसान के हल का का लोहा "" मांगा हैं | उनकी यह मांग अयोध्या मे राम मंदिर के निर्माण के समय  विसवा हिन्दू परिषद द्वारा हर घर से |"| एक - एक ईंट ""' की मांग की गयी थी | लोगो का कहना हैं की राम को तो बारह वर्ष का वनवास हुआ था लेकिन अयोध्या  मंदिर को बीस वर्ष से ज्यादा का वनवास हो गया  परंतु ज़मीन से ऊपर मंदिर के बनने की कोई उम्मीद नहीं हैं | कनही वैसा ही वल्लभ भाई पटेल की इस योजना के साथ न हो ?                                                         

Sep 14, 2013

प्रधानमंत्री घोषित करने की परंपरा -कितनी सच्ची ?

प्रधानमंत्री  घोषित करने  की परंपरा -कितनी सच्ची ?
                                                                               भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय मे शुक्रवार को  हुई प्रैस कान्फ्रेंस मे आद्यकश राजनाथ  सिंह ने कहा की ""पार्टी के संसदीय दल ने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के रूप मे चयन किया हैं """ | उन्होने कहा की पार्टी की """परंपरा"""रही हैं की चुनाव के पूर्वा प्रधान मंत्री पद के लिए व्यक्ति को चुना जाता हैं | जनहा ताक़ मुझे स्मरण हैं की अटल जी जब तेरह दिन की सरकार के प्रधान मंत्री बने तब उन्हे , राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने तब  बुलाया जब काँग्रेस दल के नेता राजीव गांधी ने सरकार बनाने के प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया था | उस समय अटल जी भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल के नेता थे , और इसी हैसियत के कारण उन्हे सरकार बनाने का निमंत्रण भी दिया था | वे तब भी पार्टी द्वारा प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार घोषित  नहीं किए गए थे |

                                                दूसरी बार जब वे प्रधान मंत्री बने तब वे राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार थे , ऐसा नहीं की वे भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार थे | गठबंधन ने उनकी सर्वा स्वीकार्यता को देखते हुए  अपना नेता चुना था | यह कहना सर्वथा गलत होगा की बीजेपी मे चुनाव के पूर्वा प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार चुनने की परंपरा हैं | वस्तुतः यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दबाव ही था की किसी ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए लाया जाये जो ''घोर''' कट्टर वादी रुख अपना सके | क्योंकि अटल जी ने या आडवाणी जी ने कभी भी  सोनिया गांधी जी के लिए कोई ऐसा कथन नहीं किया जिसे '''अमर्यादित''' या  '''आवंचनीय """ कहा जा सके | संघ इस रवैये को क़तई पसंद नहीं करता था | जैसा की महात्मा गांधी के बारे मे उनका रुख था की उनके बारे मे अनाप - शनाप  बाते फैला कर उनकी छवि को धूमिल करने के उसके निरंतर प्रयास सदैव असफल होते रहे हैं |

                        मोदी के आने से सुबरमानियम स्वामी जैसे लोगो को पार्टी मे स्थान मिला जो  अटल - आडवाणी के नेत्रत्व मे कभी भी घुस नहीं सके | क्योंकि वे भी मीडिया की सुर्ख़ियो मे बने रहने के लिए कुप्रसिद्ध हैं | मोदी ने भी""" आक्रामक प्रचार """ को ही प्राथमिकता दी हैं | जिसका अर्थ हैं प्रचार मे दूसरे के प्रति इतना गंदगी फैलाओ की उसका सारा ध्यान उसे हटाने मे ही लगा रहे और वह हमारे मुक़ाबले मे आने मे पिछड़ जाये  सारी समभावनए हैं की सोनिया के इटालियन मूल को लेकर एक बार फिर से उन्हे विदेशी बताने का प्रचार किया जाएगा , क्योंकि वह सही भी हैं , परंतु वे सूप्रीम कोर्ट के उस फैसले का ज़िक्र कभी नहीं करेंगे जिसमे उसने इस मुद्दे को हमेशा के लिए खतम करने का निरण्य दिया था | वे नेहरू - गांधी परिवार की विरासत को बदनाम करने की कोशिस करेंगे , परंतु इस बात का ज़िक्र करना अक्सर भूल जाएँगे की इस परिवार के दो प्रधान मंत्री आतंकवादियो द्वारा मारे गए हैं | यानहा मोदी ने तो सच या झूठ ही आतंकवादी होने के ''''नाम''' पर ही चार लोगो को गोली से भुनवा दिया | देश के लिए प्राण निछावर करने वाले ने ज़रा से शक के आधार पर ही एंकाउंटर करवा दिया |

                      खैर शुक्रवार को हुई इस गलतबयानी पर न तो कोई सफाई पेश होगी नहीं कोई कुछ पूछेगा | जो सुषमा स्वराज  वंशवाद का आरोप लगाती रही हैं दस जनपथ से काँग्रेस को चलाने की बात कहती रही हैं काँग्रेस मे पार्टी स्टार की कारवाई के बजाय हुकुमनामे की बात करती रही हैं , वे सिर्फ ''नेता प्रतिपक्ष''' की अपनी कुर्सी बचाने के लिए संघ के निर्देश के सामने दंडवत हो गयी | हालांकि यह कुर्सी अगली बार उन्हे किसी भी हालत मे नहीं मिलेगी |

                       शूकवार की इस बैठक के बाद  अटलविहारी वाजपायी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओ का युग भारतीय जनता पार्टी से समाप्त हो गया | जनहा दूसरे डालो के नेताओ के लिए आदर और सम्मान हुआ करता था | जब कुछ भी कहने या बोलने के पूर्वा हमेशा ''मर्यादा''' का ध्यान रखा जाता था | अब तो पार्टी ने एक ''  एक बाहुबली ''' को चुन लिया हैं अब वह जिधर भी पार्टी को ले जाये ......................|

Sep 13, 2013

विधान सभा चुनावो के परिणामो की कसौटी से संघ क्यो भाग रहा हैं ?

   विधान सभा चुनावो के  परिणामो  की कसौटी से संघ क्यो भाग रहा हैं ?
                                                                             
                        क्यों  संघ मोदी की ताजपोशी को आनेवाले विधान सभा चुनावो से पहले करना चाहता था? कारण था पुराना अनुभव  मोदी जब गुजरात मे चुनाव जीते तभी हिमाचल मे उनकी सरकार  चुनाव हार गयी | उनका कहना था की वह '''बहुत''' छोटा सा राज्य हैं | परंतु उसके बाद कर्नाटका मे हुए चुनाव मे भी मोदी जी ने किस्मत आज़माई  परंतु वनहा भी बीजेपी की करारी पराजय हुई | सफाई मे उन्होने कहा की ज्यादा वक़्त नहीं मिल पाने के कारण वे पार्टी को सत्ता मे नहीं ला  सके | परंतु इन दो चुनावो से यह तो लाग्ने लगा था की मोदी की का प्रचार ही ज्यादा हैं परंतु वोट  दिलाने लायक उनकी छवि नहीं हैं | इस संदर्भ मे देखे तो लगेगा की मध्य प्रदेश और छतीस गड और राजस्थान तथा दिल्ली मे होने वालों चुनावो मे मोदी के '''जादू''' की उम्मीद बहुत कम हैं | इसी लिए संघ का विचार रहा होगा की अगर काही विधान सभा चुनावो के परिणाम प्रतिकूल  गए , तब मोदी को स्वीकार करने मे लोग अनेक प्रश्न उठाएंगे | फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोसीट करने का ''वादा'' नहीं पूरा हो पाएगा



         आखिरकार  भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का  भावी उम्मीदवार घोसीट कर दिया | राष्ट्रिय स्वयंसेवक  संघ के तेवर देखते हुए यह तो पहले ही साफ हो गया था की  ''होगे तो मो दी ही '' प्रधान मंत्री पद पर काबिज हुए  | हुआ भी ऐसा ही हैं |  सवाल यह हैं की आखिर मोदी की उम्मीदवारी का क्या  अर्थ हैं ?  सर्व प्रथम तो  संघ  का   सत्तर साल  पुराना इरादा """"हिन्दू राष्ट्र """ को पूरा करने का मौका हैं | शायद  उन्हे लग रहा हैं की पहले जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी  के माध्यम से  किए गए """मुलायम""" उपाय असफल हो गए | देश मे इस्लामी  आतंकवाद और विभिन्न भागो होते धमाके - छत -विछट लाशे लोगो के मन मे एक नफरत का भाव तो भर ही देते हैं | इसमे  नौजवानो की संख्या  कुछ ज्यादा हैं , क्योंकि वे अधिक  संवेदनशील होते हैं |  अतः  उन पर दाव लगा कर  मोदी को  एक ''मूरत'''  के रूप मे पेश करने का  फैसला  किया हैं |

                                                                   तथ्य यह हैं की संघ को लाग्ने लफ था की 1990 मे पार्टी को काडर आधारित से बादल कर ""जन""आधारित  बनाने का फैसला मनचाहा  परिणाम देने मे असफल रहा हैं | तथा जिस ''हिन्दू राष्ट्र '' की कल्पना  की ओर संघ बीजेपी को ले जाना चाहता था , उस ओर प्रगति नहीं हो रही हैं | चुनाव की राजनीति के कारण हिन्दू राष्ट्र के लिए जिस कट्टरता  की  ज़रूरत  होनी चाहिए | वह भी पार्टी के नेताओ मे  अनुपस्थित हैं | संघ को लाग्ने लगा था की उसका राजनीतिक मुखौटा  अब चुनाव की राजनीति और सत्ता के सुख  मे फंस गया हैं | हिमाचल से लेकर राजस्थान और छतीसगढ तथा मध्य प्रदेश मे दस साल तक सरकारो के सत्तासीन रहने पर भी  '''पावन उद्देस्य''' की ओर कोई प्रगति नहीं हुई | सिवाय इसके की कुछ बयान जनता युवा मोर्चा और विद्यार्थी परिषद के बयान और  जुलूस   के अलावा कोई  बड़ी कारवाई नहीं हुई |

                                               इन असफलताओ के कारण से ही दो वर्ष पूर्व ही संघ ने बीजेपी पर संगठन मंत्रियो के आसरे शिकंजा  कसना शुरू कर दी थी | मंत्रियो और विधायकों को साफ रूप से इशारा कर दिया गया था की वे अब अपने  भविष्य के लिए पार्टी संगठन की नहीं वरन  ''संघ'' के अधिकारियों  की शरण मे जाएँ | परिणाम यह हुआ की ''संघ''के आश्रया स्थलो  मे लाल बाती की गाड़ियो  की कतार  लगने लगी | पार्टी पदाधिकारियों  की हैसियत  शून्य  सी हो गयी |  दबी  ज़बान से पार्टी मे  यह  कहा जाने की अगले  चुनाव का टिकिट  भी ''संघ'' की सिफारिस से ही मिलेगा | मतलब पार्टी का  दांचा चरमराने लगा | पार्टी के उन नेताओ को अपना भविष्य खतरे मे लगने लगा , जो की पार्टी मे ''संघ'''के रास्ते नहीं आए थे | कुछ आशंतोष भी फैलने लगा , जो की राजनीतिक रूप से स्वाभाविक था |  इन सब से पार्टी मे टूटन की प्रक्रिया प्रारम्भ होने आशंका होने लगी थी | ज़रूरत एक नारे की थी जिसका कोई '''आधार'' नहीं हो , इसलिए  ''राष्ट्र'' हिन्दुत्व'' आदि शब्द गाड़े गए | जिनको पूरा करने के लिए मोदी को लाया गया जिनहोने गुजरात मे संघ के अस्तित्व को ही मिटा दिया |
                                                                                                        

Sep 12, 2013

एक यह भी मंत्री हैं --बिना लाल बती वाला

            एक यह भी मंत्री हैं --बिना लाल बती वाला


    प्रदेश काँग्रेस चुनाव अभियान समिति के   अध्यक्ष  ज्योतिरादित्य  सिंधिया   पर भारतीय जनता पार्टी और मुख्य मंत्री शिवराज सिंह का यह आरोप हैं की वे महाराजा हैं सामंतवाद समर्थक हैं |  जब इस बारे मे उनसे पूछा गया की उनका उत्तर क्या हैं --तो उनका कहना था की मेरी दादी साहब  श्रीमति विजया राजे सिंधिया और बुआ वसुंधरा राजे तथा यशोधरा राजे ने भी कभी राजकूल का होने के कारण अपने को जनता से अलग नहीं माना ,|मेरे पिता माधव राव सिंधिया ने कभी सामंतवादी व्यवहार के हामी नहीं  रहे  | गौर करने की बात हैं की बहुत चतुराई से उन्होने  भारतीय जनता पार्टी पर ही इस आरोप का ठीकरा फोड़ दिया , क्योंकि प्रथम तीनों भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं  इसका अर्थ यह हुआ की आप एक ही कूल के वंश के उन लोगो को ''सामंतवादी'' बना देते हो जो आपके विरुद्ध हो और जो आपके साथ हो वे ''पाक - साफ '' हैं यही राजनीतिक पाखंड हैं |

                
                    पत्रकारो से गैर रस्मी मुलाक़ात मे उनहो ने बुधवार को काँग्रेस कार्यालय मे पत्रकारो और फोटोग्राफरो के साथ हुई ''हाथापाई '' पर माफी मांगते हुए कह की आप के पास देरी से पहुचने का कारण ''लोगो'' कांग्रेस  जनो  को  गेट पर रोकने की कोसिस थी | फिर उन्होने कहा की ''आप लोगो के लिए मैं दरबान बन गया " | मैंने माधव राव सिंधिया की भी प्रैस  कान्फ्रेंस मे रहा हूँ , मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ की वे ऐसे शब्द कभी नहीं कहते | क्योंकि उनमे ''राज'' का जलवा  देखा था , जो ज्योतिरादित्य  ने नहीं देखा इसीलिए वे ''आम'' आदमी के ज्यादा करीब हैं |

                                       दूसरी चुटकी उन्होने शिवराज मंत्रिमल के तौर तरीके पर ली | सभी को मालूम हैं की ''लाल  बती"' वाली गाड़ी को लेकर कितना ऊहापोह मचा हुआ हैं | मंत्रिमंडल की मंशा के बाद परिवहन आयुक्त  ने  चार बार सूची निकली की ''कौन - कौन अपनी गाड़ी मे लाल बती '' लगाने के पात्र हैं और कौन ""हुतर""" लगा सकते हैं | परंतु  हर बार कोई न कोई समूह जा कर संगठन अथवा सरकार - विधायको से ज़ोर दबाव दलवा उसमे  पद नाम बड़वा देता  ऐसा पाँच बार हुआ | यह साफ दिखाता है की सत्तरूद दल के लोगो मे ''पद्लिप्सा""
कितनी हैं ? इस के विरुद्ध सिंधिया  अपनी गाड़ी मे ललबती कभी जलते नहीं हैं | उन्होने कहा की  बाती तो लगी हैं पर उसका तार हटा दिया गया हैं | यह छोटी  बात हैं परंतु मानसिकता को दिखाता हैं | उनकी गाड़ी मे बती हटाई नहीं जा सकती क्योंकि वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य हैं |परंतु जलाने या न जलाने का अधिकार उनके पास हैं , जिसका इस्तेमाल उन्होने किया |

                             तीसरी चुटकी उन्होने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा रोज - रोज घोसना किए जाने की आदत पर ली , उनके अनुसार घोसनाए उतनी करो जिनको पूरा का के दिखा सको , मिसाल के तौर पर मैं चुनाव के दौरान वे चार से पाँच ही वादे अपने मतदाताओ से करते हैं ,फिर उन्हे पूरा करने के बाद कुछ अधिक भी करते हैं      \ जिससे की लोगो को और मुझे भी अधिक संतोष होता हैं | रोज -रोल घोसनाए करने से  उनके पूर्ण न होने और अपूर्ण रह जाने से जनता मे उपजने वाले अशन्तोष का भी दर होता हैं |


                      पहली  निगाह मे इन सब बातों को देखने से लगता हैं ये '''कम बोलने वाला नेता '''' हैं , जिसका अर्थ  हुआ की इसकी काही बात पर भरोसा किया जा सकता हैं | दूसरी बात लाल बती वाली इस बात का इशारा हैं की ''हम जो हैं वह बती से नहीं ''' जबकि लोग बती के लिय मरे जा रहे हैं , तभी तो सरकार को बार - बार लिस्ट बदलनी पद रही हैं , क्योंकि भोपाल मे तो विधायक लाल बती तो हैं ही हूटर  भी लगाए शोर मचाते रहता हैं | जबकि न तो उन्हे बती न ही हुटर लगाने की हैसियत या पात्रता हैं | साफ़ हैं की एक वो हैं जो  '''हैसियत नवा हैं पर चुप बैठे हैः दूसरी ओर वे हैं जो कमजर्फ चिल्ला चिल्ला कर एलन कर रहे हैं की हम हैं हम हैं
 

Sep 11, 2013

अनुयायियों और शिष्यो की ज्यादती -- आम आदमी को भगवान बना देते हैं

अनुयायियों  और शिष्यो  की ज्यादती -- आम आदमी को भगवान बना देते हैं
                                               
                                                            वैसे  हमारी  परंपरा मे  समाज के  उन लोगो को  हम  बहुत ज्यादा सम्मान देते हैं जो अपना जीवन समाज के लिए अर्पित  करते हैं | उन्हे सम्मान देते समय अक्सर उनके वास्तविक नाम को नहीं दुहराया जाता हैं | वरन उनके लिए एक सम्मानजनक  सम्बोधन दिया जाता हैं ,जिस से लोग समझ भी जाये और  नाम ना लेना पड़े | त्रिदेव  के सदस्यो को हम ब्रम्हा को कर्ता विष्णु को पालंकरता और शिव को भोले नाथ कहते हैं | इसी प्रकार  राम को मर्यादा पुरुषोतम और कृष्ण को कानहा  कहते हैं | इंद्रा को देवराज आदि ऐसी उपाधियों से अलंकरत करते हैं |

                                                                 यही परंपरा हमने अपने समाज मे भी  अपनाया हैं | आज़ादी की लड़ाई मे लाला लजपतरई को पंजाब केसरी , बल गंगाधर तिलक को  लोकमान्य और मोहनदास करमचंद गांधी को बापू  तथा बल्लभ भाई पटेल को लौह पुरुष  टी प्रकाशम को आंध्र केसरी  और जवाहर लाल नेहरू को पंडित जी  की उपाधि से इस देश की जनता  ने  नवाजा था |  यह परंपरा महाराष्ट्र मे कुछ अधिक हैं |  अंबेडकर को बाबा साहब और  पंजाब के नेता तारा सिंह को मास्टर कहा जाता था |

                               चाहने वालों की तीव्रता का परिणाम तमिलनाडू मे सबसे पहले देखने मे आया जंहा  एमजीआर  की मूर्ति बना कर एक मंदिर मे उसे स्थापित कर के उसकी पूजा भी करनी शुरू करदी | अब इस स्थिति को क्या कहा जाये ? यह तो निश्चित हैं की एमजीआर  कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं थे , परंतु उनके चाहने वाले उन्हे '''अपना भगवान''' सरीखा ही मानते थे | अब इसे अंधश्रद्धा  कहे अथवा ''चाहत की पराकस्ठा""" ? यह अब उनकी भावनाओ को ठेस लगाने का ''पाप'' तो नहीं करना चाहिए |आखिर  ''प्रेम का आखर  ही """पर्याप्त "" हैं |  आखिर कबीर - सूरदास - तुलसीदास सभी ने तो प्रेम की महिमा गायी हैं |

                      परंतु आजकल जो  ''मानवो''' को भगवान  बनाकर पूजने की प्रथा सी चल पड़ी हैं | जिसका फायदा कुछ भगवा वस्त्रधारी  अनुचित रूप से उठा रहे हैं |जिसका भंडाफोड़  अभी  आशाराम  के मामले मे हुआ हैं | 450 से अधिक  आश्रम  का रहस्य  अब धीरे - धीरे  खुल रहा हैं | कितनी सरकारी ज़मीन पर और बेचारे किसानो की ज़मीन  पर जबरन कब्जा  किया था | अब अफसर ज़ामिनो की नापती कर कर उन सभी आश्रमो को नोटिस दे रहे हैं | सवाल हैं की कल तक जो भगवान के समान पुजा जाता था  उसकी वास्तविकता  हक़ीक़त मे कितनी '''गंदी''' थी | इन भगवान बने  सन्यासियों को हमेशा यह स्मरण कराते रहना चाहिए की वे मात्र  ''मनुष्य''' हैं कोई ''''दैविक """ शक्ति नहीं हैं , उनमे भी मानवजनित कमियो और बुराइयों हैं | वे '''पुजा''' पाने योग्य  नहीं हैं |

                                         

Sep 3, 2013

मस्जिदों के इमामो को भत्ता देना असंवैधानिक हैं --- कोलकतता उच्च न्यायालय

मस्जिदों के  इमामो  को भत्ता देना  असंवैधानिक हैं ---  कोलकतता  उच्च न्यायालय

                   ममता बनर्जी  की सरकार के ''जनहितकारी''  फैसले को कलकत्ता  उच्च न्यायालया ने ""असंवैधानिक "" करार दिया हैं | त्राणमूल  काँग्रेस की सरकार ने मस्जिदों  के इमामो और मुयज़्ज़िनों को प्रति माह 2500 रुपये देने का फैसला किया था |  जिसके लिए  बकायदा प्रदेश के ज़िलो का मुआइना किया गया | इसके लिए  हाइ कोर्ट के अवकाशप्राप्त  न्यायाधीस अब्दुल  गनी की  अध्यक्षता मे एक आयोग बना कर सभी इमामो और मुयाज़्ज़िनों के लिए आर्थिक   सहायता की सिफ़ारिश की थी |  आयोग ने इमामो को 2500 रुपयो प्रति माह दिये जाने की और मुयज़्ज़िनों को भी पाँच सैकड़ा हर महीने देने का फैसला किया था |

                                    सरकार के इस फैसले को हाई कोट्  मे चुनौती दी गयी | मुख्य न्यायाधीश  प्रणव कुमार बनेर्जी  तथा मुरारी मोहन श्रीवासतवा ने याचिका पर विचार करते हुए सरकार के इस फैसले के तर्क  को अमान्य कर दिया की सरकार  अपने  नागरिकों के हित के लिए निरण्य लेने के लिए स्वतंत्र हैं | परंतु अदालत ने उनके ""जनहित''' के आधारो को नामंज़ूर कर दिया | पीठ ने अपने फैसले मे धर्म के आधार पर शासन द्वारा आर्थिक मदद दिये जाने को असंवैधानिक  करार दिया | अब इस फैसले के खिलाफ सूप्रीम कोर्ट मे अपील तो होगी ही , तब देखना होगा की '''सरकारे जनहित के नाम ''' पर  कितनी दूर जा सकती हैं |