चुनावी शाम मे मुसलमा होते नेता और उनका हश्र
वैसे तो हर एक चुनाव मे ही ''नेता '' दल बदलू होते हैं , यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं | परंतु समझ मे यह नहीं आता की सैकड़ो मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करने वाला ''पार्षद'' हो चाहे विधान सभा का चुनाव ही अथवा लोकसभा के चुनाव हो , यह ''परंपरा'' दुहराई ही जाती हैं | महत्वाकांचा राजनीति मे आने वालों की पहली शर्त होती हैं , यह सभी जानते हैं ,परंतु अधिकतर ''नेता'' जो ""अति महत्वाकांछी "" होते हैं उन्हे सदैव अपनी पार्टी और उसके कर्र्न्धारों से यह शिकायत रहती हैं की ''उनकी ''महत्ता को वे लोग पहचान नहीं रह रहे हैं | भले ही ऐसे नेता अक्सर ''बिना दल'' या निर्दलीय हो कर भी अपना भाग्य आज़मा चुके होते हैं , और सौ मे से अस्सी पराजय क्का स्वाद भी चख चुके होते हैं परंतु फिर भी जनहा काही बैठे की नहीं और शुरू हो गए ""परनिंदा""पुराण लेकर और लगे उसका वाचन करने | उनसे जब भी तर्क या तथ्य की बात करो तो वे एक ही बात कहते हैं की ''फला ""फला" ने हरवा दिया अथवा विरोधी पार्टी की ""बयार"" चल रही थी इसलिए जमानत ज़ब्त हो गयी नहीं तो धूल चटा देता "" |
कुछ ऐसा तो नहीं परंतु इसके विपरीत भी इस बार विधान सभा चुनावो के समय लोग काँग्रेस छोड़ कर अथवा निर्दलीय ---सत्तारूद दल मे शामिल हो रहे हैं | ऐसा क्यो हो रहा हैं -इसका जवाब तो वे लोग ही दे पाएंगे , हम तो सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं | भारतीय जनता पार्टी मे जो लोग शामिल हो रहे हैं ज़रूरी सी बात हैं की वे चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के ''प्रत्याशी'' बनना चाहते हैं | परंतु क्या जिस स्थान से वे टिकट चाह रहे हैं उस स्थान की पार्टी इकाई उनके नाम का समर्थन कर रही हैं ? नब्बे फीसदी मामलो मे तो पार्टी इकाइयां ऐसे दलबदलून के विरोध मे ही रहती हैं | ऐसे मे अगर पार्टी ने उन्हे प्रत्याशी बना भी दिया तो ''विजय श्री ''' की उम्मीद कम ही रहती हैं | फिर क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव की वेला मे बाहरी व्यक्तियों या लोगो को अपने यहना शरीक करती हैं ?
शायद ऐसे लोगो को शामिल करने के लिए कुछ ''बड़े नेताओ''' का अहंकार ही कारण होता हैं , जिसके फलस्वरूप ऐसे लोग दल मे आकार """खलबली '' मचा देते हैं | इस श्रेणी मे रींवा राजघराने का नाम लेना समीचीन होगा , क्योंकि जंहा महाराजा पुष्प राज सिंह काँग्रेस मे शामिल हुए वनही उनके युवराज आदित्य राज भारतीय जनता पार्टी मे शामिल हुए | यह घटनाए एक सप्ताह के अंदर हुई | हालांकि पुष्प राज सिंह काँग्रेस से विधायक एवं मंत्री रह चुके हैं बाद मे वे पार्टी छोड़ कर चले गए थे | अब कौन सा मोह उन्हे वापस ले आया -कहना मुश्किल होगा | काँग्रेस विधायक दल के उप नेता राकेश सिंह चतुर्वेदी ने भी पार्टी द्वारा लाये गए अविसवास प्रस्ताव पर अपने दल के नेत्रत्व का विरोध किया | परिणामस्वरूप उन्हे पार्टी से निलंबित भी किया गया | शायद तकनीकी कारणो से उन्हे पार्टी से '''बर्ख्ख़स्त ""नहीं किया गया | लेकिन जिस स्वागत - सत्कार से उन्हे पार्टी मुख्यालय मे लाया गया ,उस से यह तो साफ हो गया की उन्हे भिंड की उनकी ही सीट से बीजेपी प्रत्याशी बनाने का मन बना चुकी हैं | छतरपुर के निर्दलीय विधायक मानवेंद्र सिंह ने भी सत्तारूद दल का दामन थाम लिया हैं , अब पार्टी उन्हे वनहा से टिकेट दे पाएगी यह कहना मुश्किल हैं | वैसे वे काँग्रेस की सरकार मे मंत्री रह चुके हैं | रीवा के सीधी ज़िले से निर्दलीय विधायक के के सिंह ज़रूर अपने छेत्र मे लोकप्रिय हैं ,इसलिए बीजेपी ने उनका इस्तेमाल नेता प्रति पक्ष अजय सिंह को चुनौती देने के लिए करने की मंशा है | ऐसा इसलिए भी संभव हो पाएगा की भले ही कम परंतु वे भी स्वर्गीय अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत के भागी दर हैं | जैसे मेनका गांधी और वरुण गांधी श्रीमती इन्दिरा गांधी की विरासत का दावा करते हैं | महत्वाकांचाओ और विरासतों की साझेदारी का क्या परिणाम होगा यह तो चुनाव मे ही सामने आएगा ?
वैसे तो हर एक चुनाव मे ही ''नेता '' दल बदलू होते हैं , यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं | परंतु समझ मे यह नहीं आता की सैकड़ो मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करने वाला ''पार्षद'' हो चाहे विधान सभा का चुनाव ही अथवा लोकसभा के चुनाव हो , यह ''परंपरा'' दुहराई ही जाती हैं | महत्वाकांचा राजनीति मे आने वालों की पहली शर्त होती हैं , यह सभी जानते हैं ,परंतु अधिकतर ''नेता'' जो ""अति महत्वाकांछी "" होते हैं उन्हे सदैव अपनी पार्टी और उसके कर्र्न्धारों से यह शिकायत रहती हैं की ''उनकी ''महत्ता को वे लोग पहचान नहीं रह रहे हैं | भले ही ऐसे नेता अक्सर ''बिना दल'' या निर्दलीय हो कर भी अपना भाग्य आज़मा चुके होते हैं , और सौ मे से अस्सी पराजय क्का स्वाद भी चख चुके होते हैं परंतु फिर भी जनहा काही बैठे की नहीं और शुरू हो गए ""परनिंदा""पुराण लेकर और लगे उसका वाचन करने | उनसे जब भी तर्क या तथ्य की बात करो तो वे एक ही बात कहते हैं की ''फला ""फला" ने हरवा दिया अथवा विरोधी पार्टी की ""बयार"" चल रही थी इसलिए जमानत ज़ब्त हो गयी नहीं तो धूल चटा देता "" |
कुछ ऐसा तो नहीं परंतु इसके विपरीत भी इस बार विधान सभा चुनावो के समय लोग काँग्रेस छोड़ कर अथवा निर्दलीय ---सत्तारूद दल मे शामिल हो रहे हैं | ऐसा क्यो हो रहा हैं -इसका जवाब तो वे लोग ही दे पाएंगे , हम तो सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं | भारतीय जनता पार्टी मे जो लोग शामिल हो रहे हैं ज़रूरी सी बात हैं की वे चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के ''प्रत्याशी'' बनना चाहते हैं | परंतु क्या जिस स्थान से वे टिकट चाह रहे हैं उस स्थान की पार्टी इकाई उनके नाम का समर्थन कर रही हैं ? नब्बे फीसदी मामलो मे तो पार्टी इकाइयां ऐसे दलबदलून के विरोध मे ही रहती हैं | ऐसे मे अगर पार्टी ने उन्हे प्रत्याशी बना भी दिया तो ''विजय श्री ''' की उम्मीद कम ही रहती हैं | फिर क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव की वेला मे बाहरी व्यक्तियों या लोगो को अपने यहना शरीक करती हैं ?
शायद ऐसे लोगो को शामिल करने के लिए कुछ ''बड़े नेताओ''' का अहंकार ही कारण होता हैं , जिसके फलस्वरूप ऐसे लोग दल मे आकार """खलबली '' मचा देते हैं | इस श्रेणी मे रींवा राजघराने का नाम लेना समीचीन होगा , क्योंकि जंहा महाराजा पुष्प राज सिंह काँग्रेस मे शामिल हुए वनही उनके युवराज आदित्य राज भारतीय जनता पार्टी मे शामिल हुए | यह घटनाए एक सप्ताह के अंदर हुई | हालांकि पुष्प राज सिंह काँग्रेस से विधायक एवं मंत्री रह चुके हैं बाद मे वे पार्टी छोड़ कर चले गए थे | अब कौन सा मोह उन्हे वापस ले आया -कहना मुश्किल होगा | काँग्रेस विधायक दल के उप नेता राकेश सिंह चतुर्वेदी ने भी पार्टी द्वारा लाये गए अविसवास प्रस्ताव पर अपने दल के नेत्रत्व का विरोध किया | परिणामस्वरूप उन्हे पार्टी से निलंबित भी किया गया | शायद तकनीकी कारणो से उन्हे पार्टी से '''बर्ख्ख़स्त ""नहीं किया गया | लेकिन जिस स्वागत - सत्कार से उन्हे पार्टी मुख्यालय मे लाया गया ,उस से यह तो साफ हो गया की उन्हे भिंड की उनकी ही सीट से बीजेपी प्रत्याशी बनाने का मन बना चुकी हैं | छतरपुर के निर्दलीय विधायक मानवेंद्र सिंह ने भी सत्तारूद दल का दामन थाम लिया हैं , अब पार्टी उन्हे वनहा से टिकेट दे पाएगी यह कहना मुश्किल हैं | वैसे वे काँग्रेस की सरकार मे मंत्री रह चुके हैं | रीवा के सीधी ज़िले से निर्दलीय विधायक के के सिंह ज़रूर अपने छेत्र मे लोकप्रिय हैं ,इसलिए बीजेपी ने उनका इस्तेमाल नेता प्रति पक्ष अजय सिंह को चुनौती देने के लिए करने की मंशा है | ऐसा इसलिए भी संभव हो पाएगा की भले ही कम परंतु वे भी स्वर्गीय अर्जुन सिंह की राजनीतिक विरासत के भागी दर हैं | जैसे मेनका गांधी और वरुण गांधी श्रीमती इन्दिरा गांधी की विरासत का दावा करते हैं | महत्वाकांचाओ और विरासतों की साझेदारी का क्या परिणाम होगा यह तो चुनाव मे ही सामने आएगा ?
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