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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Sep 12, 2012

जन आन्दोलन अथवा धरना और इन का औचित्य

ओंकारेश्वर  और नर्मदा सागर  बाँध  के विस्थापितों द्वारा  मुआवजा न पाने और जमीं के बदले जमीं की मांग को लेकर किये जा रहे जल-""सत्याग्रह"" में सरकार  ने  खंडवा के लोगो के लिए तो "कुछ"  राहत देने की घोसना की हें ,परन्तु हरदा के विस्थापितों के बारे में   शासन  का रुख काफी सखत हैं ।मीडिया के कुछ भागो में इस दुहरे मानदंड को लेकर  टीका -टिप्पणी  भी की गयी और आलोचना भी हुई हैं । एक स्थान पर लगभग सौ -सवा सौ आन्दोलनकारी थे और हरदा में  भी अंदाज़न  इतने  ही लोग जल के अंदर बैठ कर  जमीं के बदले जमीन  की मांग कर रहे थे । हालाँकि  किसानो की मांग पूरी तरह से जायज़  हैं ,पर सरकारी नियम काफी निर्मोही हैं , अफसर की नज़र में तो "" सब चीज़ की एक क़ीमत  हैं और वह भी  रुपये में "" फिर चाहे वह  रोज़ी हो या आशियाना ""। इसीलिये   देश की सभी विकास की परियोजनायो  में  जमीन   अधिग्रहण  एक असाध्य समस्या बनी हुई हैं ।इस और   ना  ही  केंद्र सरकार और ना  ही प्रदेश सरकारों ने कोई वास्तविक नीति  आज़ादी के साठ  सालो बाद भी  नहीं बनायीं हैं । एक महत्वपूर्ण  मुद्दा यह हैं की ,   विकास  भले ही अंतर -प्रदेशीय हो अथवा राज्य   विषेस के हो  या वह केंद्र प्रवर्तित  महती योजना हो , भूमि तो उस प्रदेश की कम होती हैं  जंहा उसका निर्माण होता हैं ----यही हैं  विकास की  कीमत  जो उस राज्य के लोगो को चुकानी पड़ती हैं ।
                      लोगो का बेघर होना और किसान का मजदूर बन जाना  इस प्रगति के चरण की पहली   बलि हैं, ,जो भाखरा नंगल से लेकर  दामोदर वैली  एवं बहुत सी परियोजनाओ  की कहानी हैं ।गाँव में मैंने  एक कहावत सुनी थी -की जमीन  के अंदर का धन पाने के लिए ""हल का एक बैल या एक पुत्र खोना होता हैं ""आज इतनी सालो बाद विकास की कहानी का यह    सच समझ में आया ।  किसान के खेतो की सिंचाई के लिए पानी का बन्दोबस्त  करने के लिए बड़े बाँध  बनाये जाते हैं ,यही उन किसानो को भी समझाया जाता हैं की ""तुमाहरे ही इलाके में सोना बरसेगा  जब दो - दो फसल काटोगे  ।पर फसल कटने वाले तो बड़े किसान या जमींदार तो इस विकास से दो तरह से मालामाल होते हैं , पहला उनकी किसानी भरपूर  बढ  जाती हैं ,और उनकी जमीनों के दाम सैकड़ो गुना बढ  जाते हैं ।तो आमदनी में कई गुना का इजाफा तो हुआ ही और सम्पति का मूल्य भी अनेक गुना बढ  जाता हैं ।पर विकास की इस वेदी पर जिनका  सर्वस्व स्वाहा  हो जाता हैं , उनकी नियति किसान से मजदूर बन कर इनता -गारा उठाना और अपने इलाके से दर-बदर  हो जाना होता हैं। इतना ही नहींबाँध  से बन ने वाली बिजली की खपत के लिए इलाकें में  बडे -बडे कारखाने  लगते हैं ,  जिसके  लिए फिर एक  बार  कुछ  और किसान की नियति मजदूर बनने की हो जाती हैं ।
                                            अब विकास का फल यानी पानी तो बचे हुएं  किसानो को मिलता हैं , हल -बैल वाले किसान ,फिर ट्रक्टर वाले हो जाते हैं ।उनके  मिटटी के मकान  कांक्रेट  के हो जाते हैं । वे ही  सरपंच  बन जाते हैं और गाँव के विकास के भाग्य नियंता बन जाते हैं ।इस  सारी  प्रक्रिया में गाँव के निवासियों में जो समरसता    मौजूद थी वह स्वाहा  हो जाती हैं ।इन बडे किसानो  द्वारा ही सहरो में दूध -दही बेचा जाता हैं , उनकी सम्पन्नता दिन दुनी रात   चौगुनी बदती हैं  ।गाँव में घोर विषमता  बदती हैं ।सम्पति की रक्षा के लिए समर्थ  लोग बन्दूक रायफल  खरीदते हैं , जिसके सहारे अपना प्रभुत्व जमाते हैं । नक्सल वादी और माओ वादी  इसी विषमता की उपज हैं ।

                                                             यह  था विकास की कहानी का एक पहलु हैं ।दूसरा पछ  फिर आगे की कहानी  बाद में .............