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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Feb 27, 2013

Rape of a minor by minors

     
   Rape of a minor by minors 
                                                              After the infamous rape case of New Delhi which was named as ""Damini" case , in which the person responsible of the death of the hapless victim  was found minor . .A lot uproar and candle march and sit - in dharna at India gate brought this event to the knowledge  of the nation and world . Later  it was revealed that the person , whose brutal act led the death of victim at Singa pore hospital. Agitated people demanded ""Death to the accused "" , and many personalities emotionally supported the public demand . but little knowing that Juvenile Act would become hurdle in implementation of their demand . Later ,when emotion were cooled ,by that time the fact of the minor came to the surface ,then the Chanels  started debating the issue --whether the accused who is minor should be taken out from the ambit of the juvenile act ,by lowering the age to define the juvenile . But when the Police and some jurists pointed that even if the age is lowered on the public demand ,it can not be implemented retrospectively . Only then the uproar subsided . GOI Minister for social Justice Mam Tirath was first to point that every demand would be considered after the Report of Justice Varma  committee report . Committee in their report did not recommended lowering the age of juvenile . 

                                                                                  At that time two points came for heated discussion , one was minor in heinous crime and his liability ? And another was what should be the basis to decide the age of a person ?  Because the sixth accused in Damini case was considered minor on the basis of school certificate , where by the principal of the school has confessed that it was just "word of mouth "" to write down the age of the accused .No supporting evidence was produced at that time -like birth certificate or the affidavit of the Mother who gave birth to the child . At that point of time it was debated that ultimate truth is the Mother's affidavit  ,because she only is the authentic person about the birth hence the age . 
        It was also said by the state that under international treaty a minor can not commit the heinous crime . But according to the Indian Penal Code Rape is a such crime , which has a jail term from ten years to life imprisonment . While under J.Act the maximum punishment is Three Years in Borstal .

                                                         Now in Bhopal similar case come up , in which the victim and accused BOTH ARE MINORS . Now what the jurisprudence would say ,except that both the rapist have not committed a crime which should be considered Heinous . In this matter the girl aged Fourteen years was taken by two boys whoes age is as reported sixteen years , and they reside near by her house . She was kept by  boys under lock and key  for two days and continuously  raped in turn by both the accused .Now it will be matter of great interest that how the police of Govindpura deals with the matter . 

भंडाफोड़ बनाम मीडिया ट्रायल

            भंडाफोड़  बनाम मीडिया  ट्रायल 
                                                           यूँ तो गुनाहगार और बेगुनाह  का फैसला अदालतों में होता हैं , परन्तु विगत एक दशक से  समाचार  पत्रऔर टी वी चैनलो  में खोजी  पत्रकारिता के नाम पर एक मुद्दा पकड़ लिया जाता हैं , जिसे हफ्तों और महीनो तक  चलाया जाता हैं । इस को ही घोटाले का नाम दिया जाता हैं । अब इस ''काण्ड''  को मीडिया  घोटाले  का भी नाम  दे देता हैं । इस घोटाले  का आधार  कोई फाइल पर की गयी टीप  होती हैं ,अथवा किसी असंतुष्ट  पार्टी द्वारा उपलब्ध कराये गए कागजात होते हैं ।  आम तौर पर बड़ी - बड़ी खरीद के मामलो में अनेक  लोगो के हित अहित  जुड़े होते हैं । एवं अनेक कंपनियों  के मध्य  किसी एक को ही टेंडर  या आर्डर  मिलता हैं । तब शुरू हो जाता हैं  आरोप - प्रत्यारोप  का सिलसिला , जिसमें  अख़बार  और टी वी  माध्यम बन जाते हैं उनके  कहे को शब्द देने के लिए । फिर यह सब एक खबर या घोटाला बन जाता हैं । जिसके  अर्थ  निकाले  जाते हैं  , लोगो के नाम  उछालते हैं , फिर हानि - लाभ का अंदाज़ा भी आंक  लिया जाता हैं । इस  पूरे  प्रकरण  में अभियोजन कर्ता  और जज  दोनों ही भूमिका  स्वयं मीडिया निभाता हैं । हमारे देश में '''आरोपी'''को '''बेगुनाह'' माना  जाता हैं ,कम से कम अदालतों में तो यही कानून चलता हैं   । परन्तु मीडिया में तो पहले से ही यह निश्चित  हो जाता हैं की"" अपराधी  कौन "" और खबरों को दलील की तरह प्रस्तुत किया जाता  हैं । मीडिया की धमाचौकड़ी  से  सार्वजनिक  जीवन में एक अनिश्चित सा  वातावरण  बन जाता हैं । 
                                                                 अभी सुप्रीम कोर्ट  के प्रधान    
न्यायाधीश  अल्तमश कबीर  ने मीडिया के ट्रायल  पर टिप्पणी  की थी की यह रुख़  काफी भ्रमित करने वाला हैं । हमारे  खबरिया  चैनलो ने इस  बात को  अपने बुलेटिन  में जगह नहीं दी , क्योंकि यह उनके  ""काम ""के विरुद्ध  था ।  यह थी मीडिया की निष्पक्षता  ?  जो दोषी को सफाई का मौका बस इतना देता हैं  की उनके कहे को लोगो को सुना देता हैं । सबूत के तौर पर  उन लोगो के बयान  जिनको  न तो विषय ना   ही  मुद्दे की पूरी जानकारी होती हैं  । कुछ  उन लोगो के  बयान  जो हमेशा  एक जैसे  ही  शब्द और  रुख  रखते हैं । अगर उन मुद्दों पर कोई  आन्दोलन  या जुलुस  निकल गया तो  उसे इस क़दर महत्वपूर्ण  बनाने की कोशिस होती हैं जैसे की वह  निर्णायक  हो ।  इसका उदहारण  पहले अन्ना  का आन्दोलन  था  फिर  ""दामिनी ""  के बलात्कार पर उमड़े जन आक्रोश  पर जन आन्दोलन की भावनात्मक  रिपोर्टिंग , जिस से लोगो का आक्रोश  तो बड़ा पर माहौल अशांत रहा   , फलस्वरूप   सामान्य स्थिति होने में काफी समय लगा ।  विवाद को शांत करने  की बजाय  उसमें आग पड़ती रही । 
                                                                                दामिनी मामले में सरकार द्वारा गठित  जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट किया गया की  ''आरोपों ''की बुनियाद पर अपराध सिद्ध हुआ नहीं मान लिया जाना चाहिए , जैसा मीडिया में हुआ । आखिर कर  फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने  मीडिया के इसी रुख के कारण  बंद कमरे में सुनवाई का फैसला किया । जिस से  रोज - रोज होने वाली बहस सार्वजनिक विवाद का मुद्दा न बने । दोषी को अपराध सिद्ध हुए बगैर ही अपराधी नहीं करार दिया जा सकता । वैसे यह  काम मीडिया के लाडले  अरविन्द केजरीवाल काफी समय से करते आ रहे हैं  । उनकी दलील रहती हैं की जो हम कह रहे हैं उसकी जांच जैसे हम कहे वैसे होनी चाहिये  अब अगर लोफ स्वार्थ के कारन लोगो पर आरोप लगा दे तो सभी जांच करना  संभव ही नहीं हैं । यही अन्ना  हजारे और केजरीवाल  करते रहे हैं । दरसल दोनों ही लोगो को भरपूर पब्लिसिटी देकर उन्हें  राष्ट्रीय नेता की श्रेणी में लाने का असफल प्रयास मीडिया द्वारा किया गया ।  
                             आरोप लगा कर खुद शोहरत  पाने के प्रयास में  अनेक लोगो की फजीहत  की जाती हैं ,और जिसका  इलाज  ""मान हानि "" का दावा हैं । अम्बानी   के विरुद्ध  आरोप लगा कर जब केजरीवाल ने वाह  वाही लूटने की कोशिस की तब अंबानी  ने चैनलो  को नतीजा भुगतने की  चेतावनी दे दी थी । फलस्वरूप अघोसित रूप से उस मुद्दे को किसी खबरिया  चैनल ने बुलेटिन में जगह नहीं दी । 
                                                              सुप्रीम  कोर्ट के प्रधान जज  द्वारा मीडिया ट्रायल  के बारे में यह टिपण्णी की '''आखिर अदालते भी प्रचार से प्रभावित हो जाती हैं'''\ इसी लिए निर्वाचन आयोग ने चैनलो द्वारा कराये जाने वाले चुनावी सर्वे  पर रोक लगा रखी  हैं , पर आदत से मजबूर टी वी  बस पार्टियों को  आठ शहरो  के हज़ार लोगो की रॉय पर लोकसभा  की सीट बाँट देती हैं । यह स्थापित तथ्य हैं की मीडिया न तो चुनाव जीता  सकता हैं नहीं हरा सकता हैं , इसका उदहारण १ ९ ७ ७ के चुनाव परिणाम थे ,उस समय तक किसी ने कांग्रेस की  पराजय की कल्पना भी नहीं की थी । दूसरी  बार १ ९  ८ ० के चुनाव जब जनता पार्टी बुरी तरह हारी थी  , तब किसी ने परिणामो के अंदाज़ नहीं लगाये थे ।     
                                                     

Feb 25, 2013

नगरो का अनियोजित बढता आकार यानी कैंसर का विकास

 नगरो का  अनियोजित बढता आकार  यानी कैंसर का विकास     
                                                                                     नगरो का बढता आकर , बिल्डर्स  के लुभावने विज्ञापन पुरे न हो सकने वाले वायदे और अखबारों में छपे  मन मोह लेने वाला फ्लैट या सिंग्लेक्स अथवा डुप्लेक्स की तस्वीर , आम आदमी को स्वप्न लोक में पहुंचा देते हैं । परन्तु  सच काफी  कडुआ  हैं ।  जब आम आदमी इन सब को देखता हैं ,तब  वह भ्रमित  हो जाता हैं । ज़िन्दगी की सारी -जमा  पूंजी लगा कर एक आशियाना पाने की कोशिस  कई बार  मृग -मरीचिका  साबित होती हैं । जब खुबसूरत  तस्वीर का  ज़मीन  पर कोई वजूद  ही नहीं होता । लोग कहेंगे और सरकारी  मुलाजिम भी सलाह देंगे की उपभोक्ता  संरक्षण अदालत में शिकायत करने का । परन्तु वे भूल जाते हैं की मुक़दमा लडने के लिए पैसा तो बचा नहीं हैं , क्योंकि बिल्डर  ने  सारी  पूंजी तो पहले ही खा ली होती हैं । अब खाली  जेब  वह घर चलाये  या मुक़दमा लडे  , यही तो खरीदने वाले की  मुश्किल  हैं  । अब पीडित  व्यक्ति  तो सरकार  के पास ही  जायेगा , परन्तु सरकार के पास उसे  राह्त  देने का कोई फौरी  तरीका  नहीं है ।  हाँ  मास्टर प्लान के उल्लघन  के लिए शासन  बिल्डर को  सजा दे  सकती हैं , परन्तु इस कारवाई से भुक्तभोगी को  राहत  नहीं मिलती । कारन यह हैं की  शासन की कारवाई  से या तो मकान  तोड़े जायेंगे या उन्हे  पानी - बिजली  की सुविधा  घरेलु  दर पर नहीं वरन  कमर्शियल  दर  पर मिलेगी  , जो काफी महंगी होती हैं । फ्लैट के मामलो में बिल्डर  छत पर अपना अधिकार रखता हैं  ,वह खुली  हुई ज़मीन  पर भी अपना अधिपत्य रखता  हैं । अनेको  बिल्डरों  ने तो बेचे हुये  आवासीय  इक़इयो  में तो किसी भी परिवर्तन  के लिए खरीदारों को परमीसन  लेना ज़रूरी कर रखा हैं ।  अब खरीददार  की हैसियत एक किरायेदार जैसी हो जाती हैं । 

                                                   यह हैं उन ख़ूबसूरत  विज्ञापनों का सच , जो खरीद के बाद  पता चलता हैं । अब सवाल हैं की क्या बिल्डरों को विज्ञापन  में किये गए वादे  के लिए उसे सरकार  मजबूर नहीं कर सकती ?  अभी तक  ऐसा कोई प्राविधान नहीं हैं , जिसके आधार  पर गैर कानूनी  कालोनी  के कारण  टूटने  वाले मकानों  का मुआवजा बिल्डर पर हो । पर अभी  तक ऐसा प्राविधान हैं नहीं । यही एक परेशानी हैं जिसमें विज्ञापन के धोखे  में फंसे नागरिक  को कोई  राहत  नहीं मिलती हैं  । 

                                                                      अब मास्टर प्लान बना कर  शासन एक विज्ञापन  दे   कर नागरिको को विश्वास  दिलाता हैं ,पर  वह  इस सरकारी वादे  को तोडने वालो को कोई सजा  देने में और भुक्तभोगी  को राहत  देने में  सरकार नाकाम हैं । अब इस गुत्थी का हल क्या हैं  ? यही  राह   सरकार को दिखानी होगी अपने नागरिको को ,तभी  इन गैर कानूनी  कॉलोनियो  का इलाज हो सकेगा ।  

आतंकी विस्फोट का जिम्मेदार कौन और कौन करे कारवाई

आतंकी विस्फोट का जिम्मेदार कौन और कौन करे कारवाई ?



 विस्फोट के बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों  में ज़बानी जंग  शुरू हो गयी हैं ,की ,यह किसकी  गलती हैं और इस का जिम्मेदार कौन हैं -किसे कारवाई करनी थी ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए हमे शुरू से देखना होगा } एन  सी टी सी  क्या राज्यों के अधिकारों में हस्तछेप  हैं -क्या हमे आतंकी घटनाओ के लिए अमेरिकी  ढंग अपनाना चाहिए  ?  देखा गया हैं की जब -जब ऐसी घटनाये होती हैं तब - तब दलो  के नेता टीवी और समाचार पत्रों में  काफी कड़े बयां देते  हैं । जो अमेरिकी ढंग  अपनाने की बात करते हैं वे भी , केंद्र की सरकार को दोषी बताते हुए ""तबर्रा "" पड़ना शुरू कर देते हैं । पर उनमें कोई भी इस काम को कैसे अंजाम दिया जाए उस बारे में चुप रहते हैं । टीवी पर हनी वाली  चर्चा में तो जीभ खुजाने के लिए बयां वीर काफी ऐसे सुझाव देते हैं , जिनको  आमली जामा  देना बहुत मुश्किल ही नहीं वरन नामुमकिन सा हैं । क्योंकि  वे देश की सामर्थ्य - उसकी -सीमाए  और कानून का बंधन  के कारन  आने  वाली दिक्क़तो  को नज़रंदाज़ कर देते हैं । आगे देखेंगे  की उनके कहे या -उवाच को क्यों नहीं किया जा सका । 

                         हमारे संविधान में शांति - व्ययस्था  का दायित्व  राज्यों को दिया गया हैं , फलस्वरूप  अपने- अपने  इलाकों में उनकी अलग पुलिस  हैं , , जिसका काम अपराधो रोकना और हुए  अपराधो की विवेचना कर के  अदालत में पेश करना  हैं । यह एक सच्चाई हैं की  देश की  ज़मिन पर राज्यों का हुकुम चलता हैं  ,उनका ही कब्जा हैं । अर्थात केंद्र  के पास अपना कहने  को कोई इलाका नहीं हैं -सिवाय  उसके कार्यालयों के  और वे भी  बिजली -सड़क -पानी के लिए उस स्थान की नगर निगम और प्रदेश सरकार  पर निर्भर हैं । 

                                   इन तथ्यों के प्रकाश में अब हमे आतंकी  घटनाओ की  जांच और ज़िम्मेदारी की बात करनी हैं ।  हैदराबाद  का बम विस्फोट  दंड संहिता के अनुसार  एक अपराध ही हैं ,और इसी लिए थाने में उसकी रिपोर्ट लिखी गयी हैं  । अब  कारवाई  की शुरुआत भी आन्ध्र पुलिस  ने कर दी  हैं , लेकिन इस घटना को आतंकी  कारवाई  होने के कारन इसके सूत्र  अनेक राज्यों तक फैले हुए हैं  । चूँकि हर राज्य की पुलिस  का काम करने का  तरीका  अलग हैं लिहाज़ा  कठिनाई  आ रही हैं ।  ऐसे में ज़रुरत हैं एक संस्था की जो  देश के सभी भागो में  एक साथ कारवाई कर सके -वह भी बिना किसी  अडंगे के । जैसे इनकम टैक्स की  कारवाई  सारे देश में निर्विघ्न  की जाती हैं ।  अब इसी चुनौती  से  निपटने  के लिए ही केंद्र  ने  आतंक विरोधी  केंद्र { N.C.T.C.} बनाने  का फैसला किया हैं । 

                                                                         इस फैसले  का तथ्य यह हैं  की ज़मीन  भले ही राज्यों  के अधीन हो  परन्तु आतंकी  हमले  भारत  की भूमि   पर होता हैं , उसकी   प्रभुसत्ता  पर होता हैं अतः कारवाई  भी केंद्र  को करनी होगी । पर यह कैसे हो - प्रश्न  यही हैं । अब इसी काम को अंजाम  देने के लिए आतंक विरोधी केंद्र की स्थापना  प्रस्तावित हैं । इस पहल के विरोध करने वाले भी  मांग करते हैं की अमेरिका की भांति यंहा पर भी सुरक्षा   बंदोबस्त होने चहिये , पर वे इस मांग केके विस्तार को नहीं समझते  । 

                 सर्व प्रथम  तो अमेरिका एक सुपर पॉवर हैं वह इंटरनेशनल  दबावों को  नकार सकता हैं , हम नहीं । भले ही हम टीवी पर  संसद में बयां देकर  वाह  वाही लूट लें परन्तु हकीक़त में क्या हम पाकिस्तान पर  हमला कर सकते हैं नहीं । क्योंकि अगर उसने एटॉमिक हथियारों का इस्तेमाल किया तो  क्या हम उसके लिए तैयार हैं ? दूसरा सवाल हैं की जितना धन वह  ख़ुफ़िया  तंत्र पर खर्च करता हैं  क्या हम कर सकते हैं ? कतई  नहीं , जब हम आधार मज़बूत नहीं कर सकते तो हमे वंही सुझाव या मांग करनी चाहिए  जो हमारी आर्थिक चादर के अनुरूप संभव हो । इस सन्दर्भ में  एक ज्वलंत  प्रश्न हैं राज्यों के अधिकारों का । 
                                                            अमेरिका में भी शांति व्यस्था स्थानीय निकायों और राज्यों का अधिकार हैं , परन्तु वंहा काउंटी में पुलिस होती हैं मगर गंभीर परिस्थितियों  में स्टेट फाॅर्स और नेशनल गार्ड  की भी मदद ली जाती हैं । ऐसे अपराध जिनके  सूत्र राज्यों की सीमा के ,.बाहर  हो उनकी छानबीन फेडरल ब्योरो  करता हैं । इसके लिए वह स्थानीय पुलिस  का मोहताज़ नहीं होता । वरन वह संदिग्ध व्यक्तियों को सीधे गिरफ्तार करता हैं ।  उनसे पूछताछ  करता हैं ,बाद में मुक़दमा भी राज्य की नहीं वरन  विशेस अदालतों में चलता हैं । वंहा यह अधिकार हैं ,और यंहा इसी अधिकार को राज्यों  की प्रभुता का अतिक्रमण  बताते हुए विरोध हो रहा हैं ।  ९/१ १  के बाद अमेरिकी केंद्रीय  एजेंसी  ने सैकड़ो लोगो नज़रबंद रखा  --वंहा किसी राज्य ने न तो आपति जताई न ही विरोध किया  । 
                अगर एक साथ आतंकी गुटों के खिलाफ कारवाई  करनी हैं तो  वह  केंद्रीय एजेंसी ही हो सकती हैं ,दूसरा कोई उपाय नहीं हैं । विरोध करने वाले स्वरों को  यह सत्य  जानना होगा ,और मंज़ूर करना होगा ।  

Feb 24, 2013

सत्ता का मद कैसे भटकाता हैं मर्यादा से


       सत्ता  का मद कैसे  भटकाता हैं मर्यादा से 
                                                                     कभी -कभी सत्ता में बैठे  लोग "राज धर्म" को  भूल जाते  हैं , इसकी दो घटनाये  हॉल में  प्रकाश में आई हैं ।  पहली हैं  साल भर से रिक्त पड़े सूचना   आ युक्त  के  पद के लिए  उम्मीदवार खोजने  की  और दूसरी घटना हैं भोपाल गैस त्रासदी  के अभियुक्तो  के लिए  सरकारी वकील ने  अदालत से मांग की  सभी अभियुक्तों  को ""प्रत्येक  मौत "" के लिए  सजा मिले , इसका मतलब हुआ की सैकड़ो  लोगो की मौतों के लिए  अदालत को सभी के लिए अलग - अलग  सजाये  दी  जाये ।  मुक़दमा  पूरे हादसे  के लिए  हैं ,वह भी एक , परन्तु  सजा की मांग हर  एक के लिए अलग -अलग ! 

                                                                            सूचना आयुक्त  के पद के लिए सरकार  के पास एक पैनल  में कई नाम भेजे जाते हैं , शासन उनमें से एक  व्यक्ति को चुन जाता हैं । पद  के लिए पात्र व्यक्ति  को जिला जज अथवा शासन में सचिव पद से अवकाश  प्राप्त  होना  चाहिए । अभी तक इस पद के लिए जिन लोगो का भी चयन हुआ वे किसी राजनीतिक  विचारधारा से जुड़े नहीं थे । अधिकतर  सरकारी अधिकारी  थे    । जिनके   किसी भी  राजनीतिक  विचारधारा  से जुड़े होने का  आरोप नहीं लगाया जा  सकता । परन्तु  पहली बार  सत्ता रूड  दल के  एक विधायक ने बाकायदा  मुख्य सचिव को पत्र लिख कर   कहा की  ऐ . च . अस  पटेल , जो अवकाश प्राप्त  कुटुम्ब अदालत , इंदौर  में प्रधान न्यायाधीस  रहे हैं , उन्हे इस पद पर  नियुक्त  करे क्योंकि वे मीसाबंदी भी हैं । अब अगर मीसाबंदी  होना ऐसे निकायों  के पदों पर नियुक्त  किये जायेंगे तो  शायदऐसे पदों के लिए  अभ्यर्थियों  की कमी हो जाएगी ।  

                                      अब  आप ही समझे की  क्या सरकार  के प्रतिनिधि  '""राजधर्म ""का पालन कर रहे हैं क्या ?

Feb 23, 2013

एक बार फिर गठित हुई किसान -मजदूर -प्रजा पार्टी



 एक बार फिर गठित हुई किसान -मजदूर -प्रजा  पार्टी  
                                                                                 २ २  फरवरी को किसान नेता शिव कुमार शर्मा ने भोपाल में किसान मजदूर -प्रजा पार्टी के गठन  की  घोषणा कर के मुझे एक बार देश की  राजनीती में पचास के दशक की याद दिला  दी । जब कांग्रेस  पार्टी के  कई दिग्गज नेताओ ने तत्कालीन पार्टी नेतृत्व की दक्षिण पंथी नीतियों के खिलाफ बगावत कर सर्वहारा  वर्ग के हितो की रक्षा के लिए किसान - मजदूर - प्रजा पार्टी का गठन किया था । इस पार्टी की स्थापना करने वाले सदस्यों में आचार्य नरेन्द्र देव - रफ़ी अहमद  किदवई -बसावन सिंह - राम मनोहर लोहिया एवं केशव देव मालवीय  आदि बड़े बड़े नेता थे । अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से सम्बंधित थे । 
                                            जिन इलाको में ज़मींदारी या ताल्लुकेदारी प्रथा जारी थी , वंहा पर व्यक्तिगत हितो की रक्षा के लिए नीतियों को वे लोग प्रभावित कर रहे थे , जो इन वर्गों से आते थे । काफी अंदरूनी  संघर्ष के उपरांत  पार्टी के शीर्ष  नेतृत्व ने भूमि सुधारो का मसला प्रदेश सरकारों के हिस्से में छोड़ दिया । अनेक प्रान्तों के नेता जो स्वयं बड़े - बड़े ज़मींदारथे उन लोगो ने  राष्ट्रीय  स्तर  पर इस मामले को टाले जाने   पर रहत की सांस ली थी ।    
                                    १ ९ ५ २  के आम चुनावो के लिए  जब तैयारिया  की जा रही थी तब यह स्पष्ट हो गया था की - कन्हा - कन्हा  भूमि सुधारो को  लागु किया जायेगा । उत्तर प्रदेश  में कांग्रेस पार्टी ने  ज़मींदारी और तालुकेदारी  को ख़तम करने का फैसला लिया था । तब पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त  ने  किसान मजदूर प्रजा पार्टी  के नेताओ से वापस पार्टी में लौटने का आग्रह किया था  । जिसके फलस्वरूप रफ़ी साहेब और केशव देव  मालवीय कांग्रेस पार्टी में लौट आये । जबकि आचार्य जी और लोहिया जी तथा बसावन सिंह   ने प्रजा सोसलिस्ट  पार्टी का जतान किया और  अपना चुनाव चिन्ह  झोपड़ी  रखा । इस बार शिव कुमार शर्मा  ने फिर एक कोशिस की हैं भविष्य ही बताएगा की  आगे क्या होगा ...........। 

Feb 20, 2013

आप से ''आम'' हुए पर जिद वही की जो कहे सही

आप से ''आम'' हुए पर जिद वही  की जो कहे  सही 
                                                                     अन्ना आन्दोलन के ख़ास  सिपहसलार  अरविन्द  केजरीवाल की पार्टी  आम  आदमी की पार्टी  के   तेवर  वैसे ही हैं जैसे लोकपाल बिल की  मांग के समय थे , जिद -एवं अहंकार  से भरपूर ।  भोपाल की अदालत में २०  फरवरी  को उनके तेवर दिखाई पड़े , पर अफ़सोस की पुलिस और अदालत ने उनकी एक न सुनी । 

                                                            किस्सा यूँ  हैं की अरविन्द की पार्टी के लोकल नेताओ ने मुख्या मंत्री के घर का घिराव किया और पुलिस के साथ झूमा झटकी की , लिहाज़ा  , उनके तीन नेता प्रह्लाद पाण्डेय ,शरद गुर्जर और जगदीश परमार  के खिलाफ  मुक़दमा पुलिस में दर्ज हुआ .। परिणामस्वरूप  अदालत इन नेताओ के विरुद्ध वारंट जारी कर दियॆ ,। तब इन लोगो ने अपने वारंट रद्द कराने  के लिए,  समर्थको  के साथ  जिला न्यायालय  परिसर में धावा दिया । कोर्ट रूम में उनकी अर्जी पर जमानत के आदेश भी हो गये । परन्तु ''आप''लोग तो बिला जमानत या मुचलका भरे ही रिहाई की मांग पर अड़  गए ,जब अदालत ने बिना जमानत दाखिल किये रिहाई को नामुमकिन  बताया । कागजात पेश करने में  आनाकानी को देखते हुए जज ने नेताओ को जेल भेजने का आदेश  दिए । इस पर तो उनके पंद्रह - बीस समर्थको  वाही पुराने नारे  शुरू कर दिए , की भ्रसटाचार  दूर करो  ,जिस से थोड़ी देर के लिए कोर्ट में अफरा -तफरी मच गयी  लेकिन उन्हे जेल भेज दिया गया । ''आप'' लोग  सभी कुछ अपनी शर्तो पर चाहते  हैं । जैसे लोकपाल बिल पर अड़ियल रुख था वैसा ही  हर मसले प[आर नहीं टी जिंदाबाद -मुर्दाबाद  शुरू ..........



Feb 18, 2013

संस्कृति की रक्षा के दो पैमाने

  संस्कृति की रक्षा के दो पैमाने  
                                   भारतीय  अथवा यह कहे की वैदिक संस्कृति की रक्षा का दावा करने वाले  संगठनो का  चेहरा  भोपाल में हुए दो आयोजनों के दौरान उजागर हो गया । जब शासन  द्वारा   रविवार  को स्वराज्य पार्क में  एक  विहंगम कार्यक्रम में जो ""राजा  भोज की स्मृति "" में आयोजित किया गया था , उसमें  संगीतकार  शंकर एहसान  लोय  ने  मंच से उद्घोसना की ""रॉक बेबी रॉक एंड ओनली रॉक "" पर  ""कन्याये "" थिरकती रही और लोग  ताली बजा ते रहे ।इसका आयोजन मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम द्वारा किया गया था , जिसमें सरकार  -संगठन के अलावा प्रशासन  के आला अधिकारी  परिवार जनों  के साथ सर हिला - हिला   कर और चुटकी  बजा कर प्रमुदित हो रहे थे ।  इस कार्यक्रम के दौरान मंच से  संगीतकार  शंकर  बारम्बार श्रोताओ  में से लोगो को  मंच पर आने  का  आग्रह कर रहे थे ,एवं उनके  इसरार पर  जीन्स कोट पहने लडकिया    रॉक एंड रॉक करती  रही  ।  हालांकि  कार्यक्रम  का शुभारम्भ  गणेश  वंदना से हुआ , परन्तु बस वंही  तक  ही वैदिक संस्कृति की उपस्थिति कही जा सकती हैं , क्योंकि उसके बाद  जो पश्चिम  की बयार  बही  तो वह काफी देर   तक   जारी  रही ।  संगीतकार  एहसान का भोपाल प्रेम उस समय उजागर हुआ जब  उन्होंने  डांस करती हुई लड़कियों  को  कॉम्पलिमेंट देते  हुये   जुमला जड़ा  की भोपाली वीमेन आर मोर  राकार दैन  मेन ।  इस पर युवाओ  की और से आइ  लव यू  शंकर की आवाजे गुजती रही ।   

                      वंही  एक शिक्षा  संसथान द्वारा आयोजित  वार्षिक उत्सवमें   बजरंगदल -संस्कृति बचाओ मँच  द्वारा धरना और नारे  बाज़ी  की गयी ।      बात यंहा तक  बढ  गयी की पुलिस को वंहा पर पानी की मार करने वाले  वाहन  ""वज्र " को तैनात करना पड़ा ।  वाकया  था  नेशनल  इंस्टिट्यूट  ऑफ़ फैशन  टेक्नोलॉजी  के वार्षिक आयोजन "फैशन  स्पेक्ट्रम  १ ३ "' का  । शहर  के बीचो बीच में स्थित ""समन्वय  भवन "" में  शनिवार  को हुए इस आयोजन को एक जेबी  संगठन के तथा कथित कार्य कर्ताओ  ने ""भारतीय संस्कृति पर हमला बताते  हुए नारे लगाते  हुए  हाल के अन्दर  प्रवेश कर के आयोजन को बंद करने की मांग करने लगे । घपले की आशंका  के कारण वंहा मौजूद पुलिस कर्मियों ने उन्हे दस मिनट  तक तो विरोध प्रदर्शन करने  दिया , उसके बाद उनको बाहर  खदेड़ दिया ।   जंहा इंतज़ार कर रहे  मीडिया के कैमरे मैनो  को उनके नेता ने  बताया की फैशन शो  हमारी भारतीय सभ्यता के  विरुद्ध हैं , हम इसको नहीं चलने देंगे ।  लगभग आधे घंटे चले इस नाटक  के बाद , हॉल के अंदर कार्यक्रम  जारी हुआ । "निफ्ट " - छात्राए केंद्र का एक शिक्षण  संसथान हैं , और वार्षिकोत्सव  ऐसे आयोजन  निजी होते हैं सब लोग  वंहा पर आमंत्रित  नहीं होते हैं ।   विशेषकर  संस्थान  के छात्र - छात्राए  साल भर  में  अपने  किये हुए बेस्ट "' को दिखाते  हैं , जैसे  स्कूल में "प्रोजेक्ट " होते हैं  । चूँकि यह" बड़ी ''' क्लास हैं  इसलिए इसको "प्रेजेंटेशन'" कहते हैं ।अब  अगर संस्कृति को "" बचाने ""का यह ढंग  हैं तो इन्हे निफ्ट  को ही बंद कराना  होगा । क्योंकि  यह टेक्निकल कौर्स  हैं ।जिसमें  छात्र -छात्राए डिग्री   लेकर  जीवन के संघर्ष  में उतरते  हैं । अब   छात्र - छात्राओं  से तो जोर -ज़बरदस्ती  दिखा ली , परन्तु सरकारी आयोजन में जाने की हिम्मत इन संस्कृति बचाओ  आन्दोलन में नहीं हैं ।  
                                                                  यही हैं  इन संस्कृति के रखवालो के दो पैमाने , जंहा  आपने से ज्यादा मज़बूत हुआ उधर से आँख फेर ली ,और जिधर कोई कमजोर  दिखा उसे गुर्रा कर डराने लगते हैं ।झ्य़ाडा कमजोर हुआ तो हाथ पैर चला कर मार  पीट करेंगे । ये कौन हैं अब आप भी समझ गए होंगे और इनकी ताक़त का भी अंदाज़ भी लग गया होगा । 







                 

Feb 15, 2013

धर्म में आस्था एवं राजनीती में नैतिकता



धर्म  में आस्था एवं  राजनीती में  नैतिकता 
                                                               इलाहाबाद या कहे प्रयाग में हो रहे कुम्भ के पर्व में वैदिक धर्म के मानने वाले सैकड़ो करोडो सनातनियो ने अपने विश्वास  के कारण पतित पावनी गंगा में तथा  काफी लोगो ने गंगा -यमुना -विलुप्त सरस्वती की त्रिवेणी में डुबकी  लगा कर पुण्य कमाने का लाभ आर्जित किया । कुम्भ  में साधुओ  के विभिन्न अखाड़ो ने वंहा एक अभिराम दृश्य उपस्थित किया हैं । विदेशियों  के लिए  यह विश्व का सबसे बृहद  आयोजन हैं , देशी - विदेशी मीडिया के लिए भी यह एक माह तक चलने वाली" इवेंट" हैं । एक अनुमान के अनुसार लगभग तीन करोड़ से अधिक लोगो द्वारा  स्नान किये जाने की सम्भावना हैं । इसे जंहा  आमजन एक ""पर्व ""मानता हैं ,वंही  शासन के स्तर  पर ""मेले "" का नाम दिया गया हैं । रेल से बसों से और अन्य वाहनों द्वारा पहुँच रहे  इस महती मानव समुदाय की व्यस्था काफी कठिन उत्तरदायित्व हैं । वह इन श्रधालुओ के रहने भोजन- स्वास्थय -शांति व्यस्था का इन्तेजाम वैसा ही हैं जैसा की राज्य चलाना । 
                                              संभवतः धरम गुरुओ को इस आयोजन मेंअपनी   उपस्थिति दर्ज करना इसलिए ज़रूरी होता हैं की वे ""भी अभी  इस  धार्मिक समागम में हैसियत रखते हैं ""।इसिलिये   सिंहासन -पालकी -में सवार इन "" महा  मंडलेस्वरओ " की सवारी  देख कर यह पता चल जाता हैं की  भूतपूर्व राजा -महाराजो की सवारी कैसी रहती होगी । उनका तो राज्य  भारतवर्ष  में विलय हो गया , पुर उनके प्रिवी पर्स  इंदिरा गाँधी ने ख़तम कर के  उन्हें भी आम आदमी की बराबरी में खड़ा कर दिया -परन्तु उनकी विरासत को  इनके समारोह चलन में देखा जा सकता हैं । 

   एक सवाल यह हैं की राष्ट्र की सामाजिक एवं धार्मिक एकता का प्रयास हज़ार वर्ष पूर्व  आदिगुरू  शंकराचार्य द्वारा  चारो दिशाओ  में ""पीठो ""  की स्थापना के रूप में हुआ था  । उन्होने में समाज में जाति   के आधार  पर  उंच नीच एवं भेद को समाप्त करने के लिए ,तथा धर्म के वास्तविक स्वरुप  को सबके समक्ष रखा था । यंही कारण  था की चार वेद   आधारित धर्म   को एक सूत्र में पिरोने के लिए इन 'पीठो'' के जिम्मे एक -एक वेद  कर दिया । उन्होंने स्वयं शैव  होते हुए भी  वैष्णव  तथा शक्तियों की उपासना में रचनाये लिखी । नौ वर्ष की आयु  में उन्होंने अपनी पहली रचना कनकधारा स्त्रोतम से जग को परिचित कराया । एक विधवा ब्राम्हणी  की आर्त  स्थिति पर  धन की देवी लक्ष्मी  की स्तुति में लिखी थी ।  जिस अवतार स्वरूप  मानव ने वैदिक धर्म को भारतवर्ष में पुनः स्थापित किया  , एवं धर्म के नाम पर चल रही कुरीतियों का नाश किया ,उसी के देश में ""कुम्भ ""ऐसे पर्व के अवसर  पर  भिन्न - भिन्न प्रकार के नामधारी  बाबाओ और कलंकित मंडलेस्वर तथा महा मंडलेस्वर  पालकी पर  नरेशो की भांति निकल रहे हैं । वे धर्म के कम धार्मिक  आवरण के  प्रतीक  ज्यादा लगते हैं । बहुसंख्यक  जन आस्था के वशीभूत  हो कर यंहा आते हैं और धर्म  के इन ठेकेदारों  को 'भेंट'   अर्पित  करते हैं , । 

                                                 प्रश्न हैं की कषय  वस्त्र धरी किसी धर्म गुरु ने यह महसूस नहीं किया की एक महान मत की किया दुर्दशा हो रही हैं ? आराध्य -आराधना एवं करमकांड की राह होते हुए स्तुति  संकल्प -साधना की दिशा में परमार्थ करें । ऐसा कोई नहीं कह रहा वरन मठ  एवं मत के आयोजन के लिए  धन मांगने की कोशिस हो रही हैं काफी कुछ सफल भी हो रही हैं । त्याग की टेर  लगाने वाले जितना सम्पति का संचय कर रहे हैं , वह लज्जाजनक हैं  । नेता को कोसने वाले और गाली निकालने  वाले  इन धर्म धुरंधरो  का नैतिक आधार क्या हैं ? 

                                                   राजनीती में अब तक अनेक गेरुआ वस्त्र धारियों ने किस्मत आजमाई हैं ,लेकिन एक - दो बार से ज्यादा कोई नेता नहीं बना रह सका । हाँ स्वामी जरूर बना रहा वह भी अंत समय तक  । अब संसद या विधायक तो आदमी तभी तक रहता हैं जब तक जनता उसे चुनती हैं । पर स्वामी जी का खेल तो नॉमिनेशन पर अथवा स्वयंभू  डिक्लेरेशन पर हैं । कोई कुम्भ में एकत्रित हुए तथा कथित ""संत समाज "" से पूछे की आदि गुरु ने तो सिर्फ चार शंकराचार्य बनाये गए थे , पर अब तो तीस से ज्यादा हो गए हैं । उत्तर - दक्षिण -पूर्व -पश्चिम दिशाओ के लिए बनाये गए स्थानों की जगह अब छेत्र -छेत्र  में हो गए हैं । यह वैसे ही हैं जैसे हर जिले को राज्य का दर्ज़ा दे दिया जाए । एक हैं स्वामी राम देव , अब वे दवाओ  का धन्धा भी करते  हैं ,बाकायदा कंपनी बना कर । खूब  विज्ञापन में आते हैं "योग"सिखाते हैं टीवी पर और बड़े बड़े लाइनर पर जंहा  ५०  हज़ार से ढाई लाख रुपये एक व्यक्ति का महसूल होता हैं , वंहा पर दंड -कमंडल स्वामी जी योग सिखाते हैं । वैसे इनका पार्ट टाइम हॉबी "पॉलिटिक्स" हैं । सभी जन नेताओ को    इन्होने बेईमान और भ्रष्ट का "फतवा"काफी दिनों से दिया हुआ हैं । अब इनकम टैक्स के छापो से परेशां हैं    ये  क्योंकि विदेश में एक आइलैंड के मालिक हैं , जिसका जिक्र तक  इन्होने  अपने बही -खातो में नहीं किया हुआ था। वैसे  इनकी पहुँच  काफी "ऊँचे"लोगो तक हैं । कांग्रेस से खासी नाराज़ हैं । उधर स्वामी नित्य नन्द जिन्हें  कर्नाटका  पुलिस ने अनेक महिलाओ की शिकायत पर ""दुराचार" और बलात्कार  के जुर्म में गिरफ्तार किया था । इस जुर्म के कारन उन्हे अपना ""मठ "" और पद छोड़ना पड़ा था । उन्हे ""निर्वाणी "" अखाडा ने महा  मंडलेश्वर  बना दिया हैं ।यह सभी खासो - आम को मालूम हैं की यह "उपाधि" पाने के लिए काफी -काफी धन राशी खर्च करनी पड़ती हैं ।अब ऐसे """धर्म  धुरंधरो ""  को  कौन  मर्यादा या नैतिकता  का सबक बताएगा ? ये तो ""सर्वज्ञ" हैं 

Feb 14, 2013

आतंक - अशांति -अपराध को सबक --फांसी



 आतंक - अशांति -अपराध को सबक --फांसी 
                                                                       कसाब और अफज़ल गुरु ऐसे आतंक वादियों को सजाए मौत तामीर होने  के बाद अब शायद नम्बरउन लोगो का हैं जो अशांति फ़ैलाने के कसूरवार हैं । इस कड़ी में चन्दन के माफिया वीरप्पन  के चारो  साथियों की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किये जाने की खबर से ही , भुल्लर और रजोअना  के हिमायतियो ने विरोध करना शुरू कर दिया हैं ।शिरोमणि अकाली दल से जुड़े कुछ नेताओ ने तो यंहा तक बयान  दिया हैं की वे ""किसी भी हालत में भुल्लर और राजोआना   को फांसी नहीं होने देंगे । पद कर अचरज  होता हैं की दया याचिका खारिज होने के बाद भी वे कैसे इन अपराधियों को फांसी के तखत  पर जाने  से कैसे रोक सकते हैं ?  केवल एक रास्ता हैं की वे तिहाड़ जेल पर हमला कर के उन्हे छुड़ा  ले जाए । पर ऐसा होने की उम्मीद काम हैं , क्योंकि अभी शांति - व्यवस्था  इतनी  ख़राब नहीं हुई हैं की ऐसे काम कोई अंजाम दे सके । लेकिन पंजाब की अकाली राजनीती के लिए '''खालिस्तान"" का मुद्दा  वैसा ही हैं जैसा ""आजाद कश्मीर "" । इसलिए चाहे  पी डी पी  की महबूबा  मुफ़्ती हों या अकाली दल के लोग उन्हे स्थानीय लोगो की भावनाए  जाति  -धरम अथवा छेत्र के नाम पर ""कॅश " करना चाहते  हैं | सारा विवाद वोट बैंक का हैं । 
                                                             दरअसल  राष्ट्रीय राजनितिक पार्टियों  का आधार मतदाता खिसक रहा हैं उसका मूल वज़ह हैं की छेत्रिय दलो  को  राष्ट्रीय मुद्दों से कुछ लेना देना नहीं होता ।इसलिए की  उनका आधार  तो चटपटे  और सनसनीदार  मुद्दों को उछालना होता हैं ।आम मतदाता  इन हवाई मुद्दों से बहक भी जाता हैं ।फलस्वरूप  "गठबंधन की सरकारे  बनती हैं । वास्तविक विकास के मुद्दे पीछे चले जाते हैं । 
                                                                           कश्मीर और पंजाब में यही कारन हैं की  फांसी की सजा को एक मुद्दा बनाया जा रहा हैं । जबकि न्यायिक  प्रक्रिया के द्वारा  प्राणदंड दिया गया हैं , और दया याचिका भी इसी प्रक्रिया का भाग हैं  । अतः कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सुर करीब- करीब   एक जैसे हैं  वंही  छोटे  दलों  की आवाज एकदम बदली हुई हैं । 
         अफज़ल को फांसी से पहले परिवार वालो से मिलने का  मौका  नहीं दिया जाना एक शिकायत हो सकती हैं परन्तु  उसके शव की सुपुर्दगी  मागने के पीछे  कोई अच्छा  कारन नहीं हैं , क्योंकि शव देने के बाद  घाटी  में अशांति का  जो माहौल बनता  उसको उमर अब्दुल्ला की सरकार     पर ही खतरा होता ।तब जगह - जगह  पर प्रदर्शन होते जो हिंसक भीड़ में तब्दील  हो जाते और शांति - व्यवस्था  बनाये रखने के लिए फ़ौज को गोली चलानी पड़ती  ,क्योंकि वंहा लाठी और आंसू गैस का तो कोई मतलब ही नहीं हैं ।  ऐसे में भारत सरकार को आलोचना का शिकार होना पड़ता वह भी गुनाह  बेलज्जत । क्योंकि गोली के बिना वंहा शांति नहीं स्थापित होती ।  अब ऐसे में अगर शव को तिहर जेल में ही दफ़न कर दिया गया तो बहुत से लोगो की जान बच  गयी । 
                                            अब चन्दन माफिया वीरप्पन के चार सहयोगियों  की दया याचिका ठुकराए जाने से यह अंदाज़ लगाया जा रहा हैं की कभी  कर्नाटक और केरल में आतंक का पर्याय बन गए वीरप्पन के साथियों  के अंत से जंगल  माफिया का अंत भी हो सकेगा ।  

Feb 11, 2013

क्या लेखा परीक्षक सरकार की नीतियों की समीक्षा भी करेगा ?

क्या   लेखा  परीक्षक सरकार  की  नीतियों की समीक्षा भी करेगा ? 

                      यह सवाल अमेरिका की यूनिवर्सिटी में  नियंत्रक  लेखा परीक्षक विनोद रॉय द्वारा दिए गए एक लेक्चर से उत्पन्न हुआ हैं , उन्होंने कहा की  सी ए जी  सिर्फ खाते बही को देखने का काम ही नहीं करती ,वरन वह यह भी देखती हैं की जनता का  धन सरकार द्वारा उचित लक्ष्यों के लिए खर्च  किया जा रहा हैं ,और इस खर्च में कोई अनियमिता  तो नहीं हो रही हैं ।इस बयान ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं । सवाल हैं की चुनाव आयोग अथवा सुप्रीम  कोर्ट , आदि निकाय का गठन भारतीय संविधान के तहत हुआ हैं ।इन सभी के अधिकार और दायित्वों को लेकर एक ''चार्टर ''होता हैं जो इन सभी के अधिकारों और उनकी सीमाओ  को स्पष्ट करता हैं  अपेछा  यह रहती हैं की सभी निकाय एक संतुलन बना कर चलेंगे जैसे की ब्रम्हांड में सभी गृह अपनी -अपनी धुरी पर ही चलते हैं वैसा ही संवैधानिक निकाय आचरण करेंगे ।

                        गणतंत्र में संविधान ही अंतिम हैं ।शक्तियों के विभाजन में कानून बनाने का अधिकार चुनाव आयोग के द्वारा कराये गए निर्वाचन में चयनित प्रतिनिधियों को दिया गया हैं ।संसद का गठन इसी से होता हैं ।सरकार  का गठन इन्ही चुने गए सांसदों अथवा //विधायको  द्वारा होता हैं  । विवाद के निपटारे और न्याय  के लिए  सुप्रीम कोर्ट का गठन किया गया  हैं , जिसमें सरकार की निर्णायक भूमिका होती हैं ।शासन के अन्य सभी  महत्वपूर्ण निकायों कागठन अथवा उनमें नियुक्ति का अधिकार  मात्र  संसद अथवा विधान सभा के प्रति उत्तरदायी सरकार  का होता हैं । किसी ऐसे निकाय का नहीं जो खुद व्यस्थापिका चहिये या सरकार द्वारा चयनित हो । यह एक अलिखित  सिधान्त   हैं ।  ऐसा  इसलिए  हैं की देश की प्रभुसत्ता सरकार   के हाथो में होती  हैं , ।

                                            इन स्थितियों में कोई भी निकाय अगर  नीतियों की  परीक्षा करने लगे तो एक विरोधाभास  खड़ा हो जायेगा ।क्योंकि नीतियों का परिक्षण संसद में होता हैं ,जंहा  होनाभी चहिये । वैसे  सुप्रीम कोर्ट  भी न्यायिक समीक्षा  कर सकता हैं ।परन्तु ऐसे अवसर बिरले ही होते हैं । किसी भी अन्य शासकीय फौरम पर  नीतियों पर टीका -टिपण्णी करना  अपने अधिकारों का अतिक्रमण करना हैं ।    जैसे की मंत्रिमंडल में  सामूहिक  उत्तरदायित्व का सिधान्त  होता हैं ,परन्तु  वंहा भी  फैसले कोई वोटिंग कराकर नहीं होते वरन एक सहमती बनाने का प्रयास होता हैं ।अगर  किसी मुद्दे पर असहमति  हो -तब दो ही विकल्प होते हैं  ,पहला विषय को एजेंडे  से बाहर  कर देते हैं अथवा  प्रधान मंत्री अथवा मुख्य मंत्री  विशेषाधिकार का उपयोग करते हैं ।तब विमत रखने वाले के पास इस्तीफा  देने का एक मात्र विकल्प होता हैं ।अन्यथा उसे भी  सहमत  होना होता हैं ।
                                 यह लिखने का अभिप्राय यह हैं की  ''चार्टर '' में दिए गए  ''कार्य'' के बाहर  जाने का हक नहीं हैं ।यंहा पर ''आम  आदमी'' पार्टी की मांग का उल्लेख  करना चाहूँगा  , वे कहते हैं की  सी ब़ी आइ  को सरकार  के नियंत्रण से बाहर  किया जाए ,फिर वह किसके नियंत्रण में रहेगी  संसद या सीधे राष्ट्रपति ? आज वह प्रशासनिक रूप से शासन के नियंत्रण में हैं  ।अधिक से अधिक उसे चुनाव आयोग का दर्ज़ा  दिया जा सकता हैं । तब क्या सब अनियमितताए  ख़तम हो जाएँगी ? सुप्रीम कोर्ट  हैं पर क्या  सबको न्याय मिल रहा हैं ? चुनाव आयोग ने धनबल -बाहुबल  के  चुनाव में इस्तेमाल की शिकायत की ,पर क्या वह समाप्त हो गया ? 
        
                     अंततः संसद को ही कानून बनाना पड़ता हैं ।अतः विनोद रॉय जी को या तो  विमत उजागर कर पद त्याग करना देना चहिये  अथवा  अपनी शिकायतें सरकार  को लिखनी होगी ,क्योंकि वे ही उस पर कारवाई             करेंगे ।   वर्ना  लगता हैं की वे भी पूर्व सी ए ज़ी  टी एन चतुर्वेदी  की भांति  गवर्नर और बाद में  राज्य सभा के सदस्य  हो जायेंगे । चतुर्वेदी  ने ही ''बोफोर्स  '''का पटाखा निकाल  कर कहा था की यह बहुत बड़ा बम  हैं । इस से अधिक क्या लिखू .............।

Feb 10, 2013

नाबालिग जननी और जनक ?

      नाबालिग  जननी और जनक ? 

                                         दामिनी बलात्कार काण्ड के छठे आरोपी , जिसको एक मात्र चश्मदीद  गवाह ने  उसकी हत्या का मुख्य दोषी  बताया हैं ।उसके अनुसार इसी ''नाबालिग '' के  पाशविक कृत्य ने दामिनी को मौत  के दरवाजे  पहुंचा दिया ।सवाल हैं की क्या जब एक नाबालिग लड़की जननी बन सकती हैं और उसके होने वाले बच्चे का बाप भी 17 वर्ष का हो तो क्या उन्हे सिर्फ बाल सुधार  गृह भेज कर कानून का   कर्त्तव्य पूरा हो जाता हैं ? मेक्स्सिको की एक खबर के अनुसार 27 जनवरी को नौ  साल की एक लड़की ने 5 पौंड  के बच्चे को जन्म दिया । अधिकारियो के  अनुसार  इस बच्चे का जनक 17 वर्ष का  ""बालक""हैं ।अब वंहा के शासन के समक्ष  भी यही प्रश्न हैं की क्या किया जाए ?  लेकिन वंहा अधिकारियो ने फैसला किया की ''बालक'' को रपे के जुर्म में  चालान  किया जायेगा । मैं भी इसलिए यह लिख रहा हूँ , क्योंकि दामिनी के  अपराधी  को अनावश्यक रूप से  ''नाबालिग''' बता कर उसके दोष को हल्का करने की अनचाही  कवायद की जा रही हैं । 
                                     मेरा मत हैं की अपराध की गंभीरता  को देखकर  ही  यह तय करना चहिये की ''कुकृत्य''' नाबालिग द्वारा किया गया हैं ,अथवा  यह बालिग कुकृत्य  कम उम्र के द्वारा किया गया ''बालिग ''' अपराध हैं । अब अगर नाबालिग किसी बच्चे का बाप बना हैं तो उसे यह रियायत  तो कतई नहीं मिलनी चाहिए की वह तो एक ""बच्चा ""हैं । क्योंकि  अगर बलात्कार वह भी पाशविकता पूर्ण ढंग से किया गया तो ऐसे को  नाबालिग तो कतई नहीं मन जाना जा सकता । मेक्स्सिको के मामलेमें  वंहा  अधिकारियो ने अपराध  की किस्म  को देखते हुए उस 17 वर्षीय  ''बाप'' को बलात्कार का दोषी करार दिया हैं उसी प्रकार दामिनी के मामले में भी किया जाना चाहिए  ।जेंह तक यू एन ओ के चार्टर का सवाल हैं तो मेक्सिको  भी उस चार्टर पर हस्ताछर  करने वाला देश हैं । फिर अगर वह बालिगो द्वारा किये जाने वाले   अपराध को देखते हुए  दोषी को इस तथ्य फायदा उठाने  की इज़ाज़त  नहीं दे  सकता की करने वाले की उम्र 18 साल नहीं हैं  और वह ''बालिग '' नहीं हैं । इसका मतलब तो सीधा सा यह हुआ की  उसने बलात्कार  नहीं किया वरन हलकी - फुलकी मारपीट की हैं ,जिसकी सजा तीन साल हैं । 

जननी ही जन्म का आखिरी प्रमाण हैं ।

 जननी  ही जन्म  का आखिरी  प्रमाण हैं ।
                                                           दिल्ली  में हुए लोमहर्षक  बलात्कार के छह आरोपियों में छठे आरोपी की उम्र  को लेकर उठे विवाद ने  अनेक या बहुसंख्यक लोगो को  इस बात से निराश किया की उस हिंसक आदमजात को नाबालिग  साबित करने की  कोशिश हो रही हैं । जबकि उसके जन्म  की तिथि  को साबित करने के लिए उसके स्कूल  का प्रमाणपत्र  दाखिल किया गया हैं । जबकि स्कूल के प्रिंसिपल ने यह मन हैं की उसके  जन्म  का कोई प्रमाणपत्र  उसके  भर्ती के समय नहीं दिया गया  था । केवल उसके संरक्षक  के कहने पर ही उसकी जन्म  तिथि वह लिखी गयी जो उन्होने कहा । अब ऐसे में सवाल उठता हैं की क्या किसी के कहने से जन्म  की तिथि को प्रमाण मान लेना कान्हा से निर्णायक होगा ?

                                           अभी हाल में छठे आरोपी की माता  ने एक समाचारपत्र  को दिए इंटरव्यू में मंजूर किया हैं की जो तिथि स्कूल में लिखाई  गयी हैं ,वह वास्तविक नहीं हैं ।उन्होने अपने  बयान में माना हैं की आरोपी  की उम्र 18 वर्ष से अधिक हैं । आश्चर्य हैं की दिल्ली  पुलिस  ने  उनसे कोई पूछताछ  नहीं की हैं , लेकिन क्यों ? क्यंकि जन्म देने के बारे में ''जननी'' से बड़ा कोई गवाह नहीं होता हैं ।क्योंकि वही  तो जन्म  देने की पीड़ा  को सहती हैं । फिर  क्यों नहीं सत्य जानने  के लिए उसकी माँ से  पूछताछ  की जाती हैं ? अगर ऐसा नहीं हुआ तो ''दामिनी'' को सर्वाधिक  दर्द  पहूचाने  और उसकी ''हत्या'' का कारण  था , वह सिर्फ तीन साल की क़ैद  की ''हलकी'' सजा पाकर बच  जायेगा  ।  जिसके लिए हम सभी जिम्मेदार होंगे  । जिन्होने बलात्कार की घटना के खिलाफ आवाज को बुलंद  किया और देश-विदेश मैं उसकी गूंज सुनाई पड़ी ।अब हमारी कोशिस होनी चाहिए  की वास्तविक  गुनाहगार को फांसी  के  तखत  पर पहुंचा सके  , अन्यथा सारी कसरत  बेकार हो जाएगी ।  

Feb 5, 2013

धर्म का डर कब तक सरकारों को सताएगा ?

 धर्म के नाम पर मनमानी का सिलसिला शायद  तब शुरू हुआ होगा जब किसी ने अपने को परमेश्वर समझा होगा । क्योंकि उसे  इस संसार में उस शक्ति के रचित  स्त्री - पुरुषो  को अपनी लाठी से हांकने का गुमान हुआ होगा । अन्यथा उसी के संसार में उसी की रचनाओ से नफरत की सीख  तो, तो कोई उस शक्ति को मानने  वाला नहीं दे सकता । अपने  को दूसरो से श्रेष्ठ समझने का अहंकार  ही मानव समाज में भेदभाव और ऊँच  नीच का  सिधान्त  लोगो को समझाएगा ।सभी धर्मो में यह बुराई  रही हैं और हैं , उम्मीद करना होगा की आगे यह खत्म हो जाए                                                                              अभी हाल में हुई कुछ घटनाओ ने ऐसा ऐसा  संकेत दिया मानो सरकार ने  समाज और धर्म के ठेकेदारों को  धर्म और  रीति -रिवाजो के नाम पर देश के कानून का मजाक  बनाने का परवाना दे  दिया हैं ।एक मसला  मध्य प्रदेश के धार  जिले का हैं दूसरा कश्मीर के ग्रैंड मुफ़्ती  बशिरुदीन  के  फतवे का हैं ।स्वामी नरेन्द्रानंद ने  प्रयाग में एक पत्रकार वार्ता में धमकी दी हैं की भोजशाला में बसंत पंचमी को अगर पूजा करने से रोक गया तो वे ''संत समाज ''को लेकर धार की और कूच करेंगे ।वंही मुफ़्ती ने लडकियों के एक बैंड को  गैर इस्लामी बताते हुए कहा की इस्लाम में संगीत की इज़ाज़त नहीं हैं । हैरत की बात हैं की श्री नगर में नब्बे फीसदी घरो में टी वी  हैं , तो क्या  वे लोग सिर्फ खबरे ही सुनते हैं ? क्या  संगीत या डांस के कार्यक्रम के समय सेट को बंद कर दिया जाता हैं ? वंही  स्वामी नरेन्द्रानंद  को सिर्फ अपने धर्म की याद हैं -राजधर्म की परवाह नहीं हैं ? जिसके अनुसार राज्य अपने सभी नागरिको को  कानून के दायरे में रह कर अपने ढंग से जीने की आज़ादी देगा । अब वे कह सकते हैं की हम भी अपने  तरीके से पूजा करना चाहते हैं । पर वह स्थान मुसलमान  भाइयो के नमाज़ की जगह हैं ।क्या मुस्लिम आक्रंताओ  द्वारा जिस प्रकार मंदिरों को गिराया गया उसी के बदले में हम उनके पूजा स्थल पर कब्जा करें? 
                                                 मुफ़्ती के फतवे पर में यही कहना चाहता हूँ  की वे पाकिस्तानी फिल्म ""खुदा के लिए ""जरूर देखे उसमें भी कुछ कठमुल्ला  मौलवियों ने संगीत को "'कुफ्र"' बताया था । जिसके जवाब में एक उदारवादी  मौलाना ने हदीस से उदहारण देते हुए बताया की पैगम्बर  दाउद  के संगीत पर तो पशु - परिंदे भी चले आते थे , तो क्या वे कुफ्र कर रहे थे ? क्या एक पैगम्बर कुफ्र कर सकता हैं ? इस सवाल का जवाब उन मौलवियो  के पास न था । अगर मुफ़्ती की बात में दम हैं तो उज़्बेकिस्तान और अज़रबैजान  मैं जो सूफी परंपरा हैं वह भी कुफ्र हैं ? हमारे यंहा  के ओलिया की दरगाहो पर होने वाली कौवाल्ली  भी  क्या गुनाह नहीं हो जाएँगी   , बशिरुदीन के फतवे की नज़र से ?विगत छह -सात सौ सालो का तो  लिखित इतिहास हैं  जिसमें दरगाहो पर संगीत की बात की पुष्टि होती हैं , अब या तो मुफ़्ती साहेब सही नहीं हैं अथवा ''वो लोग '' गलत थे , अगर ऐसा हैं तो  उन्हे यह कहना होगा की अभी तक जो हो रहा था वह गैर इस्लामिक था  ।क्या वे ऐसा कर पाएंगे ? वैसे इस्लामिक धर्म ग्रंथो के बारे में आखिरी  ''रॉय ''  अलेक्ज़ेन्ड्रिया  का दारुल-उलूम हैं , क्या वंहा से इस फतवे  पर सनद लगवा  सकते हैं ? क्या मुफ़्ती साहेब इस बात से इंकार कर  सकते हैं की अज़ान में एक संगीत हैं जो लोगो के कानो में एक रूहानी फूंक   होती हैं ? 
                         कुछ ऐसे ही कट्टर बयानबाजी  अक़बरुदीन  ओवासी  ने की थी की '''अगर पंद्रह मिनट के लिए पुलिस को चुप बैठने को कह दे तो ''हम''दिखा देंगे की  अपने से चार गुना ज्यादा लोगो को [उनका इशारा सनातनी हिन्दुओ की और था ] सबक सीखा  देंगे । अब उनकी अक़ल  को क्या कहे  , की वे इस बयान  को देकर  एक बार फिर मुसलमान  भाइयो को खतरे में डाल  रहे हैं  ,और इस बार उनके लिए ना  तो  पाकिस्तान तैयार होगा और बंगला देश में तो उनके लिए जगह नहीं हैं । फिर जायेंगे ? कंहा? कुछ ऐसा ही गैर जरूरी बयान जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी दिया  , उनका कहना था की  ""इस्लाम में सेक्युलर वाद की जगह नहीं हैं "" । इस्लाम में तीन तरह के राज्य बताये गए हैं  , दारुल इस्लाम  जंहा  शरिया कानून चलता हैं ।दूसरा हैं दारुल अमन  जंहा मुस्लमान अज़ान दे सकता हैं   और नमाज़ अदा कर सकता  हैं  और तीसरा हैं दारुल हरब  जंहा अज़ान और नमाज़ की पाबन्दी हो ।आज के समय  में   इजराएल  में भी नमाज़ की आज़ादी हैं । रही बात इस्लामिक स्टेट्स की तो वंहा भी  दो तरह से यह लागु हैं कुछ  राज्य हैं जो इस्लाम को राजधर्म तो मानते हैं पर उनके यंहा  शरियत का कानून नहीं चलता । ऐसा ही एक मुल्क हैं  इंडोनेशिया -मलेसिया जंहा इस्लामिक राज्य में भी मंदिर हैं वंहा घंटे -घड़ियाल बजते हैं जैसे यंहा पांचो वक़्त की नमाज़ की अज़ान होती हैं । वंहा कानून की नज़र में सब एक सामान हैं गवाही भी औरत -मर्द की बराबर होती हैं  ।दूसरी और सऊदी अरब  हैं जंहा शरियत का ही कानून हैं ।,  अब इन राज्यों को शाही इमाम क्या कहेंगे की ये काफिर हैं ?उन्होंने तो यंहा तक उम्मीद जाता डाली की जब ''हम'' हिंदुस्तान में  आबादी में  ज्यादा हो जायेंगे तो  सेक्युलर संविधान को ख़तम कर देंगे । अब इस बयान  पर बहुसंख्यक  आबादी का खून नहीं खौलेगा  की क्या इसीलिए  मुसलमान   परिवार नियोजन नहीं अपनाते ? एक दूसरी पाकिस्तानी फिल्म हैं ''बोल'' जिस में चौदह बच्चो में सात लड़कियां  थी , उन्हे भी  परदे में रख कर तालीम नहीं दिलाई गयी ,और गरीबी में परिवार  पिसता  रहा।  गलती से लड़की के हाथो पिता की मौत हो गयी ।फांसी की सजा के पहले  उसनेअपनी  दास्ताँ मीडिया के सामने बयां की , और सवाल किया की जब परवरिश  नहीं कर सकते तब क्यों [बच्चे]पैदा करते हों ।
                                                                                           अगर ऐसी फिल्मे  पाकिस्तान जैसे इस्लामिक स्टेट में दिखाई जा सकती हैं तो यंहा का मुस्लमान क्यों   विस्वरूपम के कुछ  शॉट्स पर हाय -तौबा मचाता हैं ? क्यों नहीं  हमारी सरकार स्वामी नरेन्द्रानंद और मुफ़्ती बशिरुदीन या ओवासी  के खिलाफ कड़ा  रुख  अपनाती  ?  दूसरो की ज़िन्दगी में दखल देने का हक,  धर्म के नाम पर इन्हें  कैसे  हासिल हैं ?
                                                                          यह सवाल भा  जा प्  या कांग्रेस का नहीं हैं  यह इस तथ्य का हैं की धर्म गुरु या ''खाप'' लोगो को कब तक डराते  रहेंगे ? कब तक लोग इनसे सिमटे रहेंगे ,क्या दामिनी के बलात्कार  की घटना के बाद उमड़ा महिला समाज आज फिर इन तीन कश्मीरी  लडकियों को उन्हे आज़ादी से जीने का हक दिलाने के लिए उठ खड़ा होगा  ? जवाब आप को हमको देना होगा ।और सरकार को दिखाना होगा की बोलने की आज़ादी  का मतलब बकवास की इज़ाज़त नहीं हैं । अगर ऐसा नहीं हुआ तो  बहुसंख्यक का बारूद फटेगा और सरकारे नेस्तनाबूद हो जाएँगी । 

Feb 3, 2013

ANNA KS DUM TODTA IMAANDAR AANDOLAN

अन्ना  का  दम तोड़ता   ईमानदार  आन्दोलन 
                          अन्याय और भ्रस्ताचार के खिलाफ शुरू की गयी  जंग का जिस धूम-धाम से  प्रारंभ  हुआ था  उसने साल भर बाद ही दम तोड़ दिया ।मैंने  अपने ब्लॉग  में लिखा था की अरविन्द केजरीवाल और  किरण बेदी  ही इस मुहीम  की हवा निकालने वाले  साबित होंगे , वही  हुआ भी ।मेरे लिखने का आधार  था की सरकारी नौकरी से रिटायर  हुए लोगो के लिए राजनीती और आन्दोलन भी एक हॉबी ही होते हैं ।जिसमें कोई कठिनाई  सामने आते ही वे समझौते  का रास्ता  निकालने   लगते हैं ।वही  हुआ ,अब भी अन्ना  एक रिटायर और विवादित सेना के अफसर  के चंगुल में हैं । जिन्होने अपनी उम्र को लेकर सरकार  और सेना को अदालत के कठघरे में खड़ा कर दिया था । जिस आदमी ने   एक साल की  सेवा अवधि के लिए सेना और सरकार  के सम्मान का ध्यान नहीं रखा उस से देश की जनता के हितो की देखभाल किये जाने की कल्पना भी कठिन हैं ।

                               फ़िलहाल तो अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पार्टी बना ली हैं और उसके लिए वे देश तो देश विदेशो से भी चन्दा  उगाही  कर रहे हैं ।पहले देश में एन जी ओ के नाम पर पैसा लिया फिर आन्दोलन के नाम पर करोडो रुपये  इकठा किय और अब चुनाव लडने के नाम पर विदेशो से उगाही  कर रहे हैं ।उधर किरण बेदी ने मनचाही  प्रसिद्धी  न मिल पाने से निराश  हो कर आन्दोलन से किनारा करने का फैसला कर लिया । इन सब  के बीच सच्चे और ईमानदार  अन्ना  फंस गए थे ।दिल्ली में धरना प्रदर्शन कर के    और उसका  और टीवी कवरेज  करा कर इन लोगो को लगा था की वे देश के  नेता बन गए हैं ।उनके बयानों को टीवी चेनल भी प्रमुखता देते थे , क्योंकि उन्हें लगता था की इस से टी आर पी  बढेगी , इस भ्रम में नगरो के काफी  लोग थे । परन्तु अधिक तर छेत्रों  में तो न तो आन्दोलन न ही इसके नेताओ की जानकारी थी । यह सत्य दिल्ली और बम्बई की जनता को समझ  नहीं आता , क्योंकि उनके अनुसार तो जो वे देख रहे वाही सही हैं  ।
               परिणाम हुआ की आन्दोलन का जोश धीरे -धीरे पिघलने लगा , तब  अन्ना  के सयोगियो को लगा की इस जन समर्थन की पूंजी को किसी प्रकार  अपने पाले में रोक लिया जाए । जब उन्हे लगा की बड़े और स्थापित लोगो की सरे -आम टोपी उछालने से लोगो को मज़ा तो आता हैं पर  वे साथ नहीं जुड़ते ।एन जी ओ  चलते वक़्त एक खास वर्ग के लोगो से ही मिलना  होता हैं , सार्वजनिक राजनीती करने में सभी के भलाई की बात करनी होती हैं  ।पच्छपात  तो डालो में भी होता हैं ,पर वंहा कैनवास काफी बड़ा होता हैं  , इसलिए चल जाता हैं , परन्तु आन्दोलन में पारदर्शिता जरुरी  होती हैं ,जो नहीं थी ।इसलिए दम तोड़ दिया ।पर अन्ना का अपने  सिधान्तो पर  विश्वास ही उनकी पूंजी हैं हमे आशा करनी होगी की उन्हे  सच्चे  साथी उनकी लड़ाई के लिए मिले ।

Feb 2, 2013

PRASTAVIT LOKPAL ORDINANCE AUR ANNA KI TEK

 प्रस्तावित लोकपाल  अध्यादेश  और अन्ना  की टेक 
                                      लगभग दो वर्षो के  आन्दोलन और धरने के मौसम बे मौसम होते रहने के बाद भी जब केंद्र ने संसदीय समिति की  प्रमुख सिफ़ारिशो  को मंजूर कर अध्यादेश द्वारा इसे लागू किये जाने का निर्णय किया , तब भी अन्ना  और केजरीवाल का मन नहीं भरा ।उनके हिसाब से यह सरकार की धोखाधड़ी हैं । केजरीवाल तो कह रहे हैं की सी बी आई  को आजाद करे बिना तो बेईमानी  ख़तम ही नहीं की जा सकती ।उधर अन्ना का कहना हैं की सी बी आई  और सी वी सी  को भी चुनाव आयोग की ही भांति दर्ज़ा दो ।वास्तव में यही सुझाव लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान  राहुल गाँधी ने भी दिया था ।पर तब मुखरित विरोधी दलो  के  सुरमाओ  ने इसे बचकाना हरक़त बताया था । अब अन्ना  कह रहे हैं तब ऐसी टिपण्णी  नहीं की जाएगी , आखिर क्यों ? शायद  नैतिक सहस नहीं बचा उन नेताओ के पास की इसे भी खारिज कर दे ।
                                                        
                                                  आइये देखे की संसदीय समिति की सिफारिश क्या  हैं --पहली तो यह हैं की सी बी आई  के डायरेक्टर की नियुक्ति एक पैनल करेगा जिसमें प्रधान मंत्री , लोकसभा में नेता प्रति पक्ष और लोकसभा के स्पीकर  होंगे , सुप्रीम कोर्ट के जज  भी इसमें सदस्य होंगे । अब इस से ज्यादा स्वतंत्रता   किया होगी की इतना सशक्त पैनल किसी पद के लिए अफसर का चयन करे ?राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए राज्यों को एक साल का मौका दिया गया हैं ,की वे इस सम्बन्ध में कारवाई करें । गौर तलब हैं की इस मसलें पर अनेको विरोधी दलों  ने असहमति जताई थी , उनका कहना था की यह क़दम  राज्यों की स्वतंत्रता पर आघात हैं । अब अन्ना  चाहते  हैं की यह नियुक्ति भी लोकपाल के हाथ में हो । इस्मांग पर फिलहाल तो राजनैतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई हैं ।तीसरा  उनका कहना हैं की केबिनेट  सचिव से लेकर मंत्रालय के चपरासी को  भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए । \\होती हैं 

                                             वास्तव में उनका ऐतराज यह हैं की उनके द्वारा प्रस्तावित   मसौदे  को क्यों नहीं सरकार  ने  ज्यों  का त्यों मंजूर नहीं किया ।अब उन्हे कौन समझाए की दलीय प्रजातंत्र में  हिटलरशाही नहीं चल सकती ।यंहा तो प्रधान मंत्री को भी आपने सहयोगियों को सुनना  पड़ता हैं ,और गठबंधन की सरकार हो , जैसी की अभी  हैं तो दूसरे दलों की भी बात को समझाना पड़ता हैं । सही और उचित बात को भी उनके गले से उतरना होता हैं ।केजरीवाल इनकम टैक्स अफसर रह चुके हैं फिर भी उनका कहना की जांच करने और करवाई करने  में किसी का दखल न हो , यानी जिसके यंहा चाहें छापा  मार डे भले ही कोई जुर्म बने या न बने । मतलब  यह की किसी की भी इज्ज़त से खिलवाड़ करने का अधिकार अफसर को हो । उनका ऐतराज सरकार के हस्तछेप  से हैं । अमेरिका में जांच की एजेंसी एफ बी आई  भी सरकार  और सीनेट के अधीन हैं , ब्रिटेन में स्कॉटलैंड  यार्ड भी गवर्नमेंट के निर्देश पर चलता हैं । ऍफ़ बी आई  स्वयं से भी जांच कर सकती हैं पर प्रशासनको बताना पड़ता हैं  ।
                                              संसदीय प्रजातंत्र में नौकरशाही को जन प्रतिनिधियों के आधीन ही रहना होता हैं  , हाँ फौजी हुकूमत में अफसरान बेकाबू रहते हैं ।क्या जन प्रतिनिधियों को शासन या प्रशासन से अलग किया जा सकता हैं  ?जिसको संविधान ने देश चलाने का अधिकार दिया हैं उसके ऊपर कोई गैर निर्वाचित कैसे बैठ सकता हैं  ।एना और केजरीवाल को यह समझाना होगा की संसद सबसे ऊपर हैं , वे नहीं । 
   पूर्व प्रधान  मंत्री अटल बिहारी  वाजपेयी  ने गुजरात में हुए गोधरा काण्ड के बाद वंहा की सरकार  की सार्वजनिक रूप से हुई आलोचना के समय नरेन्द्र मोदी को ''राजधर्म ''पालन करने की सलाह दी थी ।उस का अर्थ था की एक राजनैतिक पार्टी के रूप में हमारे सिधान्त  अथवा विचार भले ही कुछ हो , परन्तु जब हम सत्ता में हों तब हमारे लिए ''सर्व जन सुखाय  -सर्व जन हिताय ''ही धरम हैं ।क्योंकि चुनाव की राजनीती में विरोधियो का होना स्वाभाविक हैं परन्तु सत्ता में आने के बाद सरकार किसी की विरोधी नहीं होती और किसी का पछ  भी नहीं लेती ।मंत्री पद की शपथ में भी यह वादा प्रदेश या देश की जनता से करना होता हैं की ''में बिना किसी भेदभाव या अनुराग के दिए गए उत्तरदायित्व का निर्वहन करूँगा ।''   इस प्रतिज्ञा का पालन ही राज धरम हैं ।परन्तु व्यहारिक रूप में यह कभी असमंजस में डालने का कारन भी बन जाता हैं फिर वाही इसकी कसौटी भी बन जाता हैं ।
           धार स्थित भोजशाला में सरस्वती पूजा को लेकर वर्षो से बहुसंख्यको और अल्पसंख्यको के मध्य विवाद रहा हैं अक्सर ही पुलिस को बल प्रयोग कर स्थिति पर नियंत्रण करना पड़ा हैं । कांग्रेस के समय में बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता  हमेश से उग्र हो कर मनमानी करने का प्रयास करते थे ।जिस पर सार्वजनिक रूप से   निंदा भी की जाती रही हैं  । पर जब संघ और बजरंग दल की सहयोगी सरकार  हैं -तब भी स्थिति  वही ही हैं , कारन हैं राजधर्म । अब राष्ट्रीय  स्वयं सेवक  संघ के लोग  ही शिवराज सरकार  की आलोचना में  बयान दे रहे हैं ,और बसंतपंचमी  के दिन सरस्वती की पूजा जबरदस्ती करने का अल्टीमेटम दे  रहे हैं ।हालाँकि  अभी बात जबानी -जमा खर्च तक ही हैं , पर जन भावनाओ में तर्क  का हिस्सा  कम और उद्वेग का स्थान अधिक होता हैं ।जब से शिवराज सरकार  हैं अभी तक न तो अल्पसंख्यको को न ही बहुसंख्यको उनके  मन  की करने दिया गया हैं ।
                                                     भोजशाला बनाने मुक्ति यज्ञ  और माँ सरस्वती महोत्सव  समिति के संयोजक नवल किशोर शर्मा ,जो की संघ के प्रचारक रह चुके हैं , उन्होने भी शिवराज सरकार पर वाही आरोप लगाये हैं  जो  कभी कांग्रेस सरकारों पर वे लगाया करते थे ।उन्होंने 2006 से भा जा प्  सरकार पर बहुसंख्यको को प्रताड़ित करने और उनके अधिकार की अनदेखी करने का आरोप लगाया हैं ।लेकिन सरकार  और जिला प्रशासन बसंतपंचमी  के समय शांति बनाने के लिए तत्पर हैं ।अब तो शर्मा जी ने यंहा तक कह  दिया की भा ज पा के लिए ''हिंदुत्व  का मुद्दा सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन हैं ''। बस यही राज्य  धर्म  और पार्टी धर्म  के टकराव का मुद्दा हैं । जंहा शांति -व्यवस्था सबके लिए हैं ,वंही सरस्वती वंदना  करके  लोगो में  हिंदुत्व हामी की छवि बनाना संघ और बजरंगदल का उद्देश्य हैं ।अब भारतीय जनता पार्टी में कुछ तत्त्व राम मंदिर के मुद्दे को चुनाव का मसला बनाने  की भले ही वकालत करें , पर एन डी ए   में ऐसा होना संभव नहीं लगता .।हालाँकि सिंघल और तोगड़िया  प्रयाग में हो रहे कुम्भ  में एक संत सम्मलेन कर के इस मुद्दे को चुनाव के पूर्व गरमाना  चाहते  हैं ।पर दिक्कत  वही राजधर्म ।छतीसगड  और मध्य प्रदेश में जन भावनाओ को भड़काने पर सरकार पर कलंक लगेगा की अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं किया  ।वैसे राम मंदिर मुद्दा  काठ की हांडी की भांति हैं जिसके दुबारा सफल   होने की  उम्मीद कम ही हैं , पहले जब यह सवाल जनता के बीच लाया गया था तब कांग्रेस सरकार  पर ठीकरा फोड़ा गया था ।पर इस बार ऐसा संभव  न होगा क्योंकि वाजपेयी जी के काल में ही इस को पीछे धकेल दिया गया था ।जब लोग इस बारे में पूछेंगे तो किया जवाब होगा ?सरकार  बनाने के लिए  तो मुद्दा तब ठीक था पर शायद अब नहीं हैं ।क्योंकि अब राज धर्म आजमाया जा चूका हैं , भले ही समर्थको बुरा लगे या नहीं ।
      राज धर्म बनाम पार्टी धर्म                          

Feb 1, 2013

कुम्भ पर्व या मेला

 कुम्भ पर्व या मेला  यह प्रश्न  इसलिए मौजू  हैं चूँकि इस भव्य आयोजन में एक करोड़ से ज्यादा लोगो के आने की उम्मीद हैं ,और इस   हिसाब से बंदोबस्त भी हैं ।उत्तर प्रदेश सरकार  द्वारा  सौ करोड़ से अधिक की धनराशी और हजारो लोगो का सरकारी  अमला  भी लगा हुआ हैं ।वंहा प्रकाश - पुल -सड़क और अस्पताल  और शांति -व्यस्था   के लिए भारी पुलिस बंदोबस्त हैं ।परन्तु इस आयोजन  का महत्वपूर्ण अंग हैं ,यंहा पधारे हुए संत -महात्मा ।वैसे तो इनकी संख्या यंहा पर आये विभिन्न  अखाड़ो से पता लगायी जा सकती हैं , परन्तु इस समुदाय से अलग भी एक बड़ी संख्या उन साधू संतो की हैं जो किसी भी अखाडे से जुड़े नहीं हैं ।इन एकल साधुओ  को देखना अपने एक अनुभव हैं ।कोई तीस वर्षो से एक हाथ उठाये  परमपिता परमेश्वर से विश्व  शांति  के लिए प्रार्थना कर रहे हैं ,तो कोई देश की खुशहाली के लिए एक पैर से तपस्यारत हैं , अब आप ही बताये की परोपकार के लिए एक व्यक्ति का इस से बड़ा योगदान किया हो सकता हैं ।वह भी आज के भागम-भाग युग में ?एक और जंहा  ऐसे हठ  योगियों की कठिन साधना सर झुकाने पर मजबूर करती हैं , वंही  दूसरी और जगत गुरु -महा मंडलेस्वर - तथा मठ्धिशो के विशाल और भव्य पंडाल तथा उनके रहने की सुंदर व्यस्था तथा  अन्न्छेत्र  में मिलने वाला प्रसाद उनकी हैसियत का  प्रतीक बन रहा हैं । 
                           उ,द्घाटन के दिन अखाड़ो के स्वामियों की सवारी देखते ही बनती थी,उनका सिघासन और पीछे चवर डुलाते भक्त इन भगवा वस्त्र धारियों  को एक राजा को मिलने वाले सम्मान की याद दिला  देता हैं ।वैसेएक सवाल भी उठता  हैं की इस राजसी ठाठ से धरम अथवा समाज का कितना भला हो रहा हैं ?वैदिक परंपरा के अनुसार तो सन्यासी को बहुत कम  वस्तुओ की जरूरत होनी चाहिए , क्योंकि वह तो अपरिग्रह का मार्ग  अपनाये हुए हैं । शानो-शौकत की सवारी और लाव लश्कर तो इस नियम के विपरीत हैं  ।परन्तु श्रधालुओ  का दान और शिष्यों की अधिकता भी  इन्हे बंदोबस्त  करने पर मजबूर करती होगी । तभी  इतना सब करना पड़ा । 
         समुन्द्र मंथन से निकले अमृत के बटवारे में छलकी  बूंदों के कारन ही इस पर्व का आयोजन किया जाता हैं , वस्तुतः इस धार्मिक  आयोजन का रूप अब तो  एक विशाल मेले जैसा हो गया हैं ।जंहा  धर्म धवजा लहराने वाले मठाधिसो और मण्डलो  के अधिस्वरो की अपरिमित सम्पन्नता  और प्रभाव दिखाई पड़ता हैं ।जिसमें गृहत्यागी - स्वयं का तर्पण कर  चुके त्यागी और वीतरागी होऩे  के भाव का सर्वथा अभाव हैं । शायद  इसलिए इस अति विशाल और विहंगम आयोजन में श्रधा का भाव कम लगता हैं , अधिकतर लोग तो इस अवसर पर स्नान को ```एक धार्मिक ड्यूटी समझ कर आते हैं . भले ही कुछ लोगो में परम पिता परमेश्वर की आराधना  का भाव हो ।  ज्यादातर बाबा लोग तो अपनी  उपस्थिति ही दर्ज करते लगते  हैं , जन्हा उनके शिष्यों  को आना होता हैं । हाँ दुनिया  के सबसे  बड़े इस आयोजन को देखने के लिए विदेशियों की लम्बी -चौड़ी संख्या होती हैं , जिनके लिए यह एक कतुहल का विषय हैं की तीन करोड़ से लोग यंहा सिर्फ गंगा और यमुना के संगम में दुबकी लगाने के लिए एकत्र  होते हैं . ।यूरोप के अनेक देशो की कुल जनसँख्या भी इतनी नहीं हैं । हालाँकि अनेको विदेशी अनेक धार्मिक संगठनो के माध्यम से भी आते हैं  ,जो स्न्नसनार्थियो के लिए कौतूहल का विषय होते हैं । आज़ादी के साठ साल    बाद भी ''गोरा साहेब'' देखने की जिज्ञासा रहती हैं और अगर गोरी मेम दिखाई पद जाए तो ठिठक कर रूक कर भी लोग उन्हे देखते हैं ।देसी या विदेशी लोगो को  सबसे ज्यादा उत्सुकता  नागा साधुओ को देखने की होती हैं  देह में भसम रमाये नंग -धडंग चिंता बजाते हुए इनकी  टोली सभी के लिए आकर्षण का कारन होती हैं । उन विदेशी लोगो के लिए  जंहा NUED  क्लुबो की लम्बी कड़ी हैं और  नंगे नहाने की सदियों पुराणी परंपरा हैं  ।हमारे यंहा तो श्री कृष्णा ने गोपियों की इस आदत को समाप्त  करने के लिए उनके कपडे तक उठा लिए थे ।
                         लगभग एक से दो करोड़ की चलती -फिरती आबादी के लिए  सुरक्षा -चिकित्सा -प्रकाश  और साफ़ सफाई का बंदोबस्त कठिन कार्य हैं  ,पर अंगरेजो के ज़माने से इस आयोजन का बंदोबस्त राज्य शास न का दायित्व रहा हैं ।जिसे सभी सरकारों ने बखूबी निभाया हैं फिर भले ही वे किसी भी रंग की रही हो    ।
                                     वैसे पाठको के लिए एक प्रश्न तो छोड़ ही रहा हूँ की इसे ''पर्व कहे या मेला ''?आप बताये ।