प्रस्तावित लोकपाल अध्यादेश और अन्ना की टेक
लगभग दो वर्षो के आन्दोलन और धरने के मौसम बे मौसम होते रहने के बाद भी जब केंद्र ने संसदीय समिति की प्रमुख सिफ़ारिशो को मंजूर कर अध्यादेश द्वारा इसे लागू किये जाने का निर्णय किया , तब भी अन्ना और केजरीवाल का मन नहीं भरा ।उनके हिसाब से यह सरकार की धोखाधड़ी हैं । केजरीवाल तो कह रहे हैं की सी बी आई को आजाद करे बिना तो बेईमानी ख़तम ही नहीं की जा सकती ।उधर अन्ना का कहना हैं की सी बी आई और सी वी सी को भी चुनाव आयोग की ही भांति दर्ज़ा दो ।वास्तव में यही सुझाव लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान राहुल गाँधी ने भी दिया था ।पर तब मुखरित विरोधी दलो के सुरमाओ ने इसे बचकाना हरक़त बताया था । अब अन्ना कह रहे हैं तब ऐसी टिपण्णी नहीं की जाएगी , आखिर क्यों ? शायद नैतिक सहस नहीं बचा उन नेताओ के पास की इसे भी खारिज कर दे ।
आइये देखे की संसदीय समिति की सिफारिश क्या हैं --पहली तो यह हैं की सी बी आई के डायरेक्टर की नियुक्ति एक पैनल करेगा जिसमें प्रधान मंत्री , लोकसभा में नेता प्रति पक्ष और लोकसभा के स्पीकर होंगे , सुप्रीम कोर्ट के जज भी इसमें सदस्य होंगे । अब इस से ज्यादा स्वतंत्रता किया होगी की इतना सशक्त पैनल किसी पद के लिए अफसर का चयन करे ?राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए राज्यों को एक साल का मौका दिया गया हैं ,की वे इस सम्बन्ध में कारवाई करें । गौर तलब हैं की इस मसलें पर अनेको विरोधी दलों ने असहमति जताई थी , उनका कहना था की यह क़दम राज्यों की स्वतंत्रता पर आघात हैं । अब अन्ना चाहते हैं की यह नियुक्ति भी लोकपाल के हाथ में हो । इस्मांग पर फिलहाल तो राजनैतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई हैं ।तीसरा उनका कहना हैं की केबिनेट सचिव से लेकर मंत्रालय के चपरासी को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए । \\होती हैं
वास्तव में उनका ऐतराज यह हैं की उनके द्वारा प्रस्तावित मसौदे को क्यों नहीं सरकार ने ज्यों का त्यों मंजूर नहीं किया ।अब उन्हे कौन समझाए की दलीय प्रजातंत्र में हिटलरशाही नहीं चल सकती ।यंहा तो प्रधान मंत्री को भी आपने सहयोगियों को सुनना पड़ता हैं ,और गठबंधन की सरकार हो , जैसी की अभी हैं तो दूसरे दलों की भी बात को समझाना पड़ता हैं । सही और उचित बात को भी उनके गले से उतरना होता हैं ।केजरीवाल इनकम टैक्स अफसर रह चुके हैं फिर भी उनका कहना की जांच करने और करवाई करने में किसी का दखल न हो , यानी जिसके यंहा चाहें छापा मार डे भले ही कोई जुर्म बने या न बने । मतलब यह की किसी की भी इज्ज़त से खिलवाड़ करने का अधिकार अफसर को हो । उनका ऐतराज सरकार के हस्तछेप से हैं । अमेरिका में जांच की एजेंसी एफ बी आई भी सरकार और सीनेट के अधीन हैं , ब्रिटेन में स्कॉटलैंड यार्ड भी गवर्नमेंट के निर्देश पर चलता हैं । ऍफ़ बी आई स्वयं से भी जांच कर सकती हैं पर प्रशासनको बताना पड़ता हैं ।
संसदीय प्रजातंत्र में नौकरशाही को जन प्रतिनिधियों के आधीन ही रहना होता हैं , हाँ फौजी हुकूमत में अफसरान बेकाबू रहते हैं ।क्या जन प्रतिनिधियों को शासन या प्रशासन से अलग किया जा सकता हैं ?जिसको संविधान ने देश चलाने का अधिकार दिया हैं उसके ऊपर कोई गैर निर्वाचित कैसे बैठ सकता हैं ।एना और केजरीवाल को यह समझाना होगा की संसद सबसे ऊपर हैं , वे नहीं ।
लगभग दो वर्षो के आन्दोलन और धरने के मौसम बे मौसम होते रहने के बाद भी जब केंद्र ने संसदीय समिति की प्रमुख सिफ़ारिशो को मंजूर कर अध्यादेश द्वारा इसे लागू किये जाने का निर्णय किया , तब भी अन्ना और केजरीवाल का मन नहीं भरा ।उनके हिसाब से यह सरकार की धोखाधड़ी हैं । केजरीवाल तो कह रहे हैं की सी बी आई को आजाद करे बिना तो बेईमानी ख़तम ही नहीं की जा सकती ।उधर अन्ना का कहना हैं की सी बी आई और सी वी सी को भी चुनाव आयोग की ही भांति दर्ज़ा दो ।वास्तव में यही सुझाव लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के दौरान राहुल गाँधी ने भी दिया था ।पर तब मुखरित विरोधी दलो के सुरमाओ ने इसे बचकाना हरक़त बताया था । अब अन्ना कह रहे हैं तब ऐसी टिपण्णी नहीं की जाएगी , आखिर क्यों ? शायद नैतिक सहस नहीं बचा उन नेताओ के पास की इसे भी खारिज कर दे ।
आइये देखे की संसदीय समिति की सिफारिश क्या हैं --पहली तो यह हैं की सी बी आई के डायरेक्टर की नियुक्ति एक पैनल करेगा जिसमें प्रधान मंत्री , लोकसभा में नेता प्रति पक्ष और लोकसभा के स्पीकर होंगे , सुप्रीम कोर्ट के जज भी इसमें सदस्य होंगे । अब इस से ज्यादा स्वतंत्रता किया होगी की इतना सशक्त पैनल किसी पद के लिए अफसर का चयन करे ?राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए राज्यों को एक साल का मौका दिया गया हैं ,की वे इस सम्बन्ध में कारवाई करें । गौर तलब हैं की इस मसलें पर अनेको विरोधी दलों ने असहमति जताई थी , उनका कहना था की यह क़दम राज्यों की स्वतंत्रता पर आघात हैं । अब अन्ना चाहते हैं की यह नियुक्ति भी लोकपाल के हाथ में हो । इस्मांग पर फिलहाल तो राजनैतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई हैं ।तीसरा उनका कहना हैं की केबिनेट सचिव से लेकर मंत्रालय के चपरासी को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए । \\होती हैं
वास्तव में उनका ऐतराज यह हैं की उनके द्वारा प्रस्तावित मसौदे को क्यों नहीं सरकार ने ज्यों का त्यों मंजूर नहीं किया ।अब उन्हे कौन समझाए की दलीय प्रजातंत्र में हिटलरशाही नहीं चल सकती ।यंहा तो प्रधान मंत्री को भी आपने सहयोगियों को सुनना पड़ता हैं ,और गठबंधन की सरकार हो , जैसी की अभी हैं तो दूसरे दलों की भी बात को समझाना पड़ता हैं । सही और उचित बात को भी उनके गले से उतरना होता हैं ।केजरीवाल इनकम टैक्स अफसर रह चुके हैं फिर भी उनका कहना की जांच करने और करवाई करने में किसी का दखल न हो , यानी जिसके यंहा चाहें छापा मार डे भले ही कोई जुर्म बने या न बने । मतलब यह की किसी की भी इज्ज़त से खिलवाड़ करने का अधिकार अफसर को हो । उनका ऐतराज सरकार के हस्तछेप से हैं । अमेरिका में जांच की एजेंसी एफ बी आई भी सरकार और सीनेट के अधीन हैं , ब्रिटेन में स्कॉटलैंड यार्ड भी गवर्नमेंट के निर्देश पर चलता हैं । ऍफ़ बी आई स्वयं से भी जांच कर सकती हैं पर प्रशासनको बताना पड़ता हैं ।
संसदीय प्रजातंत्र में नौकरशाही को जन प्रतिनिधियों के आधीन ही रहना होता हैं , हाँ फौजी हुकूमत में अफसरान बेकाबू रहते हैं ।क्या जन प्रतिनिधियों को शासन या प्रशासन से अलग किया जा सकता हैं ?जिसको संविधान ने देश चलाने का अधिकार दिया हैं उसके ऊपर कोई गैर निर्वाचित कैसे बैठ सकता हैं ।एना और केजरीवाल को यह समझाना होगा की संसद सबसे ऊपर हैं , वे नहीं ।
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