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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Apr 30, 2013

भारतीय कॉर्पोरेट का अमानवीय चेहरा , न कानून की परवाह ना ही सरकार की

 भारतीय कॉर्पोरेट का अमानवीय चेहरा , न कानून की परवाह ना ही सरकार की 
                सुबह लोकल ट्रेन पकड़ने की जल्दी और रात के नौ बजे के बाद ऑफिस से छुटने पर फिर ट्रेन की भागम- भाग तब दस बजे रात को ""घर "" पहुचना , यह किसी बंधुआ मजदूर की नहीं वरन हिंदुस्तानी बहु रास्ट्रीय कंपनियों  के ""मिडल "" लेवल के अफसरों की कहानी ही । जी हाँ मुंबई और मद्रास या दिल्ली में मैनेजमेंट या इंजीनियरिंग का कोर्से करके निकले नव जवान लड़के - लडकियों का हे । जिन्हें लंच का वक़्त नहीं मिलता ,क्योंकि उस समय ""बॉस "" अपने केबिन में मौजूद रहता हे । इसलिए उसके रहते यह नहीं कहा जा सकता की बॉस लंच टाइम  हो गया , अभी आते हे । जवाब मिलेगा  तुम्हे खाने की पड़ी हे यंहा काम कौन करेगा ? साफ़ बात हे की आप को भूख को मुल्तवी करना पड़ेगा । फिर जब काम करने टाइम होगा तो आप खुद ही अपनी डेस्क सम्हाल रहे होंगे । तब आप के बॉस गाडी में बैठ कर घर या किसी होटल में खाना खा रहे होंगे । हालाँकि प्रबंधन  के अनुसार मातहतो को संतुस्ट रखने से उनकी कार्य छमता बदती हे , पर यंहा नाज़ी सिधांत हे की  भय का माहौल बना के रखो  तो  लोग जी - तोड़ काम करेंगे । सही हे पर सवाल ही कब तक ? क्योंकि माह दर माह चलने वाला यह सिलसिला काम करने के स्थान पर तनाव का वातावरण  बनाता हे , पहले बातचीत में गस्र्मा गर्मी फिर तनाव और मामला फिर किसी नए कर्मी के त्यागपत्र देने पर ही अक्सर शांत होता ही
। यही कारन  हे की इन देसी बहु रास्ट्रीय  कंपनियों में भारती होने वालो की संख्या और छोड़ कर जाने वालो की वार्षिक संख्या बराबर ही होती ही । 





               मुक्त व्यापार  के साथ ही देश मे एक नए  वर्क कल्चर का जनम हुआ , जो परंपरागत  मारवाडी  और पारसी तथा  गुजराती व्यापारिक घरानो की कपनियों मे  जो माहौल था , वह प्राइवेट यूद्योगों के हायर अँड फायर सिधान्त पर ही था | परंतु  फिर भी उनके यंहा भी आम तौर पर  नियोक्ता  के प्रति एक वफादारी  होती थी | इसीलिए लोग जल्दी एक कंपनी  को छोडते नहीं थे , जब  तक बड़ी बात ना हो | एक अनुमान के अनुसार   करमचरियों का  नौकरी  छोडना साल मे एक आध प्रतिशत  ही था |  परंतु मुक्त व्यापार के साथ ही देश मे  एक नए कल्चर  का आगाज हुआ , जो ना तो यूरोप  की तर्ज़ पर था ना ही अमेरीकन और जापानी परंपरा के  अनुरूप  तो क़तई नहीं था | उन्होने अपनी एक नयी विधा  निकाली | 
               यह नयी विधा  किसी भी प्रकार से व्यापारिक  वातावरण के लिए किसी भी प्रकार स्वस्थ्य  नहीं होगा | इस नयी स्टाइल मे करमचरियों  को अनुबंध के तहत रखा जाता हे , भले ही वह देश के मौजूदा  श्रम कानूनों के  विरुद्ध हो | अगर हम एक एक कर के मुद्दो को परखे तो  पाएंगे की काम करने के घंटे आठ  घंटो से ज्यादा ही होते हे , कहा यह जाता हे की ऐसा  लक्ष्य प्राप्त करने के लिए होता हे | अब लक्ष्य हर करमचारी  का होता हे | जबकि यह दायित्व एक सीनियर  लेवेल के  अधिकारी का होता हे | परंतु नए  तौर तरीके मे ज़िम्मेदारी आखिर व्यक्ति तक हे | इससे ऊपर वाला अधिकारी अपने अधीनो को अपने और उनके लक्ष्यो को पाने के लिए अमानवीय तरीके  तक अपनाने से गुरेज नहीं करते हे | 
                                                       बैंकों  और बीमा  छेत्र मे यह नयी ""कॉर्पोरेट  पॉलिसी "" काफी खुले या नंगे तरीके  से  अपनायी जा रही हे |  वजह यह हे की मुक्त व्यापार के कारण बहुत सी विदेशी  कंपनी  देश मे भाग्य आज़मा रही हे | उम्मीद से कई गुना ज्यादा का वेतन और भत्ते  शीर्ष  पर बैठे आदमी को सिर्फ मशीन  बना कर रख देती हे | फलस्वरूप वह अपने  अधीनों को भी  मशीन  की तरह जोत देता हे | वह ना तो ऑफिस के वातावरण  को स्वस्थ्य बना पता हे नहीं अपने मातहतो  का विसवास जीत पाता हे , परिणाम यह होता हे की कोई भी व्यक्ति  कंपनी मे दो साल से ज्यादा नहीं टिकता हे | कारण यह हे की वह जब बॉस के लक्ष्य प्राप्ति मे अपने योगदान का महत्व समझने लगता हे तब वह भी ""बड़े  वेतन -भत्ते के चक्कर मे "" दूसरी कंपनी मे खिसक जाता हे | यह सिलसिला रोज ब रोज चलता हे , कुछ छोड़ के जा रहे होते हे और कुछ जॉइन करने आ रहे होते हे | परंतु आप आदमी तो रख सकते हे परंतु हर व्यक्ति की योग्यता और सोच अलग होते हे , ऐसे मे होता यह हे की फावड़े की जगह कभी गैंती और कभी हथौड़ा  चलाना पड़ता हे , चूंकि वही आपके पास बचा हे | ऐसे मे लक्ष्य मिलने की उम्मीद कम होती हे | साल के आखिर मे या तो सी ई ओ  साहब या उनके नीचे के लोगो को अलविदा कर दिया जाता हे | 
                            एक बैंक जो हमेशा अव्वल रहने का दावा करता हे , उसके यंहा प्रति वर्ष 110 प्रतिशत लोग काम छोड़ कर चले जाते हे | अब ऐसे मे लक्ष्य पाने के लिए उल्टे सीधे हाथ कंडे  अपनाए जाते हे , अभी हाल ही मे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने  इनके काम काज की जांच की और पाया की इनके यंहा "" काले धन को सफेद  करने "" के लिए गलत तरीके अपनाए जा रहे थे | क्योंकि जब आप के यंहा लोगो के छोड़ कर जाने की संख्या काम करने वालों से ज्यादा हे तब , मौजूद लोगो पर काम का दबाव बढना  स्वाभाविक हे | ऐसे मे निचले स्तर के   कर्मचारी पर दुगना काम करने का दबाव बनाया जाता हे | काम के घंटे बारह से सोलह घंटे तक हो जाते हे , ऐसे मे फिर काम करने का माहौल तो नहीं रह जाता हे | इसी बैंक ने आरबीआई की जांच के तहत 18 अधिकारियों की छूटी  कर डी , जब की उनका दोष ""बॉस " के आदेश का पालन करने का था | असली मुजरिम तो लक्ष्य  पाने की खुशी मे मगन थे |