आतंक - अशांति -अपराध को सबक --फांसी
कसाब और अफज़ल गुरु ऐसे आतंक वादियों को सजाए मौत तामीर होने के बाद अब शायद नम्बरउन लोगो का हैं जो अशांति फ़ैलाने के कसूरवार हैं । इस कड़ी में चन्दन के माफिया वीरप्पन के चारो साथियों की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किये जाने की खबर से ही , भुल्लर और रजोअना के हिमायतियो ने विरोध करना शुरू कर दिया हैं ।शिरोमणि अकाली दल से जुड़े कुछ नेताओ ने तो यंहा तक बयान दिया हैं की वे ""किसी भी हालत में भुल्लर और राजोआना को फांसी नहीं होने देंगे । पद कर अचरज होता हैं की दया याचिका खारिज होने के बाद भी वे कैसे इन अपराधियों को फांसी के तखत पर जाने से कैसे रोक सकते हैं ? केवल एक रास्ता हैं की वे तिहाड़ जेल पर हमला कर के उन्हे छुड़ा ले जाए । पर ऐसा होने की उम्मीद काम हैं , क्योंकि अभी शांति - व्यवस्था इतनी ख़राब नहीं हुई हैं की ऐसे काम कोई अंजाम दे सके । लेकिन पंजाब की अकाली राजनीती के लिए '''खालिस्तान"" का मुद्दा वैसा ही हैं जैसा ""आजाद कश्मीर "" । इसलिए चाहे पी डी पी की महबूबा मुफ़्ती हों या अकाली दल के लोग उन्हे स्थानीय लोगो की भावनाए जाति -धरम अथवा छेत्र के नाम पर ""कॅश " करना चाहते हैं | सारा विवाद वोट बैंक का हैं ।
दरअसल राष्ट्रीय राजनितिक पार्टियों का आधार मतदाता खिसक रहा हैं उसका मूल वज़ह हैं की छेत्रिय दलो को राष्ट्रीय मुद्दों से कुछ लेना देना नहीं होता ।इसलिए की उनका आधार तो चटपटे और सनसनीदार मुद्दों को उछालना होता हैं ।आम मतदाता इन हवाई मुद्दों से बहक भी जाता हैं ।फलस्वरूप "गठबंधन की सरकारे बनती हैं । वास्तविक विकास के मुद्दे पीछे चले जाते हैं ।
कश्मीर और पंजाब में यही कारन हैं की फांसी की सजा को एक मुद्दा बनाया जा रहा हैं । जबकि न्यायिक प्रक्रिया के द्वारा प्राणदंड दिया गया हैं , और दया याचिका भी इसी प्रक्रिया का भाग हैं । अतः कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सुर करीब- करीब एक जैसे हैं वंही छोटे दलों की आवाज एकदम बदली हुई हैं ।
अफज़ल को फांसी से पहले परिवार वालो से मिलने का मौका नहीं दिया जाना एक शिकायत हो सकती हैं परन्तु उसके शव की सुपुर्दगी मागने के पीछे कोई अच्छा कारन नहीं हैं , क्योंकि शव देने के बाद घाटी में अशांति का जो माहौल बनता उसको उमर अब्दुल्ला की सरकार पर ही खतरा होता ।तब जगह - जगह पर प्रदर्शन होते जो हिंसक भीड़ में तब्दील हो जाते और शांति - व्यवस्था बनाये रखने के लिए फ़ौज को गोली चलानी पड़ती ,क्योंकि वंहा लाठी और आंसू गैस का तो कोई मतलब ही नहीं हैं । ऐसे में भारत सरकार को आलोचना का शिकार होना पड़ता वह भी गुनाह बेलज्जत । क्योंकि गोली के बिना वंहा शांति नहीं स्थापित होती । अब ऐसे में अगर शव को तिहर जेल में ही दफ़न कर दिया गया तो बहुत से लोगो की जान बच गयी ।
अब चन्दन माफिया वीरप्पन के चार सहयोगियों की दया याचिका ठुकराए जाने से यह अंदाज़ लगाया जा रहा हैं की कभी कर्नाटक और केरल में आतंक का पर्याय बन गए वीरप्पन के साथियों के अंत से जंगल माफिया का अंत भी हो सकेगा ।
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