भंडाफोड़ बनाम मीडिया ट्रायल
यूँ तो गुनाहगार और बेगुनाह का फैसला अदालतों में होता हैं , परन्तु विगत एक दशक से समाचार पत्रऔर टी वी चैनलो में खोजी पत्रकारिता के नाम पर एक मुद्दा पकड़ लिया जाता हैं , जिसे हफ्तों और महीनो तक चलाया जाता हैं । इस को ही घोटाले का नाम दिया जाता हैं । अब इस ''काण्ड'' को मीडिया घोटाले का भी नाम दे देता हैं । इस घोटाले का आधार कोई फाइल पर की गयी टीप होती हैं ,अथवा किसी असंतुष्ट पार्टी द्वारा उपलब्ध कराये गए कागजात होते हैं । आम तौर पर बड़ी - बड़ी खरीद के मामलो में अनेक लोगो के हित अहित जुड़े होते हैं । एवं अनेक कंपनियों के मध्य किसी एक को ही टेंडर या आर्डर मिलता हैं । तब शुरू हो जाता हैं आरोप - प्रत्यारोप का सिलसिला , जिसमें अख़बार और टी वी माध्यम बन जाते हैं उनके कहे को शब्द देने के लिए । फिर यह सब एक खबर या घोटाला बन जाता हैं । जिसके अर्थ निकाले जाते हैं , लोगो के नाम उछालते हैं , फिर हानि - लाभ का अंदाज़ा भी आंक लिया जाता हैं । इस पूरे प्रकरण में अभियोजन कर्ता और जज दोनों ही भूमिका स्वयं मीडिया निभाता हैं । हमारे देश में '''आरोपी'''को '''बेगुनाह'' माना जाता हैं ,कम से कम अदालतों में तो यही कानून चलता हैं । परन्तु मीडिया में तो पहले से ही यह निश्चित हो जाता हैं की"" अपराधी कौन "" और खबरों को दलील की तरह प्रस्तुत किया जाता हैं । मीडिया की धमाचौकड़ी से सार्वजनिक जीवन में एक अनिश्चित सा वातावरण बन जाता हैं ।
अभी सुप्रीम कोर्ट के प्रधान
न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने मीडिया के ट्रायल पर टिप्पणी की थी की यह रुख़ काफी भ्रमित करने वाला हैं । हमारे खबरिया चैनलो ने इस बात को अपने बुलेटिन में जगह नहीं दी , क्योंकि यह उनके ""काम ""के विरुद्ध था । यह थी मीडिया की निष्पक्षता ? जो दोषी को सफाई का मौका बस इतना देता हैं की उनके कहे को लोगो को सुना देता हैं । सबूत के तौर पर उन लोगो के बयान जिनको न तो विषय ना ही मुद्दे की पूरी जानकारी होती हैं । कुछ उन लोगो के बयान जो हमेशा एक जैसे ही शब्द और रुख रखते हैं । अगर उन मुद्दों पर कोई आन्दोलन या जुलुस निकल गया तो उसे इस क़दर महत्वपूर्ण बनाने की कोशिस होती हैं जैसे की वह निर्णायक हो । इसका उदहारण पहले अन्ना का आन्दोलन था फिर ""दामिनी "" के बलात्कार पर उमड़े जन आक्रोश पर जन आन्दोलन की भावनात्मक रिपोर्टिंग , जिस से लोगो का आक्रोश तो बड़ा पर माहौल अशांत रहा , फलस्वरूप सामान्य स्थिति होने में काफी समय लगा । विवाद को शांत करने की बजाय उसमें आग पड़ती रही ।
दामिनी मामले में सरकार द्वारा गठित जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट किया गया की ''आरोपों ''की बुनियाद पर अपराध सिद्ध हुआ नहीं मान लिया जाना चाहिए , जैसा मीडिया में हुआ । आखिर कर फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने मीडिया के इसी रुख के कारण बंद कमरे में सुनवाई का फैसला किया । जिस से रोज - रोज होने वाली बहस सार्वजनिक विवाद का मुद्दा न बने । दोषी को अपराध सिद्ध हुए बगैर ही अपराधी नहीं करार दिया जा सकता । वैसे यह काम मीडिया के लाडले अरविन्द केजरीवाल काफी समय से करते आ रहे हैं । उनकी दलील रहती हैं की जो हम कह रहे हैं उसकी जांच जैसे हम कहे वैसे होनी चाहिये अब अगर लोफ स्वार्थ के कारन लोगो पर आरोप लगा दे तो सभी जांच करना संभव ही नहीं हैं । यही अन्ना हजारे और केजरीवाल करते रहे हैं । दरसल दोनों ही लोगो को भरपूर पब्लिसिटी देकर उन्हें राष्ट्रीय नेता की श्रेणी में लाने का असफल प्रयास मीडिया द्वारा किया गया ।
आरोप लगा कर खुद शोहरत पाने के प्रयास में अनेक लोगो की फजीहत की जाती हैं ,और जिसका इलाज ""मान हानि "" का दावा हैं । अम्बानी के विरुद्ध आरोप लगा कर जब केजरीवाल ने वाह वाही लूटने की कोशिस की तब अंबानी ने चैनलो को नतीजा भुगतने की चेतावनी दे दी थी । फलस्वरूप अघोसित रूप से उस मुद्दे को किसी खबरिया चैनल ने बुलेटिन में जगह नहीं दी ।
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान जज द्वारा मीडिया ट्रायल के बारे में यह टिपण्णी की '''आखिर अदालते भी प्रचार से प्रभावित हो जाती हैं'''\ इसी लिए निर्वाचन आयोग ने चैनलो द्वारा कराये जाने वाले चुनावी सर्वे पर रोक लगा रखी हैं , पर आदत से मजबूर टी वी बस पार्टियों को आठ शहरो के हज़ार लोगो की रॉय पर लोकसभा की सीट बाँट देती हैं । यह स्थापित तथ्य हैं की मीडिया न तो चुनाव जीता सकता हैं नहीं हरा सकता हैं , इसका उदहारण १ ९ ७ ७ के चुनाव परिणाम थे ,उस समय तक किसी ने कांग्रेस की पराजय की कल्पना भी नहीं की थी । दूसरी बार १ ९ ८ ० के चुनाव जब जनता पार्टी बुरी तरह हारी थी , तब किसी ने परिणामो के अंदाज़ नहीं लगाये थे ।
यूँ तो गुनाहगार और बेगुनाह का फैसला अदालतों में होता हैं , परन्तु विगत एक दशक से समाचार पत्रऔर टी वी चैनलो में खोजी पत्रकारिता के नाम पर एक मुद्दा पकड़ लिया जाता हैं , जिसे हफ्तों और महीनो तक चलाया जाता हैं । इस को ही घोटाले का नाम दिया जाता हैं । अब इस ''काण्ड'' को मीडिया घोटाले का भी नाम दे देता हैं । इस घोटाले का आधार कोई फाइल पर की गयी टीप होती हैं ,अथवा किसी असंतुष्ट पार्टी द्वारा उपलब्ध कराये गए कागजात होते हैं । आम तौर पर बड़ी - बड़ी खरीद के मामलो में अनेक लोगो के हित अहित जुड़े होते हैं । एवं अनेक कंपनियों के मध्य किसी एक को ही टेंडर या आर्डर मिलता हैं । तब शुरू हो जाता हैं आरोप - प्रत्यारोप का सिलसिला , जिसमें अख़बार और टी वी माध्यम बन जाते हैं उनके कहे को शब्द देने के लिए । फिर यह सब एक खबर या घोटाला बन जाता हैं । जिसके अर्थ निकाले जाते हैं , लोगो के नाम उछालते हैं , फिर हानि - लाभ का अंदाज़ा भी आंक लिया जाता हैं । इस पूरे प्रकरण में अभियोजन कर्ता और जज दोनों ही भूमिका स्वयं मीडिया निभाता हैं । हमारे देश में '''आरोपी'''को '''बेगुनाह'' माना जाता हैं ,कम से कम अदालतों में तो यही कानून चलता हैं । परन्तु मीडिया में तो पहले से ही यह निश्चित हो जाता हैं की"" अपराधी कौन "" और खबरों को दलील की तरह प्रस्तुत किया जाता हैं । मीडिया की धमाचौकड़ी से सार्वजनिक जीवन में एक अनिश्चित सा वातावरण बन जाता हैं ।
अभी सुप्रीम कोर्ट के प्रधान
न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने मीडिया के ट्रायल पर टिप्पणी की थी की यह रुख़ काफी भ्रमित करने वाला हैं । हमारे खबरिया चैनलो ने इस बात को अपने बुलेटिन में जगह नहीं दी , क्योंकि यह उनके ""काम ""के विरुद्ध था । यह थी मीडिया की निष्पक्षता ? जो दोषी को सफाई का मौका बस इतना देता हैं की उनके कहे को लोगो को सुना देता हैं । सबूत के तौर पर उन लोगो के बयान जिनको न तो विषय ना ही मुद्दे की पूरी जानकारी होती हैं । कुछ उन लोगो के बयान जो हमेशा एक जैसे ही शब्द और रुख रखते हैं । अगर उन मुद्दों पर कोई आन्दोलन या जुलुस निकल गया तो उसे इस क़दर महत्वपूर्ण बनाने की कोशिस होती हैं जैसे की वह निर्णायक हो । इसका उदहारण पहले अन्ना का आन्दोलन था फिर ""दामिनी "" के बलात्कार पर उमड़े जन आक्रोश पर जन आन्दोलन की भावनात्मक रिपोर्टिंग , जिस से लोगो का आक्रोश तो बड़ा पर माहौल अशांत रहा , फलस्वरूप सामान्य स्थिति होने में काफी समय लगा । विवाद को शांत करने की बजाय उसमें आग पड़ती रही ।
दामिनी मामले में सरकार द्वारा गठित जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट किया गया की ''आरोपों ''की बुनियाद पर अपराध सिद्ध हुआ नहीं मान लिया जाना चाहिए , जैसा मीडिया में हुआ । आखिर कर फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने मीडिया के इसी रुख के कारण बंद कमरे में सुनवाई का फैसला किया । जिस से रोज - रोज होने वाली बहस सार्वजनिक विवाद का मुद्दा न बने । दोषी को अपराध सिद्ध हुए बगैर ही अपराधी नहीं करार दिया जा सकता । वैसे यह काम मीडिया के लाडले अरविन्द केजरीवाल काफी समय से करते आ रहे हैं । उनकी दलील रहती हैं की जो हम कह रहे हैं उसकी जांच जैसे हम कहे वैसे होनी चाहिये अब अगर लोफ स्वार्थ के कारन लोगो पर आरोप लगा दे तो सभी जांच करना संभव ही नहीं हैं । यही अन्ना हजारे और केजरीवाल करते रहे हैं । दरसल दोनों ही लोगो को भरपूर पब्लिसिटी देकर उन्हें राष्ट्रीय नेता की श्रेणी में लाने का असफल प्रयास मीडिया द्वारा किया गया ।
आरोप लगा कर खुद शोहरत पाने के प्रयास में अनेक लोगो की फजीहत की जाती हैं ,और जिसका इलाज ""मान हानि "" का दावा हैं । अम्बानी के विरुद्ध आरोप लगा कर जब केजरीवाल ने वाह वाही लूटने की कोशिस की तब अंबानी ने चैनलो को नतीजा भुगतने की चेतावनी दे दी थी । फलस्वरूप अघोसित रूप से उस मुद्दे को किसी खबरिया चैनल ने बुलेटिन में जगह नहीं दी ।
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान जज द्वारा मीडिया ट्रायल के बारे में यह टिपण्णी की '''आखिर अदालते भी प्रचार से प्रभावित हो जाती हैं'''\ इसी लिए निर्वाचन आयोग ने चैनलो द्वारा कराये जाने वाले चुनावी सर्वे पर रोक लगा रखी हैं , पर आदत से मजबूर टी वी बस पार्टियों को आठ शहरो के हज़ार लोगो की रॉय पर लोकसभा की सीट बाँट देती हैं । यह स्थापित तथ्य हैं की मीडिया न तो चुनाव जीता सकता हैं नहीं हरा सकता हैं , इसका उदहारण १ ९ ७ ७ के चुनाव परिणाम थे ,उस समय तक किसी ने कांग्रेस की पराजय की कल्पना भी नहीं की थी । दूसरी बार १ ९ ८ ० के चुनाव जब जनता पार्टी बुरी तरह हारी थी , तब किसी ने परिणामो के अंदाज़ नहीं लगाये थे ।
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