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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari
Jul 30, 2014
ज़िंदगी या कैरियर चुनाव किसका ?आज के युवा की त्रासदी
आज जिधर भी नज़र दौड़ाओ युवको को प्रतियोगिता और -स्टडी फिर प्लेसमेंट की दौड़ मे भागते ही पाएंगे ,
कुछ लड़को से इस बारे मे मैंने बात कर के जानना चाहा की आखिर उनकी ज़िंदगी का मक़सद क्या है ? तो सभी का जवाब था की
अधिक से अधिक पैसा कमाना और उस से क्वालिटी टाइम स्पेंड करना , जब इस स्थिति के बारे मे विस्तार से पूछा तो उनके
जवाब थे --बड़िया फ्लॅट -बड़ी गाड़ी मोटा बैंक बैलेंस | रुपये से मनचाहा खाना खाना और कपड़े खरीदना "" बड़ी -बड़ी
कंपनियो के और नामचीन मोबाइल -टीवी सेट -साउंड सिस्टम आदि | जब मैंने उनसे उनकी दिनचर्या के बारे मे पूछा तो उनका जवाब
था की सुबह सादे नौ बजे ऑफिस पाहुचना वनहा से क्लाईंट के पास या मीटिंग मे जाना | दोपहर के भोजन के बारे मे उनका जवाब था
की सभी लोग कनही जाकर वर्किंग लंच करना , वह भी तीस मिनट से एक घंटे मे | फिर वही भागमभाग , रात आठ या नौ बजे
अपने रूम या फ्लॅट मे पहुँचना खाने के लिए अगर कुछ बना रखा है तो खा लेना और सादे दस बजे तक सो जाना | क्योंकि सुबह
सात बजे ट्रेन या बस पकड़ना होती है | यह दिनचर्या हफ्ते के छह दिन हो ऐसा नहींरविवार को भी कोई न कोई ऑफिस का अधूरा
असाइन्मंट पूरा करने के लिए मोबाइल पर लगे रहना | सिर्फ सोने के वक़्त को छोड़ कर बाकी समय तनाव बना रहना क्योंकि
क्लाईंट या असाइन्मंट का परिणाम क्या होगा असफल रहने पर बॉस को क्या जवाब देना होगा इस की चिंता मे लगे रहना मजबूरी
होती है | इसी तनाव से भरी स्थिति मे फ्लॅट या रूम पर वापसी यात्रा भी होती है , अगर कनही मोटर साइकल या कार से लौट
रहे है तो स्थिति और भी खतरनाक होती है की कनही गाड़ी का एक्सिडेंट न हो जाये | आज के युवा की सफलता की यह एक झांकी
है |
सवाल यह है की इस पूरे दौरान एक बार भी उन्हे अपने माता- पिता या घर की सुध नहीं आती है ,जंहा वे पड़े और बड़े
हुये , जिनहोने अपनी पूंजी लगा कर उन्हे पड़ाया -लिखाया , जो उसकी चिंता करते है | यह उपेक्षा कोई एक दो दिन नहीं होती
हफ़्तों और महीनो चलती है | घर से माता -पिता ही फोन से हाल -चाल पूछते है तो अलसाए भाव मे युवा टरका देते है |
क्योंकि उनकी दिनचर्या मे """माता -पिता और घर """ का कोई महत्व नहीं होता | जबकि उनके वर्तमान को बनाने मे वे
अपना भविस्य भी दाव पर लगा चुके होते है |परंतु परिवार से दूर --दोस्तो और परिचितों से अलग एक माहौल जनहा प्रश्नवाचक निगाहे
और शंका भरा वातावरण हो और महाभारत के अर्जुन की भांति ""उस से उम्मीद की जाती है की वह केवल कंपनी द्वारा दिये गए
लक्ष्य को उसी भांति एकाग्रता से प्राप्त करने का प्रयास """अहर्निश""" करता रहे | एक योगी की भांति आहार -विहार तथा किसी भी
अन्य सांसरिक ""चिंताओ"""को त्याग कर वह कुछ लोगो के एक समूह द्वारा """"लाभ अर्जन"""" के लिए किए जा रहे उद्यम को
ही एकमात्र उद्देस्य बनाए | अब जिन संगठनो के लिए उयकों से इस तन्मयता की उम्मीद की जाती है वे अनेक बार कानूनी एवं
सामाजिक रूप से धोखा और विश्वासघात के आरोपी बनते है | हथकड़ी लगती है अदालत और मीडिया उन्हे खलनायक निरूपित करता
है | अर्थात काम करने वाला युवक दिग्भ्रमित हो जाता है की वह परिवार मे सिखाये और विद्यालयो मे पड़ाए गए जीवन मूल्य को
को उचित माने अथवा """"सफलता """" को जीवन और कार्य का एकमात्र उद्देस्य समझे |
इस माहौल का एक ही आदर्श वाक्य होता है ""जो मैं चाह रहा हूँ वही अंतिम सत्य है ""तथा उसी को प्राप्त
करना ही मोक्ष के समान है | युवक को इस वातावरण मे रहते - रहते एक प्रकार की मानसिकता विकसित होती है जो ""उपलब्धि ""
को येन -केन पाने मे ही सफलता मानती है | वह साध्य को परम धर्म मानने लगती है उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की
जिस साधन से वह लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा है वे कानूनी और नैतिक स्टार पर गलत है | अगर उसे इस बात
पर टोका जाता है तब वह उन लोगो को अपना शत्रु और मूर्ख मानकर एक ही शब्द कहता है आप प्रैक्टिकल नहीं है | अब इस शब्द
मे उसकी भर्त्सना निहित है | इस प्रकार वह उन मूल्यो से पूरी तरह दूर हो जाता है जो उसे सिखाये गए थे | पैसे से सब कुछ
खरीदने की मानसिकता उसे अक्सर ""मानव से दानव """ बना देती है | यद्यपि समाज और सरकार मे इस वैल्यू सिस्टम को
उचित मानने वालों की संख्या कम भले ही हो परंतु वे निर्णायक हैसियत मे है | इस माहौल का परिणाम हम देखते है की बड़े -बड़े
नाम जब समाचारो मे सुरखिया बनते है तो किसी भले कार्यो के लिए नहीं वरन एक अभियुक्त और कानून तोड़ने वाले के रूप मे |
तब समाज मे जो लोग धन और सुविधाओ से व्यक्ति की हैसियत और सफलता आँकते है ---वे भी भरमीट हो कर कहते है """अरे
इसको ऐसा तो नहीं सोचा था """"' सत्यम घोटाले के समय स्टॉक एक्स्चेंज और व्यापारिक हलको मे अलावा आम निवेशको के
विश्वास को भी धक्का लगा था | तब शायद स्टॉक मार्केट के बारे मे लिखी या बताई गयी बातों और सूचनाओ पर प्रश्न चिन्ह
लगने की शुरुआत थी | यू तो अनेक कांड हो गए परंतु इस मार्केटिंग युग का चलन का मिजाज नहीं बदला | परिणाम स्वरूप
अक्सर बड़ी - बड़ी कंपनियो मे कार्यरत युवक अनेक घटिया अपराधो मे पकड़े जाते है, अथवा पकड़े जाने की आशंका से आत्महत्या
करते है |
इस प्रकार एक स्वर्णिम अवसर धूल धूसरित होता है | वर्षो की शिक्षा और मेहनत माता-पिता की तपस्या असमय ही
दम तोड़ देती है |जीवन के संध्या काल मे जब ऐसे माता - पिता सहारे की आस मे होते है तब अक्सर उन्हे खुद परिवार का आसरा
और सहारा बनना पड़ता है | सवाल यह है की असमय मे महत्वाकांछा के लिए बलि चद्ते ऐसे जीवन से नाही परिवार अथवा समाज
का भला होता है ना ही देश का | तब सोचने पर कोई मजबूर होता है की क्या आज की भागम भाग उचित है या जीवन मे संतोष
से थोड़े मे अपने परिवार जनो के साथ वक़्त बिताना ज्यादा श्रेयस्कर है ,बजाय इसके की बड़ी गाड़ी मोटा बैंक बैलेंस सजा हुआ फ्लॅट
हो ? सवाल अभी भी अनुतरित है ?परंतु उत्तर खोज्न होगा वरना पीड़ी की पीड़ी इस म्रग मारीचिका के पीछे भागता रहेगा | वह खुद
और समाज तथा देश खोखला होता रहेगा |
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