कलाम के सिपाही यानि की पत्रकार का एक नाम हुआ करता था , --हालांकि वह नाम आज भी मौजू है पर अब कलाम की जगह की बोर्ड आ गया है | इसे ही हम प्रिंट पत्रकारिता मे डिजिटल युग का प्रारम्भ भी कह सकते है | पहले समाचार पात्रो के दफ्तरो मे अखबारी कागज की ''खुसबू'''' और और बड़ी - बड़ी मेज़ों पर न्यूज़ प्रिंट के कटे कागज जिन पर सब एडिटर न्यूज़ एजन्सि के रोल्ल निकाल कर खबर बनाते {{{लिखते}}}} थे | स्याही और न्यूज़ प्रिंट की विशेष सुगंध ही सभी छोटे या बड़े समाचार पत्रो के दफ्तरो मे एक सी हुआ करती थी | नामी - गिरामी पत्र हो या ज़िले से निकालने वाला '' चौपतिया''' हो दागतरों मे एक जैसा माहौल हुआ करता था | समाचार संपादक के फोन का इस्तेमाल दफ्तरो मे अफसरो से बात करने //या खबर की पुष्टि करने के लिया किया जाता था | थाने- अस्पताल और स्टेशन से रात की शिफ्ट वालो को बात करना ज़रूरी होता था | क्योंकि इन जगहो से """''छपते -छपते''' के कालम के लिए अंतिम समाचार लिए जाते थे | पर अब वैसा नहीं है ||
क्योंकि संचार क्रान्ति ने पत्रकारिता और समाचार पत्रो की दुनिया और ''मिजाज''' को भी बदल दिया है | अब पत्रो के दफ्तर अक्सर छापे खानो से दूर होते है ----तब ये एक साथ होते थे , जैसे एक घर | पर अब औदोगिक क्रांति और व्यवसायिकता ने इस '''घर को बाँट दिया'''' है | अब पत्रकार और गैर पत्रकार का भेद है | तब सभी अखबार के करमचारी हुआ करते थे | संस्थानो मे अक्सर आर्थिक दिकक्ते आती थी -- पर सब मिलजुल कर '''बाँट''' लेते थे | तब सभी '''काम के बंदे थे''''' अब जैसा नहीं की संपादक ही कई प्रकार के होते है हर संसकरण के लिए अलग '' इंचार्ज '' , समाचार के लिए अलग और ''विचार''' के लिए अलग , पुस्तक समीक्छा के लिए अलग संपादक | गोया की अब पत्र -पत्रिकाओ का दफ्तर सनातन धर्म की भांति ही अनेक जातियो और उप जातियो मे विभाजित है |
परंतु तकनीकी रूप से काम करने की '''गति''' मे तेज़ी तो आई है , परंतु बौद्धिकता --अध्ययन का दिवला निकाल चुका है | पहले रिपोर्टर दफ्तर - दफ्तर खबर के लिए फिरता था --- दूसरे अखबारो के साथियो से समाचार साझा करते थे | एक बिरादरी की भावना थी | अब आपस मे प्रतियोगिता है | खबर लाने मे अव्वल कौन का जमाना आ गया है | खबर अच्छी कौन लिखता है --किसका ढंग प्रस्तुति करण बड़िया है या किसका ''इंटरों''' धानसु है ---तब इस पर चर्चा होती थी | सफलता इन गुणो पर निर्भर करती थी | अब तो मोबाइल पर खबर मिलती है और लिख दी जाती है | पहले खबर को तार्किक और तथ्यो पर तौला जाता था --संपादक जाँचते भी थे | अब तो किसी बड़े नेता या अफसर ने '''उगला ''' और हमने उसे '''निगला''' और ला कर खबर बना दी |
अखबार कागज पर भले ही छपे पर उसके दफ्तर मे अब ''' पेपर लेस """" काम है । लैपटाप और कम्प्युटर पर अंगुलिया चलती है कलाम नहीं चलती | अब पत्रकारिता के पेशे का मतलब '''सत्ता के गलियारो के लोगो के कंधो से कंधा रगड़ना """ हो गया है | नेता और अफसर भी अब उस संवाददाता को नहीं उसके संस्थान --और उसके मालिक को जानता है | संस्थान अब बिजनेस हाउस बन गए है ----संपादक की हैसियत भी एक अदना से करामचरि जैसी हो गयी है | क्योंकि अब अखबार के दफ्तर मे अब मालिक का कैबिन है --जो अंतर्यामी की भांति यह नज़र रखता है की कनही उसके """" स्वार्थो"""" पर कुठराघात तो नहीं हो रहा है , यानि की जिस अफसर से कोई काम है उसके खिलाफ कोई खबर तो नहीं जा रही है ?? भले ही वह खबर या घटना वास्तविक रूप से सत्या हो | स्वतंत्र पत्रकारिता एक मिथक बन कर रह गया है || आज़ादी समाचार पत्रो के लिए अर्थात मालिक के लिए हो गयी है उसमे काम करने वाले '''पत्रकार की नहीं ''''' बस यही परिवर्तन हुआ है की स्पीड तो बहुत आई लेकिन राह बादल गयी --- फायदा उद्देस्य हो गया है सत्य नहीं ||| इति
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