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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari
Apr 11, 2014
चुनाव से गायब होते मुद्दे और बयान बनते प्रचार के मुद्दे
यूं तो हर चुनाव मे कुछ प्रमुख मुद्दे होते हैं जिनके बारे मे प्रत्येक पार्टी की कुछ राय होती है | परंतु इस बार [2014] के
लोकसभा चुनावो मे ऐसा नहीं है | चूंकि भारतीय जनता पार्टी ने इस बार अपनी स्थापित परम्पराओ से हट कर --संगठन आधारित प्रचार
की जगह ,व्यक्ति को अपने संग्राम के केंद्र मे रखा|एक एक काडर बेस पार्टी का यह परिवर्तन थोड़ा सा अटपटा जरूर लगा | फिर यह समझ
आया की चुनावी संग्राम मे विजय की यह रणनीति ही शायद सफलता दिला सकती हो ? इसलिए इस संसदीय चुनवो मे प्रचार इस प्रकार हुआ
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव मे प्रतायशी को केंद्र बिन्दु रख कर सारी नीतिया और मुद्दे पर उसके विचारो से चुनाव लड़ा जाता हैं |यानि वाहा
उम्मीदवार ही अपनी पार्टी का भावी चेहरा होता हैं |क्योंकि वह '''अकेला'''ही सरकार होता हैं | पर संसदीय चुनवो मे पार्टी फोरम पर
लिए गए फैसले ही --चुनावी घोसणा पत्र बनता हैं , जो एक तरह से मतदाताओ से किए गए वादे का दस्तावेज़ होता हैं | जिसकी सिर्फ
''नैतिक'''महता होती है | अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव मे सिर्फ उस उम्मीदवार के कुछ वादे होते है अपनेदेश की जनता से -बस |
उन पर ही उसकी ''जय - पराजय''सुनिश्चित हो जाती है | वनहा अक्सर दो - एक ही मुद्दे राष्ट्रिय मुद्दे होते है ,अधिकतर तो राज्यो की
समस्याओ पर ''आसवासन''' होते हैं | परंतु इस बार बीजेपी ने अपनी रन नीति को अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनाव की भांति ही इलाकाई
मुद्दो पर मोदी के बयान कराये |जिनहे एक तरह से चुनावी वादे कहे जा सकते हैं | हालांकि जब लोकसभा के लिए मतदान का पहला चरण
प्रारम्भ हुआ तब इस राष्ट्रिय पार्टी का ''''चुनाव घोसणा पत्र '''सार्वजनिक किया गया | जबकि उनके प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र
'''अपना''' प्रचार तीन माह पूर्वा ही शुरू कर चुके थे -वह भी काफी धूम -धड़ाके से बिलकुल राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज़ पर |
जिस अमेरिकी कंपनी को चुनाव प्राचार की ज़िम्मेदारी दी गयी थी उसने ''भावी प्र्तयाशी '''के बयानो को ही चुनावी
वादे मान कर टीवी चैनलो और अखबारो रेडियो पर ऐसी विज्ञापनो की बाद लगाई की जैसी आज के पूर्व कभी नहीं देखी गयी थी |वजह
चुनावी लड़ाई की रणनीति मे आमूल - कूल बदलाव था | जिसके लिए दूसरे राजनीतिक दल तैयार नहीं थे | इससे पहले चुनाव प्रचार
निर्वाचन आयोग द्वारा मतदान की तारीखों की घोसणा के बाद ही प्रचार के अखाड़े मे कूदते थे | पर इस बार वे पीछे रह गए | बीजेपी नेता ने
चुनाव के चार माह पहले से ही 3 डी के माध्यमों से एक साथ काँग्रेस और गांधी परिवार तथा प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर हमला शुरू
कर के ''इरादा''' साफ कर दिया था | करोड़ो रुपये खर्च कर के रेल गाड़ियो से बसो से लाखो की भीड़ जुटाई गयी | लाल किला या संसद
भवन की नकल पर मंच से भासण कर के यह साबित करने की कोशिस की यह कोई मुश्किल काम नहीं है | मतलब देश को चलाना कठिन
नहीं है | तभी उन्होने काला धन ---आतंकवाद --विदेशो से संबंध जैसे महत्वपूर्ण मसलो को सड़क पर उतार दिया इतना ही नहीं लोगो
के दिमाग मे यह भी प्रचार माध्यमों से बैठाने की कोशिस की उनके पास तो ''देश की सभी समस्याओ '''' का हल है | इतना ही नहीं
उन्होने देश के इतिहास पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए ,और आज़ादी के बाद के विकाश और शिक्षा तथा इतिहास को धिकारने लगे |
परंतु चुनाव प्रचार भी अपने विरोधियो को नाटकीय प्रकार से भासण द्वारा नीचा दिखने तक ही सीमित रहा|भ्रस्ताचार का
सवाल और विकास की बात धीरे -धीरे पीछे छूट गयी | व्यंग और आरोपात्मक शैली मे जन्म और जीवन शैली ज्यादा चर्चा के मुद्दे बन
गए , | ऐसे सवाल जिनका राष्ट्रिय राजनीति से कोई मतलब नहीं , जिन पर कोई बहस नहीं हो सकती वो बाते चटखारे ले कर
सोशल मीडिया पर मुहिम सी बन गयी | दो दो लाइन की फबतिया और भद्दी टिप्पणिया चटखारे ले कर चाय और पान की दूकानों पर दावो
की भांति गीता के सत्य की तरह चर्चित होने लगी | ये कथन अधिकतर चरित्र और भरास्ताचर के बारे मे पर्चे बाजी और बयानो के आधार
पर की जाती थी |
किस्सा -कोताह यह की देश की राजनीति के मुद्दे प्रचार से गायब हो गए | चूंकि अधिक प्रचार टीवी के जरिये हो
रहा था , इसलिए कुछ भी कहा सुना रेकॉर्ड बन के दस्तावेजी प्रमाण बन जाता है |इस लिए सभी पर्टिया एक दूसरे के लिए प्रश्नकर्ता बन गयी
और सवालो के जवाब देने की फुर्सत भी किसी दल मे नहीं दिखाई पड़ी |आलम यह हुआ की तुमने तब यह किया--- हमने ऐसा किया -आदि
के साथ आरोप - प्रत्यारोप लगने शुरू हो गए |, उनके जवाब और सफाई मे ही विकास और बेईमानी का सवाल दब गया जैसे गरीब
की अर्जी अदालत और अफसर के यंहा फाइलों के नीचे गुम हो जाती है , वैसे ही असली मुद्दे भी चुनाव के छितिज से गायब हो गए
उनके स्थान पर ''हल्के-फुल्के'''बयान विकल्प के रूप मे सामने आए | अब मतदाता मुद्दो पर तो वोट दे नहीं सकता , अतः पार्टी
ज़ाती - धर्म --इलाका ही निर्णायक बन गए ----जैसा पिछले चुनावो मे होता आया हैं | भारतेन्दु हरिश्चंद्र के शब्दो मे दुर्भाग्य -
हत भारत देश .................
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