फर्जी मोहरो ने वज़ीरो को घेर कर भगाया ,, यही कहा जा सकता है ''आप'' पार्टी मे हुए घमासान के बारे मे | प्रशांत भूसण और योगेंद्र यादव को पार्टी की राजनीतिक समिति से बाहर किए जाने के फैसले की | इस विषय पर हुए मतदान मे 12 सदस्यो ने जहा इस फैसले का समर्थन किया वही 8 सदस्यो ने इस निरण्य का विरोध किया | इसका स्पष्ट अर्थ तो यही है की नेत्रत्व और पार्टी की नीति के बारे मे सर्वोच निकाय मे सर्वानुमती नहीं नहीं है | अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी और लोकपाल की नियुक्ति को लेकर हुए आंदोलन ने देश मे एक नयी जागरूकता पैदा की थी --जिस से प्रभावित हो कर देश के नौजवानो मे एक नयी स्फूर्ति भर दी थी | प्रबंधन और इंजीनियरिंग के छात्रो और स्नातको मे देश की समस्या और राजनीतिक नेत्रत्व के बारे मे पनप रहे आक्रोश को एक ''मुकाम'' मिला था | वे संगठित भी हुए और --आंदोलन ने देश के अन्य महानगरो मे भी असंतोष फूट पड़ा था --जो धारणा -प्रदर्शन के रूप मे दिखाई पड़ा | जनता के इसी दबाव के आगे मनमोहन सिंह सरकार को झुक कर रामदेव ऐसे व्यक्ति की अगवानी के लिए तीन केन्द्रीय मंत्रियो को भेजना पड़ा की वे जा कर वार्ता का रास्ता निकाले | परंतु जैसा की तब संदेह जताया जा रहा था की गेरुआ वस्त्रधारी रामदेव संघ और भारतीय जनता पार्टी के अजेंडा को आगे करने का काम कर रहे ----वह उनके रामलीला मैदान मे हुए घटना क्रम से साफ हो गया था | काला धन विदेशो से वापस लाने की '' तरकीब'' सुझाने वाले सुबरमानियन स्वामी और उनके जैसे लोग भी इस आंदोलन मे सुर मिलने लगे |
परंतु अन्ना हज़ारे ने राजनेताओ से मंच साझा ना करने की ''टेक'' ने किसी भी दल को सामने से इस आंदोलन का श्रेय लेने का मौका नहीं दिया | संघर्ष जारी रहा लोकसभा चुनावो की घंटिया बजने लगी थी | भारतीय जनता पार्टी ने आंदोलन के मुद्दो को आगे कर के मंदिर को पीछे धकेल दिया | नरेंद्र मोदी जी ने आंदोलन के आरोपो को हथियार बनाकर लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्हे ''अपराध'' सीधा करने की सफल कोशिस की | और वे इस प्रयास मे अप्रत्याशित रूप से सफल हुए लोगो को उनकी बातों पर भरोसा इसलिए हुआ क्योंकि ''उन्हे''''अन्ना के आंदोलन मे उठाया गया था | तब किसी ने उनकी ''सत्यता''' को परखने का प्रयास नहीं किया | क्योंकि वे एक ''गैर राजनीतिक मंच''' से उठाए गए थे | इसलिए वे आम लोगो को सत्य प्रतीत हुए | लोगो ने उनकी वास्तविकता ''परखने'' के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया ,, फलस्वरूप एक तरफा मतदान हुआ और परिणाम लोक सभा चुनावो के रूप मे आया ||
खैर यह तो बात हुयी पुरानी ,, लेकिन जिस अन्ना आंदोलन की उपज से ''आप'' पार्टी का उद्भव हुआ और उसके युवा नेत्रत्व निकला उसने देश वासियो को दिल्ली से मुंबई तक एक नयी चेतना दी | लगा की बिना पैसे के भी चंदे के बल पर चुनाव लड़े जा सकते है ,बशर्ते जनता को आप उनके मुद्दो और उनके समाधान को स्पष्ट कर सके | बिजली - पानी के मुद्दे से यद्यपि दिल्ली के बीस फीसदी मतदाता ही लाभ लेय पाएंगे | परंतु प्रयासो की सत्यता ही पर्याप्त था उन्हे संतोष देने के लिए | उम्मीद की जा रही थी की यह नेत्रत्व देश मे एक ऐसी '' अलख'''' जगाएगा जो इस सदी हुई व्यसथा को झखझोर देगा | परंतु सत्ता पर पकड़ और पार्टी मे एकल वर्चस्व की महत्वाकांचा ने बीच राह मे ही शंकाए उत्पन्न कर दी | दोनों संस्थापक सदस्यो को नीति -निर्धारक निकाय से बाहर किए जाने के फैसले ने एक प्रश्न खड़ा कर दिया है की ----अब पार्टी की राह किस ओर ??? यह सर्व विदित है की योगेंद्र यादव और प्रोफेससर आनंद कुमार और प्रशांत भूसण समाजवादी रुझान वाले लोग है | केजरीवाल -सीसोदिया -संजय सिंह और अन्य लोग सिर्फ केजरीवाल के अनुगामी है | उनके लिए '''लोक कल्याण नीति '''''ही एक शब्द है जो उनके कार्यो और -फैसलो को सीध करता है | इन लोगो को इस बात से कोई लेना -देना नहीं की हमारी क्या विचारधारा हो अथवा उस को अमली जामा पहनाने के लिए किस प्रकार की प्रथमिकताए तय हो कैसे कार्यक्रम बने आदि |
अब ऐसा प्रतीत होता है की अपने वादो को पूरा करने के लिए संसाधनो और तरीको को खोजने मे ही सरकार की शक्ति लगेगी | ठीक भी है की लोगो को यह तो लगे की दूसरी पार्टियो की तरह ""आप""" वाले भी झूठे वादे नहीं करते है | वरन जो कहा ,उसे पूरा करने का प्रयास किया | लेकिन बिना दिशा की नाव राजनीति के भँवर मे कब कैसे फसेगी और कौन इसके सहयोगी होंगे यह सब अनिश्चित है | अभी आप का सरकार का गठन भौतिकी की प्रयोगशाला के प्रयोग की भांति है ---जिसका परीक्षण अन्य धरातल पर भी होना है | एवं विचारधारा की शून्यता इन्हे कान्हा ले जाए पता नहीं | क्योंकि इस फैसले के बाद ही ही सोशल मीडिया मे आना शुरू हो गया है की अब ''आप''' पार्टी अरविंद आलों पार्टी अथवा अरविंद अरविंद पार्टी हो गयी है |यह इनके लिए अशुभ संकेत है | क्योंकि जिस गति से इन्हे दिल्ली की विधान सभा मे पूर्ण बहुमत मिला है वह कनही जल्दी ही बिखरने न लगे | क्योंकि कहा गाय है की ''''जो जितनी गति से ऊपर जाता है ,, उस से ज्यादा गति से नीचे भी आता है ''' अगर ऐसा हूर तो भारतीय गणतन्त्र के लिए भी वह स्वास्थ्यवर्धक नहीं होगा |
इति
परंतु अन्ना हज़ारे ने राजनेताओ से मंच साझा ना करने की ''टेक'' ने किसी भी दल को सामने से इस आंदोलन का श्रेय लेने का मौका नहीं दिया | संघर्ष जारी रहा लोकसभा चुनावो की घंटिया बजने लगी थी | भारतीय जनता पार्टी ने आंदोलन के मुद्दो को आगे कर के मंदिर को पीछे धकेल दिया | नरेंद्र मोदी जी ने आंदोलन के आरोपो को हथियार बनाकर लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्हे ''अपराध'' सीधा करने की सफल कोशिस की | और वे इस प्रयास मे अप्रत्याशित रूप से सफल हुए लोगो को उनकी बातों पर भरोसा इसलिए हुआ क्योंकि ''उन्हे''''अन्ना के आंदोलन मे उठाया गया था | तब किसी ने उनकी ''सत्यता''' को परखने का प्रयास नहीं किया | क्योंकि वे एक ''गैर राजनीतिक मंच''' से उठाए गए थे | इसलिए वे आम लोगो को सत्य प्रतीत हुए | लोगो ने उनकी वास्तविकता ''परखने'' के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया ,, फलस्वरूप एक तरफा मतदान हुआ और परिणाम लोक सभा चुनावो के रूप मे आया ||
खैर यह तो बात हुयी पुरानी ,, लेकिन जिस अन्ना आंदोलन की उपज से ''आप'' पार्टी का उद्भव हुआ और उसके युवा नेत्रत्व निकला उसने देश वासियो को दिल्ली से मुंबई तक एक नयी चेतना दी | लगा की बिना पैसे के भी चंदे के बल पर चुनाव लड़े जा सकते है ,बशर्ते जनता को आप उनके मुद्दो और उनके समाधान को स्पष्ट कर सके | बिजली - पानी के मुद्दे से यद्यपि दिल्ली के बीस फीसदी मतदाता ही लाभ लेय पाएंगे | परंतु प्रयासो की सत्यता ही पर्याप्त था उन्हे संतोष देने के लिए | उम्मीद की जा रही थी की यह नेत्रत्व देश मे एक ऐसी '' अलख'''' जगाएगा जो इस सदी हुई व्यसथा को झखझोर देगा | परंतु सत्ता पर पकड़ और पार्टी मे एकल वर्चस्व की महत्वाकांचा ने बीच राह मे ही शंकाए उत्पन्न कर दी | दोनों संस्थापक सदस्यो को नीति -निर्धारक निकाय से बाहर किए जाने के फैसले ने एक प्रश्न खड़ा कर दिया है की ----अब पार्टी की राह किस ओर ??? यह सर्व विदित है की योगेंद्र यादव और प्रोफेससर आनंद कुमार और प्रशांत भूसण समाजवादी रुझान वाले लोग है | केजरीवाल -सीसोदिया -संजय सिंह और अन्य लोग सिर्फ केजरीवाल के अनुगामी है | उनके लिए '''लोक कल्याण नीति '''''ही एक शब्द है जो उनके कार्यो और -फैसलो को सीध करता है | इन लोगो को इस बात से कोई लेना -देना नहीं की हमारी क्या विचारधारा हो अथवा उस को अमली जामा पहनाने के लिए किस प्रकार की प्रथमिकताए तय हो कैसे कार्यक्रम बने आदि |
अब ऐसा प्रतीत होता है की अपने वादो को पूरा करने के लिए संसाधनो और तरीको को खोजने मे ही सरकार की शक्ति लगेगी | ठीक भी है की लोगो को यह तो लगे की दूसरी पार्टियो की तरह ""आप""" वाले भी झूठे वादे नहीं करते है | वरन जो कहा ,उसे पूरा करने का प्रयास किया | लेकिन बिना दिशा की नाव राजनीति के भँवर मे कब कैसे फसेगी और कौन इसके सहयोगी होंगे यह सब अनिश्चित है | अभी आप का सरकार का गठन भौतिकी की प्रयोगशाला के प्रयोग की भांति है ---जिसका परीक्षण अन्य धरातल पर भी होना है | एवं विचारधारा की शून्यता इन्हे कान्हा ले जाए पता नहीं | क्योंकि इस फैसले के बाद ही ही सोशल मीडिया मे आना शुरू हो गया है की अब ''आप''' पार्टी अरविंद आलों पार्टी अथवा अरविंद अरविंद पार्टी हो गयी है |यह इनके लिए अशुभ संकेत है | क्योंकि जिस गति से इन्हे दिल्ली की विधान सभा मे पूर्ण बहुमत मिला है वह कनही जल्दी ही बिखरने न लगे | क्योंकि कहा गाय है की ''''जो जितनी गति से ऊपर जाता है ,, उस से ज्यादा गति से नीचे भी आता है ''' अगर ऐसा हूर तो भारतीय गणतन्त्र के लिए भी वह स्वास्थ्यवर्धक नहीं होगा |
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