धर्म
मे वैज्ञानिकता और अश्वमेघ
का शंखनाद
दुनिया
के सभी धर्म आस्था और विश्वास
पर आधारित है
,,शुरुआती
वक़्त मे सभी धर्म निराकार और
साकार देवताओ की अवधारणाओ
से युक्त थे |
असीरियन
और बेबीलोन सभ्यताओ मे "”गिल
गिलमेश "”
की
मूर्ति थी ,उनके
यहा भी देवता को प्रशन्न करने
के लिए बलि ही दी जाती थी |
वह
प्रथा बाद मे मूसा के पूर्व
एक ईश्वर की अवधारणा अनेक
जातियो मे प्रचलित हो चुकी
थी |
कबीले
मे रहने वाले लोगो के लिए भिन्न
- भिन्न
देवताओ की भी कल्पना प्रचलित
थी |
अधिकतर
देवता प्रकरतीक शक्तियों के
प्रतिनिधि और स्वामी माने
जाते थे |
यूनान
की सभ्यता मे भी अनेक देवी
और देवताओ की कल्पना थी |
वेदिक
धर्म मे भी प्राकरतीक शक्तियों
के स्वामी माने जाते है |
वही
त्रिदेव की भी कल्पना वेदिक
धर्म मे की गयी है ---एक
जो इस दुनिया के सभी जीव -
जन्तुओ
को जन्म देता है दूसरा विष्णु
जो इन सब का पालन करते है और
शिव जो इस विश्व का संहार करते
है |वेदो
मे इन त्रिदेवो के अलावा
प्र्क्रतिक शक्तियों के भी
अधिदेवता है --जैसे
देवराज इंद्र आदि |
इन
देवो मे अग्नि का सबसे अधिक
महत्व है |
क्योंकि
यज्ञ मे विभिन्न देवताओ को
अर्पित की जाने वाली आहुतियों
को स्वीकार करके वे ही संबन्धित
देव तक पाहुचने का काम करते
है |
इनके
अलावा शाक्त संप्रदाय मे
अनेक देवियो की कल्पना की गयी
है |
दुर्गा
सप्तशती के अनुसार महा काली
- महा
सरस्वती और महा लक्ष्मी से
प्रारम्भ हुई स्तुति दुर्गा
या चंडिका तक पाहुचती है |
ग्यारहवे
अध्याय मे मे देवी ऋषि की स्तुति
से प्रसन्न हो कर शताक्षी-शाकंभरी
--दुर्गा
और भीमा देवी तथा भ्रामरी रूप
मे आने का वचन दिया |
वही
शैव संप्रदाय भी शिव के अनेक
रूपो मे पूजा करता है |
डॉ
संपूर्णनाद की पुस्तक देव
परिवार मे वेदिक धर्मो के
डीवीआई देवताओ के आविर्भाव
की कथादी हुई है |
परंतु
ऋगवेद मे प्राकरतीक शक्तियों
की स्तुति है उसमे ब्र्म्हांड
का ज्ञान है |
सौर
मण्डल -तारे
आदि की जानकारी भी दी गयी है
| परंतु
उस समय सूर्य -इन्द्र
और वरुण मुख्य थे |
अग्नि
को तो वायु के समान सर्वव्यापी
माना गया है +
| परंतु
दो मात्र शक्तियों का उल्लेख
भी है |
ऋषि
विश्वामित्र द्वारा माता
गायत्री का तथा देवी वागम्भ्रणि
द्वारा आदि शक्ति का प्राक्कट्य
बताया गया है |
उसमे
शिव -विष्णु
और ब्रमहा का उल्लेख नहीं है
|
इस
सबका आशय यह बताना है की इसमे
ज्ञान है -
अनुभूव
और अनुभूति है परंतु वैज्ञानिकता
नहीं है |
केवल
अथर्व वेद मे विज्ञान सम्मत
कुछ प्रयोग दिये गए है |
जो
गणित की भांति निश्चित है |
परंतु
इस वेद को आदिगुरु शंकराचार्य
ने मान्यता नहीं दी है |
अपनी
प्रथम रचना मे ही उन्होने महा
लक्ष्मी की स्तुति मे उन्हे
तीन वेदो की स्वामिनी कहा है
| आदिगुरु
का काल नवी शताब्दी है |
अतः
यह मानना चाहिए की तब तक अथर्ववेद
को वेद की मान्यता मे भेद था
| वस्तुतः
भ्र्गु वंशी ब्रामहण इस वेद
के अनुयाई थे |
गुजरात
से नर्मदा और विंध्य के पार
आर्यावर्त मे इनको मान्यता
नहीं थी |
धर्म
दर्शन आधारित होते है |
उसी
दर्शन से उपासना का स्वरूप
तय होता है |
वेदिक
धर्म मे मूलतः "”निराकार
"””
परमात्मा
की कल्पना की गयी है |
एवं
निराकार मे वैज्ञानिकता खोजना
भूसे मे सुई खोजने के समान है
- हा
धर्म से संलग्न ज्ञान की अन्य
धाराओ मे यह उपलब्ध था |
ऋगवेद
मे जिन दो शक्तियों आदिशक्ति
एवं गायत्री की स्तुति की
गायी गयी उसमे उनकी शक्ति का
वर्णन है परंतु उनके स्वरूप
के बारे मे नहीं कहा गया है |
वस्तुतः
वे निराकार ही है |
ज्ञानी
जन उनके स्वरूप को प्रकाशित
शिखा जैसा निरूपित किया है
| आश्चर्य
है की पारसियों के देवता
"”आहुरमजदा
"”
भी
निराकार ही है उनकी उपस्थिती
"”अग्नि
"”
से
मानी जाती है |
वेद
की अन्य शाखा जैसे आयुर्वेद
- जिसमे
वनस्पति और पेड़ पौधो के सभी
अंगो के गुण और अवगुण उल्लखित
थे |
खगोल
शास्त्र -
गणित
-ज्यामिती
आदि निश्चित विज्ञान की श्रेणी
मे आते है |
परंतु
ये धर्म से इतर है |
एवं
इंका आधार “”ज्ञान””है |
| आस्था
मे विश्वास होता है – तर्क का
क्यू और कैसे नहीं होता |
यदि
इसे धर्म को परखने की कसौटी
बनाएँगे तो संसार का कोई भी
धर्म इस पर सफल नहीं होगा |वेदिक
धर्म के प्र्नेताओ को यह भान
था की समाज मे सभी स्त्री -
पुरुष
एक मेघा के नहीं होते है |
बिरले
ही प्रश्न करते है ||
बहुमत
तो '''महाजनो
येन गाता सा प्ंथा'''
के
पीछे चलते है |
उन्हे
सत्य का ज्ञान अन्य प्रकार
से कराया जाता था |
|पुराणो
का लेखन इसी श्रखला मे हुआ था
| साधारण
जन उसे सुन कर अपने विश्वास
को मजबूत करते थे |
इनमे
सत्य तो है पर "'पूर्ण
सत्य "”
नहीं
| वेदिक
धर्म मे जहा सम्पूर्ण अन्तरिक्ष
और उसके तारा मंडलो एवं उनकी
गति तथा दूरी का ज्ञान ऋचाओ
मे लिपिबद्ध है |
उसे
अगर धर्म की "”वैज्ञानिकता
माने तो ---वह
"”ज्ञान
"”है
| उसमे
श्रद्धा नहीं है |
ज्ञान
तलवार की धार की भांति है उसमे
केवल ''सही
''' होता
है और उसकी कसौटी पर नहीं खरा
उतरा वह सत्य नहीं होता |
शास्त्रार्थ
ज्ञान के आधार पर होते थे
---श्रद्धा
के आधार पर नहीं |
सत्य
का आधार तथ्य होते है जिनहे
खोजने की प्रक्रिया ''तर्क
शास्त्र "”
से
सीध की जाती थी |
आदिगुरु
और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ
ऐसा ही एक उदाहरण है |
राजपूत
काल मे जब भक्ति आंदोलन का
प्रभाव बढा तब निष्काम आराधना
का तिरोहण हो गया |
आरध्या
के मंदिरो मे ''मानता
और मनौती "”
की
परंपरा शुरू हो चुकी थी |
यूं
तो वेदिक काल मे देवता -
मनुष्य
और दानव तथा राक्षस सभी ने
तपस्या द्वारा अपने अभीष्ट
को प्रपट किया था |
अवतारो
की कथा भी "”वरदान
"”
की
कामना को स्पष्ट करती है |
अब
इसे पारखे तो यह भी श्रद्धा
का परिणाम है |
ज्ञान
का नहीं |
हालांकि
मुनिकुमार नचिकेता को यम
द्वारा दिया ज्ञान और सत्य
की खोज के लिए उनके सुझाए रास्ते
को ज्ञान कहा जाएगा |
लेवकिन
आज के युग की भौतिकी और रसायन
के "”टेस्ट
"”
के
अनुकूल तो नहीं होंगे |
यहा
वेद मे विस्तार पूर्वक वर्णित
और बहुपयोगी "”सोम
"”
लता
का पता "”निश्चित
रूप से "””नहीं
लगे जा सका है |
शोध
द्वारा बस इतना ही कहा जाता
या लिखा गया है की अमुक वनस्पति
''सोम
'' के
गुणो वाली है |
आम
प्रचलन मे आयुर्वेद
औषधि
है "”च्यवन
प्राश "””
इसे
"””अष्टवर्ग"”
युक्त
लिखा जाता है ---परंतु
निर्माताओ ने इस विषय मे जानकारी
मांगे जाने पर "”चार
वर्गो "”
की
उपलब्धि कन्हा से होती है
---काफी
गोपनियता बरती है |
आम
तौर अब मान लिया गया है की वे
अब विलुप्त हो गयी है |
अतः
धर्म मे वैज्ञानिकता और वह
भी वर्तमान कसौटियो पर परखने
लायक अवधारणा ना तो संभव है
और ना ही उचित भी |
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