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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Jan 23, 2018

क्या विधान सभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की मांग
सत्ताधारी दल द्वरा जनता का सामना करने का भय तो नहीं है
अथवा चुनावी तंत्र द्वरा सतत रूप से काम करने की थकान तो नहीं
क्यो यह मांग की जा रही है
जबकि संसदीय प्रक्रिया इसकी इजाजत नहीं देती
प्रशासनिक खर्च और बंदोबस्त के नाम पर –पिछडते विकास के नाम पर
क्या यह मांग अथवा सुझाव '' लोक ""अर्थात जनता को मूर्ख बनाने का
उपक्रम तो नहीं ??????

विश्व मे लोकतन्त्र की दो ही विधाए प्रचलित है --- संसदीय एवं राश्त्र्पतीय प्रणाली | दोनों ही व्यस्थाओ मे "”चुनाव "” ही एकमात्र जनता की आकांछा या निश्चय की अभिव्यक्ति मानी गयी है | अमेरीकन प्रणाली मे राष्ट्रपति का चुनाव सम्पूर्ण देश मे होता है | वनहा जनता भी अपनी पसंद को अभिव्यक्त करती है | परंतु यदि नियमानुसार वांछित प्रतिशत मे जब किसी भी प्रत्याशी को '''मत समर्थन ''नहीं मिलता तब विशिष्ट प्रक्रिया द्वरा '''निर्वाचक मण्डल ''''का गठन किया जाता है ||जो चुनाव परिणाम घोषित करता है | अमेरिका मे डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को पापुलर वोट अर्थात जनता से मिले मत उनके विरोधी और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से अधिक मिले थे | परंतु दोनों को कूल मतदाताओ का पचास प्रतिशत से अधिक नहीं मिला था | तब मामला निर्वाचक मण्डल मे मतदान द्वरा नियत किया गया | जिसमे ट्रम्प विजयी घोषित किए गए | अनेक देशो मे यह परंपरा है की की विजयी उम्मीदवार को मतदाताओ के पचास प्रतिशत से अधिक समर्थन मिलना आवयश्यक है | भले ही उसके लिए दो बार चुनाव करना पड़े | अफ्रीका के कई देशो मे भी यह व्यसथा है |
तंत्र --लोक के लिए है , जनता तंत्र के लिए नहीं है | राजनीति शस्त्र मे जब '''तंत्र''' लोकहित पर हावी होने लगता है --तब उसे भ्रष्ट तंत्र कहते है | चुनावो को सरकार या तंत्र की सुविधा के लिए नहीं है | वे जन अभिव्यक्ति है | यह कहना की लगातार चुनाव होने से सरकार का काम रुकता है ,, बेमानी दलील है | आखिर क्यो सरकार के मंत्री चुनावो मे '''सारे काम छोड़कर बैठ जाते है "” ? चुनाव आचार संहिता भी चल रही योजनाओ और कामो पर कोई प्रभाव नहीं डालते | हाँ मतदाताओ के लिए नए वादे करने पर रोक लगता है | अगर सरकार मे ''आत्म विष्वास'' है तो मतदाताओ को छन करने देना चाहिए | पार्टी अपने कार्यकर्ताओ को चुनाव प्रबंध करने दे | परंतु ऐसा सत्ताधारी दल करते नहीं है | चुनाव छेत्र मे मनमाफिक अफसरो की तैनाती – योजनाओ की घोषणाये की जाती है | यह सब तो उप चुनावो मे दिखाई पड़ता है | आम चुनावो मे तो क्या हो -मालूम नहीं |

2014 के बाद दिल्ली के विधान सभा चुनावो मे भारतीय जनता पार्टी की करारी पराजय के उपरांत ऐसी आवाज़े आने लगी की ;-
1-- संविधान मे परिवर्तन कर इसे राष्ट्र पति व्यवस्था मे
बदला जाये --संसदीय प्रणाली खर्चीली और अनिश्चयकारी
है – इसमे सदैव चुनाव की तैयारी मे लगे रहना पड़ता है |
2- राष्ट्रपति प्रणाली के समर्थको नहीं मालूम की अमेरिका
की संघीय प्रणाली मे नगरो मे हर वर्ष शेरिफ़ और मेयर
का चुनाव दो वर्ष मे राज्य की प्रतिनिधि सभा और चार
वर्ष मे राज्य सीनेट और राष्ट्रपति का चुनाव हर छ
वर्ष मे संघ की सीनेट और संघ की प्रतिनिधि सभा के
लिए भी चार वर्ष मे चुनाव होते रहते है |
अमेरिका के चुनाव अभिकरण ने आज तक विकास के अवरुद्ध होने अथवा धन के अपव्यव की शिकायत नहीं की ??


इन हालातो मे नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ओम प्रकाश रावत द्वारा पहले ही सम्बोधन मे "”” विधान सभा और लोक सभा चुनाव एक साथ ''' कराये जाने की टेक संदेह उत्पन्न करती है ,,””क्या संवैधानिक व्यवस्थाओ को तोड़ने - मरोड़ने का प्रयास तो नहीं है "” चुनाव प्रकरीय पर गठित संसदीय समिति ने उनके पद ग्रहण के पूर्व ही अपनी सिफ़ारिश मे राज्यो और केंद्र के लिए एक साथ चुनाव करने के प्रस्ताव को "”विचार"” उपरांत खारिज कर दिया था | संसदीय समिति ने भी नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त द्वरा एक साथ चुनाव करने के लिए कानून बनाए जाने का सुझाव दिया जाने पर घोर आपति व्यक्त की है |

संविधान के साथ छेद – छाड की आशंका गैर भाजपा डालो द्वरा काफी समय से व्यक्त की जा रही है | इस संदर्भ मे मुख्य चुनाव आयुक्त द्वरा पदग्रहण करते ही "”एक साथ चुनाव का राग अलापना "”” संदेह उत्पन्न करता है |

निश्पक्ष निर्वाचन लोकतन्त्र के शरीर की धमनी है जो उसे प्राणवान बनाए रखती है | सरकार और उसका तंत्र " लोक" अर्थात जनता -जनार्दन की इच्छा की अभिव्यक्ति है | जब कोई सरकार इस ''मूल' “ की इच्छा को ही "””नियंत्रित "”” करने प्रयास करता है ----तब उस देश मे अशांति फैलती है | बहुमत का शासन ही प्रजातन्त्र है | निश्चित अवधि के लिए शासन चलाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है | संसदीय परम्पराओ मे ''''सदन मे बहुमत ही सर्वोपरि होता है "”” भले ही वह अनुचित अथवा अन्य पूर्ण हो |

एक साथ चुनाव का '''जुमला ''' कहना आसान है परंतु जमीनी धरातल पर इसको उतारा जाना न केवल असंभव है वरन प्रजातन्त्र के लिए "”” गलघोंटू"” होगा | मौजूदा व्यव्स्था मे '' दल " की नहीं अक्सर मोर्चो की सरकार बनती है | अनेक बार ऐसा हुआ है की मोर्चे के एक घटक द्वरा सरकार से अलग होने से सरकार का सदन मे बहुमत नहीं रह जाता | काफी षड्यंत्र और चाले चली जाती है | उत्ताराखंड का मामला उदाहरन है | तब उच्च न्यायालय राष्ट्रपति शासन को खारिज कर सदन मे बहुमत सिद्ध करने का फैसला दिया था | अदालत के फैसले को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने काफी आलोचना करते हुए कहा था की "””” अदालत को राष्ट्रपति के आदेश को खारिज करने का हक़ नहीं है "”” | जबकि इन नेताओ को सुचारु रूप से ज्ञात है की संविधान के अनुछेद 77 के अनुसार भारत सरकार की समस्त कार्यपालिक कारवाई राष्ट्रपति के नाम की हुई काही जाएगी "”” | अनेक राज्यो मे राजनीतिक दल - बदल से सरकरे अलापमात मे आती है | ऐसे मे दो ही उपाय क्यी जा सकते है
1-
सरकार को तब तक चलने दिया जाये जो सदन की
निर्धारित अवधि तक हो
2-- राज्य मे राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाये

राष्ट्रपति शासन को छह माह मे लोकसभा से अनुमति लेनी होती है | और इसे दो या तीन बार से अधिक दुहराये जाने पर '''केंद्र सरकार की मंशा का कलुष माना जाता है "”
फिर क्या हो ?? वस्तुतःजिस प्रकार से आजकल राजनीतिक दलो ने चुनाव प्रचार और प्रबंधन को व्यवसायिक हाथो मे दिया है ''उसका मूल्य बहुत ज्यादा होता है "” जो पार्टी के चंदे से एकत्रित धन राशि से कभी भी पूरा नहीं हो सकता | इसलिए भिक्षा अथवा दान मांगते है | चूंकि '''साधन और सुविधा "” सरकार मे रहते मिलती है --जिसका भरपूर उपयोग नियमो को "” तोड़ मोड ''' कर की जाती है | इसीलिए सत्ताधारी दल चाहता है की एक साथ चुनाव हो | परंतु पार्टी मे टूट और सरकार के अल्पमत होने अथवा प्रदेश या केंद्र मे सविधानिक व्यवस्था के असफल होने पर क्या होगा ??? संसदीय समिति इन सब स्थितियो पर गौर करके ही कहा की यह संभव नहीं है | एवं मुख्य चुनाव आयुक्त के बयान पर नाराजगी भी व्यक्त की है |

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