इतिहास
और आस्था तथा विश्वास को लेकर
होती सामाजिक अशांति
धर्म
और इतिहास अक्सर मेल नहीं
रखते --पर
लोग तो दोनों को मानते है
आजकल"”
इतिहास"”
और
ग्रंथ मे बताई गयी पद्मिनी
की एक कथा को लेकर राजपूत समाज
मे बहुत आक्रोश है |
जगह
जगह पर प्रदर्शन और सरकार तथा
शासन
को
फिल्म पद्मावती के प्रदर्शन
पर प्रतिबंध लगाने की मांग
करते हुए करनी सेना के श्री
कालवी ने यह भी कहा मांग के
पूरा नहीं होने पर भारत बंद
किया जाएगा और सारा देश जल
उठेगा !
जातीय
स्वाभिमान होना चाहिए --परंतु
बात बात पर तलवार निकालने की
रजपूती जल्दबाज़ी भी अब संभव
नहीं है |
आखिर
बिना फिल्म देखे ही उसका विरोध
करना की "”
जातीय
भावना को ठेस पहुंचाई गयी है
"”
बिलकुल
अतार्किक ही नहीं न्याय संगत
भी नहीं है |
वैसे
राजस्थान के दो "”इतिहास
जानने वालो "”ने
चितौड मे रानी पद्मावती के
अस्तित्व को ही नकार दिया है
|
उनके
अनुसार "”
किसी
पद्मिनी या पद्मावती के रानी
होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता
है "”
--परंतु
अजमेर और दिल्ली के शासक
प्रथ्वीराज चौहान की पराजय
के उपरांत गुलाम वंश से प्रारम्भ
हुए इतिहास के घटना क्रम मे
खिलजी वंश मे अलाउद्दिन खिलजी
के युद्ध और विजय के घटना क्रम
मे चितौड से युद्ध ऐतिहासिक
घटना है |
और
क़िले की महिलाओ द्वारा राणा
रत्न सिंह की पराजय के बाद
'''जौहर
''किए
जाने का भी ज़िक्र है |
जायसी
के पद्मावत मे इसी घटना या
युद्ध का वर्णन है |
जैसे
चंद बरदाई के ''रासो''
मे
"”
मत
चुके चौहान "”
के
बारे मे प्रचलित है --कुछ
कुछ वैसा ही हो सकता है |
अब
इसे इतिहास माने या लोक कथा
?
जैसे
आलहा -
उदल
के बारे मे बुंदेल खंड मे उनकी
वीरता मे काफी कुछ ऐसा लिखा
है --जिसे
आज के समय मे वास्तविक नहीं
माना जा सकता |
परंतु
उनका समय और और उपस्थिती भी
इतिहास मे है |
परंतु
जगनिक के वर्णन के अनुसार शायद
बिलकुल नहीं |
अब
लोक कथाओ को इतिहास मानना तो
असंभव है ---जैसे
यह मान लेना की एशिया मे "”सिर्फ
एक ही राम कथा है --और
वह भी तुलसीदास की लिखी जबकि
रामायण महर्षि बाल्मीकी द्वारा
रचित है |
ज़ो
समकालीन थे |
इंडोनेशिया
--थाइलैंड
– लाओस आदि मे राम कथा के पात्र
रामचरित मानस या रामायण से
भिन्न ''भूमिकाओ
मे है ''
| अब
अति विश्वासी ज़न शताब्दियों
पूर्व रची गयी इन कथाओ को
'''अपमांन
जनक मान सकते है ?
क्योकि
उनकी आस्था के आधार के चरित्र
भिन्न है ?
अब
इसमे किसे दोष दिया जाये ?
अथवा
किसको गलत या सही माना जाये
?
क्योंकि
आस्था या विश्वास इन सभी स्थानो
मे वैसा ही है जैसा भारत वर्ष
मे है ??
अब
इन देशो मे भी राम कथाओ को
रंगमंच और फिल्मों भी चित्रित
किया गया है – जो हमारे देश
से भिन्न है |
धारावाहिक
रामायण---
जो
की बेहद ही सराहा गया --उसके
निर्माण मे रामानन्द सागर
ने भी बाल्मीकी रामायण तथा
तुलसीदास की रामचरित मानस
के अलावा तमिलनाडु की कम्ब
की रामायण और बंगाल मे रचित
चरित का भी समावेश किया था |
अब
उसमे कई ऐसे प्रसंग भी थे वे
किसी एक मे थे तो दूसरे मे भिन्न
प्रकार से दर्शाये गए थे |
परंतु
वे सभी ''कालजयी
''रचनाए
है |
आज
के समय मे इन ''भिन्नता
''को
लेकर अगर "”कुछ
लोग महाभारत छेडने लगे तो वह
''निरर्थक
ही होगा ''
क्योंकि
उनके प्रयासो से ना तो इन
महाकाव्यो को बदला जाएगा और
ना ही उनमे परिवर्तन इन इलाके
के लोगो को मंजूर होगा |
तब
क्या किया जाये ?
कुछ
ऐसी ही स्थिति जायसी के पद्मावत
की है ---जिसे
हिन्दी साहित्य से खारिज नहीं
किया जा सकता --केवल
इसलिए की कुछ लोगो को एक प्रकरण
"”अपमांजनक
''
महसूस
होता है |
गजनवी
-
मुहम्मद
गोरी के आक्रमण से उत्तर भारत
मे मुगलो का ज़ो शासन शुरू हुआ
-वह
तो 1857
मे
बहादुर शाह जफर तक चला |
यह
एक ऐतिहासिक सत्य है -इसे
नकारा नहीं जा सकता |
हा
हर आदमी को छूट है की वह "”अपने
ज्ञान और बुद्धि के अनुरूप
व्याख्या करे |
परंतु
वह अपना विश्वास दूसरों पर
थोपने का प्रयास मत करे |
क्योंकि
फिर यह आस्था और विश्वास का
युद्ध बन जाएगा |
जैसा
की करनी सेना द्वरा किया जा
रहा है |
राजस्थान
के बाहर तो इतिहास -और
साहित्य के रूप मे ही पद्मिनी
का जौहर पढा और समझा जाता है
|
हो
सकता कुछ सौ लोग इस बात को लेकर
राजस्थान के बाहर ''जातीय
स्वाभिमान "”
का
मुद्दा बनाए |
परंतु
यह विषय किसी भी प्रकार से
वेदिक धर्म के सनातनी लोगो
को उकसा नहीं पाएगा |
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