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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Nov 13, 2017

व्यंग्य --विद्रुप अथवा आलोचना या भड़ास

हमारे पुराने पत्रकार साथी लखनौवा श्री अनूप श्रीवास्तव एक सिद्धहस्त व्यंग्य लेखक है | विगत दस वर्षो से भी अधिक से वे इस विधा मे नयी ऊर्जा फूकने के लिए प्रयास रत है | लगभग 18 वर्षो से वे ''अट्टहास '' नमक पत्रिका का निरंतर सम्पादन कर रहे है | बिना किसी व्यापारिक अथवा औद्योगिक घराने की छाव के | उनका एकल पुरुसार्थ साधुवाद के काबिल है | हाल ही मे उन्होने व्यंग्य लेखन के प्रसार के लिए राज्यवार विशेसांक निकालने का निर्णय किया है | इस हेतु उन्होने प्रदेशों मे संगठन भी बनाए है | ऐसी ही प्रथम गोष्ठी मे भाग लेने का उन्होने मुझे अवसर दिया |

गोष्ठी मे मैंने अनेक विद्वत जनो की रचनाए सुनी | गोष्ठी मे सुप्रसिद्ध व्यंगकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी और मध्य प्रदेश के मुख्य आयकर आयुक्त श्री पालीवाल तथा अन्य कई अन्य अधिकारी जिनहे लेखन मे रुचि है वे भी उपस्थित थे | रचनाओ को सुन कर मुझे लगा की क्या व्यंग्य की भी कोई सीमा है अथवा वह विद्रूप या भड़ास का रूप तो नहीं बन रहा है |
संप्रति यह आलेख मी अनुभव और विचारो पर ही केन्द्रित है | इसमे व्यक्त विचार किसी प्रकार का फतवा या फैसला नहीं है | व्यंग्य से मेरा परिचय दर्जा आठवि से ही हुआ जब मेरे पिता स्वर्गीय लक्ष्मी कान्त तिवारी जो पत्रकार थे , घर पर हम भाई बहनो को देश की प्रथम कार्टून व्यंग पत्रिका "”शंकर्स वीकली '' लाया करते थे | पत्रिका के प्र्काशक स्वर्गीय आर पी नायर थे उनके अभिन्न मित्र थे | मुझे आज भी याद है की पत्रिका मे कोरिया वार पर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वरा अमेरिकी प्रस्ताव को समर्थन दिये जाने पर नेहरू जी की नाक को अत्यधिक लंबा बना दिया था | जैसा की बाल कहानियो मे पिनाकियों की नाक बन गयी थी | आज उस चित्र को याद कर लगता है की कार्टून ने भारत सरकार और प्रधान मंत्री की विदेश नीति पर करारा प्रहार किया था |

दूसरा अनुभव प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण के मध्य प्रदेश भ्रमण के दौरान उनके साथ दो दिवस बिताए थे | उस समय मई नव भारत टाइम्स मे कार्यरत था | उनके कार्टून के नायक बाबूजी को समाचार पत्र कितनी महता देता था यह इसी एक बात से सिद्ध हो गया की बाबूजी की ''पीतल की मूर्ति "” किसी जयंती हम सब लोगो को वितरित की गयी थी | बेनेट कोलमन जो की टाइमेस ऑफ इंडिया
के प्र्काशनों की मालिक है | लक्ष्मण भी इसी संस्थान मे कार्यरत थे | संस्थान मे अवकाश प्रापत करने की आयु 58 वर्ष थी | जिसमे दो वर्ष की सेवा व्रधी भी की जाती थी कर्मचारी के कारी को देख कर | यह नियम बहुत सख्ती से पालन होता था "””तब "” | आजकल जो संविदा नियुक्ति मे यह प्रावधान ही नहीं है | पर हमारे समय मे था | परंतु लक्ष्मण इतने अपरिहार्य बन गए थे की उन्हे "” अमरीका के सुप्रीम कोर्ट के जजो की भांति "”” जब तक चाहे करी कर सकते है "” की छुट दी गयी थी | उज्जैन के सर्किट हाउस मे मैंने उनसे विधा के बारे मे कुछ पूछा की कैसे वे कार्टून बनते है ? उन्होने बताया की की लोगो को लगता है की एक छोटा सा रेखा चित्र बनाने और उसको शीर्षक देना ज्यदा से ज्यादा एक या दो घंटे का काम है ,,परंतु वास्तव मे ऐसा नहीं है | उन्होने बताया की मुझे बहुत अखबार देखने होते है की कोई "'विचार मिले "” फिर जब कोई चुभती हुई खबर मिल जाती है --तब यह सोचना पड़ता है की इसे किस प्रकार कागज पर उतारू | सोचने और पेंसिल चलाने के मध्य बहुत विचार करना होता है | किसी घटना या किसी नेता के बयान पर एक रेखा चित्र और बीस शब्दो के माध्यम से ''सटीक '' दिखाना ही कार्टून की जान है | उन्होने कहा की तुम लोग भाषण को पाँच सौ शब्दो मे व्यक्त करते हो | फोटोग्राफर एक फोटो मे स्थिति को बयान करता है वनही यह काम हमे सूक्ष्म रूप से बीस शब्दो मे करना होता है |

उन्होने बताया की कार्टून किसी के अपमान के लिए नहीं वरन "”तंज़' या सेटायर '' होता है | जो चूभे ज़रूर पर खून न निकले अथवा वह व्यक्ति अपमानित ना महसूस करे | मतलब किसी को उतना ही गुदगुदाओ की वह सह ले | जान न निकले |
आज अखबारो से ऐसे कार्टून की विधा समाप्त होती हुई लगती है | अथवा उनसे वैसी चुभन नहीं लगती | कारण जो भी हो परंतु पाठक के नाते मेरा यह अनुभव है | और लगभग चार दशको से अधिक की पत्रकारिता का भी अनुभव है | कार्टून तात्कालिक समस्या या घटना पर एक तीखी टिप्पणी की भांति है | समाज की विद्रुप्ताओ पर लेखन का सर्वोतम उदाहरन श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी उपन्यास है | जितनी तीखी चोट उन्होने की वह समाज अथवा शासन की ''विसंगति - बेईमानी -पाखंड '' को उजागर करता है |
इस संदर्भ मे मै एक साहित्यिक परिभाषा का उल्लेख ही करना चाहूँगा | बाते गया है की स्मित - मुस्कान - हास्य और फिर अटट्हास ये कहर प्रकार है हसने के | मर्यादा है की स्मित मे मात्र होठो से भासित होता है और मुस्कान मे दंतावली भी दिख जाती है और हास्य मे स्वर का मिश्रण होता है और अट्ठाहास मे स्वर की तीव्रता होती है | इसी संदर्भ मे व्यंग्य भी इनहि श्रेणियों मे विभाजित हो सकता है | ऐसा मुझ जैसे पाठक का सोचना है बाक़ी तो बड़े बड़े लेखक है वे निर्णय करेंगे | मुझे लगा की लिखना चाहिए सो लिख दिया बाक़ी जय भवानी |

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