अदालत
के फैसले की आलोचना – अवमानना
नहीं है !
प्रशांत
भूषण के दो ट्वीट का स्व सज्ञान
ले कर सर्वोच्च न्यायालय की
पूर्ण पीठ ने जिस प्रकार "”
अवमानना
का मामला "”
चलाया
जा रहा ,
जिसको
लेकर वकीलो और पूर्व जजो ने
विरोध व्यक्त किया हैं ,वह
विधि की दुनिया में हलचल मचाए
हुए हैं |
जनहा
अभियुक्त प्रशांत भूषण ने
सुप्रीम कोर्ट पीठ के बार -बार
कहने के बावजूद माफी मांगने
से इंकार कर दिया हैं |
वनही
यह सवाल भी आज जागरूक नागरिकों
के मध्य चर्चा का विषय हैं ,
की
क्या "”तथ्यात्मक
और तर्क पूर्ण "
किसी
फैसले की आलोचना ,क्या
अदालत का अपमान हैं ?
इस
संदर्भ में शनिवार को सुप्रीम
कोर्ट में अभिनेत्री स्वरा
भास्कर की अयोध्या के मामले
में सुप्रीम कोर्ट के फैसले
पर टिप्पणी को लेकर दायर याचिका
पर ,
अटार्नी
जनरल वेणुगोपाल ने याचिका
की मांग को खारिज कर दिया हैं
|
ज्ञात
हो की अयोध्या मामले में
वेणुगोपाल ने सरकार की ओर से
पैरवी की थी |
ज्ञातव्य
हो की आम तौर पर अटार्नी जनरल
देश की ओर से अदालत में पेश
होते हैं |
जबकि
केंद्र सरकार की पैरवी के लिए
सोलिसीटर जनरल होते हैं |
इसलिए
अटार्नी जनरल की "”रॉय
"”
निर्णायक
सीध होती हैं |
गौर
तलब हैं की प्रशांत भूषण के
मामले में भी उन्होने सुप्रीम
कोर्ट की पीठ से आग्रह किया
था की भूषण के वीरुध मामले को
समाप्त किया जाये और सज़ा देने
के निश्चय को अमली जमा नहीं
पहनाया जाये |
परंतु
जुस्टिस अरुण मिश्रा ने उनको
सुनने से इंकार कर दिया ,
यह
कहते हुए की वे मामले की "”
मेरिट
"
अर्थात
अपराध हुआ अथवा नहीं इस पर
सुनवाई नहीं कर रहे हैं |
इसलिए
उस विषय पर वेणुगोपाल को नहीं
सुना जाएगा !
संभवतः
ऐसा पहली बार हुआ हैं की किसी
अदालत ने देश के सर्वोच्च
विधि |अधिकारी
को सुनने से इंकार कर दिया हो
|
संविधान
के अनुसार अट्टार्नी जनरल
का पद सुप्रीम कोर्ट के जज के
पद बराबर होता हैं |
वे
संसद में कानूनी रॉय देने के
लिए सदन में नेता सदन के बगल
बैठ कर सदन में मामले के विधिक
पक्ष को स्पष्ट करते हैं |
उनका
पद संवैधानिक होता हैं ---जिस
प्रकार सुप्रीम कोर्ट के जजो
का |
राष्ट्र
की ओर से उनकी रॉय विधि के मामलो
में अंतिम होती हैं |
स्वरा
भास्कर द्वरा 1
फ़रवरी
2020
को
बाम्बे क्ल्लेक्टिव के एक
कार्य क्रम में अयोध्या मामले
में टिप्पणी को याचिका करता
उषा शेट्टी ने आधार बनाया था
|
जिसमे
उन्होने कह था की अब हम ऐसी
स्थिति में हैं जनहा हमारी
अदालते नही हैं की वे संविधान
में विश्वास करती हैं या नहीं
?
हम
एक देश में रह रहे हैं जनहा
हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने
एक फैसले में कहा की "”बाबरी
मस्जिद का ध्वंश गैर कानूनी
था "”
और
फिर उसी फैसले ने उनही लोगो
को पुर्स्क्रत किया ,
जिनहोने
मस्जिद को गिराया था "|
अब
इस टिप्पणी को याचिका कर्ता
ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना
बताते हुए स्वरा भास्कर को
दंडित किए जाने की मांग की थी
|
जिसे
अट्टार्नी जनरल ने ने "”खारिज
कर दिया "”
|
अवमानना
के पेंडिंग मामले और उच्च और
सर्वोच्च न्यायालय का रुख :-
यानहा
एक सवाल यह भी हैं की देश में
विभिन्न अदालतों ,
उच्च
न्यायालय और उच्चतम न्यायालय
समेत 96000
मामले
है "”
अवमानना
के !
इन
मामलो में राज्य या केंद्र
सरकार या उनके अधिकारियों
द्वरा अदालत के फैसलो का
अनुपालन नहीं किया गया !
तब
प्रभावित पक्ष ने अदालत में
फैसले को लागू करने के लिए
अदालत से आग्रह किया की "”
आपके
फैसले के बावजूद "”
न्याया
नहीं मिल पाया हैं ,
क्योंकि
सरकार अथवा उसके अधिकारी उस
फैसले की अवहेलना कर रहे हैं
!
परंतु
अफसोस हैं की सर्वोच्च अथवा
उच्च न्यायालय इन याचिकाओ
को निपटारे के लिए वह गति नहीं
दिखते हैं ----जो
प्रशांत भूषण के मामले में
दिखाई पद रही हैं !
सवाल
यह हैं की क्या अदालते वास्तव
में अपने अधिकारो का पालन
वादकारी को न्याया देने के
लिए इच्छुक भी हैं |
दीवानी
मामलो में जनहा ---
भूमि
-भवन
अथवा नौकरी या मुआवजे से
संबन्धित मामलो में अंतिम
निर्णय के बाद भी सरकार के
अफसर --उनका
पालन करने के लिए कानूनी तौर
पर बाध्य होने के बावजूद वर्षो
तक फैसले में दी गयी "””राहत
"”
को
प्रभावित पक्ष को देने में
लटकते हैं |
अगर
प्रभावित पक्ष अदालत जाकर ,
उन
अफसरो की अदालतों के फैसले
के अनुपालन में "”टाल-मटोल
"”
की
शिकायत करता हैं ,
तब
अदालते अनुपालन का समय बड़ा
देते हैं !
अर्थात
वे अपने फैसले के अनुपालन में
इस विलंब को "”
अवमानना
नहीं मानती "
जबकि
किसी भी कानूनी निकाय के निर्देश
अथवा फैसले को नहीं मानना
---अवमानना
और अनुशासनहीनता दोनों ही
हैं |
शासन
में अधिकारी के आदेश को यदि
अधीनस्थ द्वरा अनुपालन नहीं
किया जाता तब -उसे
अनुशासन हीनता माना जाता हैं
|
फिर
अदालतों के फैसले क्यू नहीं
इस कारण वे श्रेणी में ?
जबकि
अदालत होने केकारण वे "””अदालत
की अवमानना के अपराधी हैं '’
|
इस
संदर्भ में अयोध्या में बाबरी
मस्जिद के समय तत्कालीन मुख्य
मंत्री कल्याण सिंह ने भी
सुप्रीम कोर्ट को आसवासन दिया
था की --सरकार
मस्जिद को छती पाहुचने नहीं
देगी !
परंतु
हुआ क्या ?
और
सुप्रीम कोर्ट
ने
"अदालत
से इस वादा खिलाफी को अवमानना
"”
मान
कर क्या सज़ा दी ?
इसके
उलट सुप्रीम कोर्ट ने खलिस्तान
समर्थक द्वरा देश के खिलाफ
नारा लगाने और और खलिस्तान
के समर्थन में नारा लगाने वाले
को पंजाब पुलिस द्वरा देसद्रोह
के अपराध में अभियुक्त बनाने
को माननीय नयायमूर्ति ने फैसले
में कहा "””
की
देश का किसी एक या कुछ लोगो के
नारा लगाने से कोई अहित नहीं
होता "”|
एवं
नारा लगाना कोई देसद्रोह नहीं
हैं ,
जब
तक की उसके कारण कोई हिंसा न
हो |
सुप्रीम
कोर्ट 96000
अवमानना
के दीवानी या सिविल मामलो में
जब तक प्रभावी कारवाई नहीं
करता तब तक ---किसी
जज साहेबन कि आदतों या किसी
घटना पर टिप्पणी को अवमानना
मानना उचित नहीं होगा |
पचास
और साथ के दशक में जज लोग वकीलो
या आँय लोगो से सामाजिक दूरी
बनाकर रखते थे |
क्योंकि
बाहरी अदालत में अगर किसी वकील
ने मेलजोल को आधार बना कर सुनवाई
में उनकी "”निस्पक्छ्ता
"”
पर
सवाल उठा दिया तब ------बहुत
असमंजस की स्थित बन जाती थी
,
और
मामले को दूसरी अदालत में भेज
दिया जाता था |
परंतु
इस समय सुप्रीम कोर्ट में "”
सत्यनिष्ठा
"”
पर
सावल उठाए जाने के बाद भी जज
साहेबन अपने को सुनवाई से अलग
नहीं करते !
वरन
ज़िद्द पकड़ लेते है |जस्टिस
कर्णन जिनहे तमिलनाडू से
बंगाल हाइ कोर्ट तबादला किया
गया था ,
उनके
अजीबोगरीब फैसलो और बयानो के
कारण |
उन्होने
सुप्रीम कोर्ट की इतनी भद्द
की थी की उनके अवकाश ग्रहण के
बाद उन्हे सज़ा दी गयी |
उन्होने
भी न्यायपालिका में दलितो के
वीरुध रवैये का आरोप लगाया
था |आज
वे भी प्रशांत भूषण के पच्छ
में खड़े हैं ,
जबकि
प्रशांत भूषण ने उनके वीरुध
पैरवी की थी |
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