न्याय
का मंदिर – विरोधाभासों और
संदेह के घेरे में हैं क्या
?
एक
कहावत हैं की "”हाकिम
का हुकुम रुतबे से चलता हैं
-फौज
-फाटे
से नहीं "
मतलब
यह की सरकार हो या न्यायपालिका
का आदेश नागरिकों के विश्वास
से चलता हैं ,
दंड
या भय से नहीं !
एक
और उक्ति हैं की सम्मान अर्जित
किया जाता हैं ,
उसको
डरा -धमका
कर नहीं पाया जा सकता !
आज
देश की सर्वोच्च अदालत मान
-
अपमान
के एक मामले से अपने पूर्व
के फैसलो पर भी संदेह की छाया
का सबब बन गयी हैं |
प्रशांत
भूषण के दो ट्वीट को लेकर जिस
प्रकार अदालत ने – नेचुरल
जस्टिस के आधारभूत कसौटी
नियमो को अनदेखा किया हैं ,
वह
अचंभित करता हैं !
प्रशांत
भूषण पर अदालत की अवमानना के
मामले को न्यायमूर्तियों
ने स्वयं सॅज्ञान लेकर कारवाई
की हैं !
जिन
दो ट्वीट को लेकर यह विवाद
हुआ हैं ,
उसमें
अदालत ने यह साफ नहीं किया
की ,
वास्तव
में कौन सी बात अदालत या
न्यायपालिका के अपमान का कारण
बनी !
क्या
जो लिखा गया वह आधारहीन था ?
अथवा
किसी की व्यक्तिगत छवि को
असत्य कारण से धूमिल कर रहा
था !
हैरानी
की बात यह हैं की देश के अटार्नी
जनरल वेणुगोपाल ऐसे नब्बे
वर्षीय अधिवक्ता को भी सुनने
से इंकार किया गया !
जबकि
वे देश के विधिक प्र्वकता हैं
,
ना
की सरकार के --जो
सॉलिसीटर जनरल होते हैं |
सुप्रीम
कोर्ट की तीन जजो की पीठ द्वरा
बार बार आरोपी को "”बिना
शर्त माफी मांगने "”
का
हुकुम जिस प्रकार दुहराया
गया ----
और
इस संदर्भ में आरोपी प्रशांत
भूषण का जवाब की वे सज़ा भुगतने
को तैयार हैं ,
चंपारण
के नील आंदोलन में गिरफ्तार
महात्मा गांधी का वह कथन याद
आता हैं --जब
उन्होने आंदोलन के लिए माफी
मांगने या जमानत के स्थान पर
सज़ा भुगतने का प्रण किया था
!
क्या
यह एक फैसला न्यायपालिका में
फैले भ्रस्ताचर के खिलाफ
मुहिम साबित होगी ?
वेणुगोपाल
जी ने भी भरी अदालत में जब कहा
की न्यायपालिका में भ्रस्ताचर
की शिकायत सुप्रीम कोर्ट के
नौ जजो ने भी उनसे की थी !
तब
जस्टिस अरुण मिश्रा ने "”
कहा
की यानहा हम मामले की मेरिट
पर नहीं सुन रहे हैं "”
| मतलब
यह की हमे इस बात से मतलब नहीं
की आरोपी ने अपराध किया हैं
अथवा नहीं ?””
कितनी
अद्भुत बात हैं ,जो
अदालत आरोप और सबूत के आधार
पर फैसला देती आई है ,
वो
यह कहे की हमे आरोपी के जुर्म
के बारे में कुछ नहीं सुनना,
और
अपराध का संज्ञान स्व्यस्म
लेना ---
बहुत
कुछ कह जाता हैं ----बिना
कुछ कहे -सुने
!
जो
अदालत जज लोया की संदेह स्थितियो
में हुई मौत की जांच के लिए
दायर याचिकाओ को यह कह कर खारिज
कर दे की "”
तीन
जजो ने बयान दिया हैं की उनकी
मौत अस्वभाविक नहीं थी !
हम
उनके बयान को कैसे अनसुना कर
दे "”
! इसका
मतलब यह हुआ की तीन जजो का बयान
"”
अन्य
नागरिकों के बयान और दावो पर
भरी हैं !
सिर्फ
इसलिए की वे काला कोट पहन कर
लोगो की ज़िंदगी का फैसला सुनाते
हैं !
जिनके
फैसलो के कारण कभी -कभी
बेगुनाह लोग दस से बीस साल
ज़िंदगी के सुनहरे पल सलाखों
के पीछे काटते हैं |
लेकिन
आज तक ऐसी "”
गल्तियो
के लिए कभी भी इन बड़ी अदालतों
ने जजो के वीरुध कोई टिप्पणी
भी नहीं की !”
जबकि
हमारा विधि शासर कहता हैं की
"”
दस
मुल्ज़िम {आरोपी}
भले
छूट जाये परंतु किसी बेगुनाह
को सज़ा ना हो !”
पर
भारतीय न्याय व्ययस्था में
तो उल्टा ही हो रहा हैं |
रक्षा
सौदो में दलाली के आरोप में
दिल्ली की सीबीआई की विशेस
अदालत ने तत्कालीन रक्षा
मंत्री की महिला मित्र जया
जेटली और एक मेजर जनरल को दोषी
पाया और सज़ा भी सुना दी |
परंतु
दिल्ली हाइ कोर्ट ने तुरंत
जमानत दे दी !
चिदम्बरम
को अदालत ने जमानत देने से
इंकार कर दिया था ,
शायद
गृह मंत्री के रूप में उनके
किसी फैसले ने मौजूदा हुकूमत
के किसी पाये को राहत देने से
इंकार कर दिया था !
सुशांत
की मौत की जांच और सुप्रीम
कोर्ट की एकल बेंच का निर्णय
:-
संविधान
में न्यायपालिका का आधार
संयुक्त राज्य अमेरिका का
फेडरल कोर्ट ऑफ और हाउस ऑफ
लॉर्ड्स को मिला जुला कर लिया
गया हैं |
इन
स्थानो में न्याय की इस अंतिम
पायदान में मामलो की सुनवाई
हमेशा एक से अधिक जज करते हैं
|
यानि
सिंगल बेंच नहीं होती |
आज
से एक माह पहले तक सुप्रीम
कोर्ट में भी डिवीज़न बेंच यानि
की दो जजो द्वरा ही सुनवाई की
जाती थी |परंतु
एक माह पहले सुप्रीम कोर्ट
ने हाइ कोर्ट की भांति एकल जज
की पीठ के गठन का फैसला किया
|
इस
तारतम्य में पहला फैसला
जुस्टिस ऋषिकेश रॉय द्वरा
सुशांत सिंह की संदेहजनक
स्थितियो में हुई मौत की जांच
सीबीआई को करने का आदेश दिया
|
इस
फैसले में कहा गया की "”अब
दिवंगत भी चैन की नींद सो सकेगा
"”
! हमारे
यानहा म्र्त्यु को चिरनिद्रा
भी कहते हैं ,
फिर
भी न्यायमूर्ति ने "चैन
"
की
बात कही !
यानहा
समीचीन होगा की क्या जज लोया
भी कहीं चैन की की नींद सो
सकेंगे ?
तब
कान्हा हैं "”सत्यमेव
जयते "”
? इस
उद्घोष को याद करें तो ---
प्रवासी
मजदूरो की घर वापसी पर सरकार
के हस्तक़्छेप की याचिका पर
नागरिकों के कष्ट को अनदेखा
किया गया |
संविधान
में न्यायपालिका को नागरिकों
के मूल अधिकारो की रक्षा का
अलमबरदार बताया गया हैं ,
तब
क्या यह बेरुखी सत्य थी ?
फिर
दिल्ली में जे एन यू और जामिया
में पुलिस द्वरा आंदोलन कर
रहे छत्रों के साथ बर्बरता
की याचिकाओ को नामंज़ूर करना
क्या सत्य की विजय था ?
क्या
दिल्ली के चुनावो में हाइ
कोर्ट के एक जज द्वरा जब भड़काऊ
भासण के आरोपियो {
जिनमें
केंद्रीय मंत्री और बीजेपी
नेताओ }
के
वीरुध पुलिस को कारवाई करने
का आदेश दिया ----तब
दो दिन में उनका तबादला पंजाब
हाइ कोर्ट में कर दिया गया !
क्या
यह सत्यमेव जयते था !
इस
फैसले से अपराध प्रक्रिया
संहिता ---
के
नियमो का भी ख्याल नहीं रखा
गया |
कानून
हैं की जिस
स्थान में अपराध होता हैं ,
उस
छेत्र का पुलिस थाना ही उसकी
जांच करता हैं |
हाँ
रेल्वे या हवाई जहाज़ से सफर
कर रहे यात्री के साथ अगर कोई
हादसा होता हैं ,जो
अपराध की श्रेणी में आता हैं
, तब
उसे पीड़ित व्यक्ति किसी भी
नजदीकी थाने में अपनी रिपोर्ट
लिखा सकता हैं |
इसमें
प्रक्रिया यह हैं की उक्त थाना
शून्य पर उस शिकायत को दर्ज़
कर ----
अपराध
स्थल के ठाणे को अग्रसारित
कर देता हैं |
अब
सुशांत के मामले में मौत हुई
मुंबई में ,
पर
अपराध की प्राथमिकी रिपोर्ट
पटना में लिखी गयी ,
जिसे
मरने वाले के पिता ने लिखाया
|
प्रक्रिया
के अनुसार पटना पुलिस को इस
शिकायत को मुंबई पुलिस को भेज
देना था |
परंतु
जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने पटना
की प्राथमिकी को कानून को विधि
सम्मत पाया !
हालांकि
उन्होने फैसले में उन कारणो
का खुलाषा नहीं क्या जिनके
आधार पर अपराध के स्थान के
पुलिस छेत्राधिकार को अमान्य
करते हुए ,
पिता
की शिकायत को अपराध की प्राथमिकी
करार दिया ?
ज़्यदासे
ज़्यदा उसे शिकायत के रूप में
दर्ज कर मुंबई पुलिस को अग्रसारित
करना ही परंपरागत होता !
परंतु
ऐसा न कर के बिहार सरकार के
आग्रह को मानकर मामले की जांच
सीबीआई को दे दी |
जबकि
सीबीआई किसी भी प्रदेश में
तभी जांच कर सकती हैं जब "”राज्य
सरकार उससे आग्रह करे "”
| चूंकि
महाराष्ट्र सरकार अपनी पुलिस
की जांच से संतुष्ट थी और वह
किसी केंद्रीय एजेंसी से जांच
के वीरुध थी |
सुप्रीम
कोर्ट के इस आदेश से राजी सरकार
की सहमति का अधिकार छीन लिया
गया !
ज़्यादातर
लोगो के दिमाग में इसका कारण
राजनीतिक है |
क्योंकि
जिस प्रकार केंद्र सरकार ने
मालेगाव मामले में शिव सेना
सरकार की इच्छा के वीरुध केंद्र
ने इस घटना को राष्ट्रीय सुरक्षा
से जोड़ कर एन आई ए को दिया ,
वह
राज्य सरकार के फैसले को उलटने
जैसा था ,
जो
इस मम्म्ले में बंदी बनाए गए
शिक्षको -
लेखक
और सार्वजनिक कार्यकर्ताओ
के खिलाफ देवेन्द्र फदनविस
सरकार के फैसले को रद्द करने
का सार्वजनिक बयान दे चुकी
थी |
उस
बन के तुरंत बाद केंद्रीय जांच
एजेंसी को मामला देना ---राज्य
सरकार के का अधिकारो का हनन
ही तो हैं |
यही
सुशांत मामले में हुआ ,
राजनीतिक
उद्देश्य की पूर्ति के लिए
अब अदालत के फैसले का इस्तेमाल
, बिहार
विधान सभा के आगामी चुनाव में
सत्ता धारी पार्टी द्वरा किए
जाने की आशंका हैं |
बाकी
भविष्य के गर्भ में |
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