लोकतन्त्र
मे चुनाव सत्ता पाने की
प्रतियोगिता है -या
युद्ध है ??
यूं
तो निर्वाचन की परंपरा हमे
महात्मा बुद्ध और चन्द्रगुप्त
मौर्य के समय के "”इतिहास
'' मे
मिलती है | तत्कालीन
समय मे लिछवि गणराजय के अधिपति
सिद्धार्थ यानि की महात्मा
बुद्ध् के पिता थे |
अजातशत्रु
के समय वैशाली गणराज्य का
विवरण 'इतिहास'”
मे
मिलता है | अधिपति
--आमात्य
- सेनापति
निर्वाचन के पद थे |
सिकंदर
के समय भी सिंधु नदी के किनारे
कई गणराज्यो का विवरण मिलता
है -उनमे
एक था कठ था ,
अपुष्ट
है परंतु एक ऐसे गणराजय का भी
ज़िक्र है जनहा की शासक केवल
महिलाए ही होती थी |
इसका
अर्थ यह हुआ की की ''निर्वाचन
की प्रथा "”
भारतवर्ष
'' मे
दो हज़ार वर्ष पूर्व भी थी |
स्वाभाविक
ही है की इन गणराज्यो मे आम
जनता की सहमति से ही शासन किया
जाता था | मौर्य
साम्राज्य के अंतिम समय मे
इन गणराज्यो का अस्तित्व
समाप्त हो गया था -----क्योंकि
राजतंत्र की सैनिक शक्ति के
आगे इन स्वायत संस्थाओ का अंत
हो चुका था | अर्थात
अब सत्ता सेना के बलबूते पर
ली जाती थी | नन्द
साम्राज्य का अंत भी युद्ध
के परिणाम स्वरूप हुआ |
फलस्वरूप
नागरिक का स्थान ''प्रजाजन
''' ने
ले लिया | राजा
को दैवी शक्ति का रूप माना
जाने लगा | युद्ध
मे पराजित को ''दास
'' की
स्थिति मिली |
यह
स्थिति इंग्लैंड और फ़्रांस
मे ''राजा
और प्रजा ''' के
मध्य हुए ''सशस्त्र
'' मुठभेडो
से राजा के अनियंत्रित अधिकारो
को कतर दिया गया या खतम कर दिया
गया [[ फ्रांस
मे ]] उसके
बाद से ही क्रांति द्वरा
राजशाही का तख़्ता पलटने की
घटनाओ का सिलसिला जारी है |
हालांकि
अधिकतर मामलो मे सेना का
इस्तेमाल नहीं होता है ||
इन सब
संदर्भों के बात अब मुख्य
मुद्दे पर आते है की सत्ता
प्राप्ति के लिए सेना या
-हिन्सा
का प्रयोग नहीं होता |
बैलेट
का प्रयोग होता है -अब
ई वीएम का ,
हाँ
चीन या क्यूबा के अलावा दक्षिण
अमेरिका के देशो मे जरूर
गुरिल्ला युद्ध हो रहे है |
इन
देशो मे भी चुनाव की प्रक्रिया
होती है |
परंतु
जिन देशो मे प्रजातन्त्र
परिपक्व हो गया है ---वनहा
चुनाव एक प्रतियोगिता ही है
और रेफरी होता है -””-चुनाव
आयोग "”
जो
यह निश्चित करता है की चुनाव
का "”खेल
"”
निर्धारित
नियमो के अंतर्गत हो रहा है
या नहीं "”
उसका
फैसला अंतिम होता है |
परंतु
संयुक्त राज्य अमेरिका मे
रेफरी की भूमिका कुछ असपष्ट
है |
अब
भारत मे भी चुनाव एक प्रतियोगिता
ही है---
परंतु
कुछ "”अतिवादी
अति उत्साही ''
तत्व
नियमो से खिलवाड़ करते है |
वे
ही इसे युद्ध की परिभाषा मे
तब्दील करते है |
जनहा
"”विजय
"”
ही
सबसे अधिक ज़रूरी है |
अब
उसे पाने के लिए धन -बल
या साजिश सब का इस्तेमाल किया
जाता है |
इन
सब काम के लिए कभी "”चाणक्य
या कौटिल्य "”
का
नाम भी लिया जाता है |
अब इन
उत्साही गणो को यह नहीं भान
है की "”युद्ध
"”
मे
विजेता और पराजित होते है
--परंतु
प्रतियोगिता मे सफल नहीं होने
वाले भी प्रतियोगी ही होते
है----
पराजित
या विजित नहीं ''
| इसे
आज के राजनीतिक संदर्भों मे
देखे --तो
पाएंगे की पराजित पार्टी का
"”राष्ट्रीय
अथवा प्रादेशिक "”
मान्यता
भी उसको प्रापत मतो के आधार
पर ही नियत होता है |
यह
सही है की सत्ता की दौड़ मे
पराजित दल सरकार नहीं बना सकता
-परंतु
वह विपक्ष मे होता है |
अब
यह दूसरी बात है की सरकारी
मशीनरी का इस्तेमाल अपने
विरोधी को प्रताड़ित या परेशान
करने मे किया जाता है तो वह
चुनाव का हिस्सा नहीं है |
वरन
सरकार की कारस्तानी है |
इसलिए
चुनाव युद्ध नहीं है वरन सरकार
बनाने वाले सत्ता मे आने के
बाद अपने विरोधी डालो के वीरुध
"”युद्ध
"”
छेड़ते
है |
इसलिए
चुनाव को युद्ध नहीं कहा जा
सकता |
हा
सरकार ज़रूर अपनी सीमा पार
करके विजेता के अभिमान से भर
जाता है |
तब
प्रजातन्त्र मे छरण होने
लगता है |
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