लड़ाई सत्ता की और शिकार होते लोग तथा उपासना स्थल
मिस्र मे मुरसी समर्थको तथा वंहा की सेना के बीच चल रहे संघर्ष मे चर्च पर हो रहे हमले का कारण वंहा के कोपटिक ईसाइयो के उपासना स्थलो को बर्बाद करना ही हैं | आखिर मुरसी समर्थको का गुस्सा इन धरम स्थलो पर क्यो ? यह प्रश्न अब मीडिया की खबरों मे उभर कर आ रहा हैं | अल जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार अभी तक 36 चर्च पर हमले हो चुके हैं | आखिर ऐसा क्यो? हक़ीक़त मे मुस्लिम ब्रदर हूड़ का पूरा गुस्सा इन कोपटिक ईसाइयो को लेकर ही हैं | वास्तव मे मुरसी ने सत्ता मे आने के बाद संविधान मे परिवर्तन कर के इन वर्गो को निर्वाचन से बरतरफ करने की कोशिश की |, थी जिसका विरोध ''तहरीर चौक '''मे प्रदर्शन के रूप मे आया | परंतु वह खिलाफत मुरसी के इस कदम के विरुद्ध थी | लेकिन यह नियति ही हैं की जो आंदोलन सत्ता के अन्याय के विरुद्ध शुरू हुआ वही अब मुस्लिम ब्रदर हूड़ द्वारा कब्जे मे ले लिया गया |
मुस्लिम ब्रदर हूड़ का एक मात्र उद्देस्य मुरसी को सत्तासीन कराना ही हैं | जिस से की मिस्र को इस्लामिक राज्य बनाने का सपना पूरा हो सके | वैसे इस संगठन ने अल्जीरिया मे इस प्रकार की कोशिस कर चुका हैं परंतु वंहा के सैनिक शासको ने उनके मंसूबे को ध्वस्त कर दिया हैं | उसके बाद ''मध्य - पूर्व '' के अनेक देशो मे इस संगठन ने चुनाव के जरिये सत्ता पर क़ाबिज़ होने का पर्यटन किया , परंतु वे अपने '''अतिवादी''' नज़रिये के कारण उन देशो की मुख्य धारा मे समाहित नहीं हो पाये | धर्म के नाम पर वे आम लोगो को अपने साथ तो कर लेते थे परंतु अपनी ''विचार धारा ''' मे उन्हे रंग नहीं पाते थे |यही कारण था की चुनाव मे सफलता पाने के बाद भी वे राजनीति की राह पर उन्हे अपने साथ ""ले जाने मे असफल"" रहते थे |
वर्तमान राजनीतिक हालत हुमे वापस उसी युग की याद दिलाते हैं , जब इस्लाम और ईसाइयो मे धर्म युद्ध हुआ था | क्योंकि आज कल कुछ लोग फिर यह मांग करने लगे हैं की फिर कोई '''सलादीन'''आएगा क्या ? आखिर क्यों ऐसी धारणा पनप रही हैं ? क्या इशारा करता हैं यह रुझान ? क्योंकि सलादीन ने जेरूशलम के लिए हुए दूसरे युद्ध मे इस्लामी राज्यो की सेनाओ का सेनापति था ,जिसने ईसाइयो की सेनाओ को पराजित किया था | कुछ ऐसी ही भावना इस्लाम के मानने वालों के मन तब पनपी थी जब इराक के सद्दाम हुसैन को ''मेंहदी'' के रूप मे देखा जा रहा था | घोड़े पर सवार उसकी मूरत को बताया गया | परंतु युद्ध मे अमेरिका के हाथो पराजित होने के बाद यह भरम टूट गया |
इस अतिवादी सोच ने साइप्रस का विभाजन कराया फिर लेबनान मे गृहयुध को जनम दिया जो आज तक जारी हैं | बम के धमाके और कार बम से मरने वालों की संख्या सैकड़ो तक मे पहुँच जाती हैं | इन बेगुनाहों की मौत का कारण बस इतना ही हैं की वे किसी ऐसे धर्म को मानते हैं जिसके दुश्मन सिर्फ मौत का नंगा नाच करना जानते हैं |शिया - सुन्नी अथवा कुर्द और तुर्क , अरबी और यमनी इन सम्प्रदायो अथवा इलाकाई कारणो से पनप रही दुश्मनी सिर्फ इस्लाम के बंदो मे क्यों हैं ? अन्य धर्मो के लोग जैसे ईसाई किसी भी संप्रदाय के हो आपस मे सहज हो कर ज़िंदगी बिताते हैं | परंतु इस्लाम के मानने वाले ही क्यो लड़ते रहते हैं ?यह सवाल जवाब चाहता हैं |
मिस्र मे मुरसी समर्थको तथा वंहा की सेना के बीच चल रहे संघर्ष मे चर्च पर हो रहे हमले का कारण वंहा के कोपटिक ईसाइयो के उपासना स्थलो को बर्बाद करना ही हैं | आखिर मुरसी समर्थको का गुस्सा इन धरम स्थलो पर क्यो ? यह प्रश्न अब मीडिया की खबरों मे उभर कर आ रहा हैं | अल जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार अभी तक 36 चर्च पर हमले हो चुके हैं | आखिर ऐसा क्यो? हक़ीक़त मे मुस्लिम ब्रदर हूड़ का पूरा गुस्सा इन कोपटिक ईसाइयो को लेकर ही हैं | वास्तव मे मुरसी ने सत्ता मे आने के बाद संविधान मे परिवर्तन कर के इन वर्गो को निर्वाचन से बरतरफ करने की कोशिश की |, थी जिसका विरोध ''तहरीर चौक '''मे प्रदर्शन के रूप मे आया | परंतु वह खिलाफत मुरसी के इस कदम के विरुद्ध थी | लेकिन यह नियति ही हैं की जो आंदोलन सत्ता के अन्याय के विरुद्ध शुरू हुआ वही अब मुस्लिम ब्रदर हूड़ द्वारा कब्जे मे ले लिया गया |
मुस्लिम ब्रदर हूड़ का एक मात्र उद्देस्य मुरसी को सत्तासीन कराना ही हैं | जिस से की मिस्र को इस्लामिक राज्य बनाने का सपना पूरा हो सके | वैसे इस संगठन ने अल्जीरिया मे इस प्रकार की कोशिस कर चुका हैं परंतु वंहा के सैनिक शासको ने उनके मंसूबे को ध्वस्त कर दिया हैं | उसके बाद ''मध्य - पूर्व '' के अनेक देशो मे इस संगठन ने चुनाव के जरिये सत्ता पर क़ाबिज़ होने का पर्यटन किया , परंतु वे अपने '''अतिवादी''' नज़रिये के कारण उन देशो की मुख्य धारा मे समाहित नहीं हो पाये | धर्म के नाम पर वे आम लोगो को अपने साथ तो कर लेते थे परंतु अपनी ''विचार धारा ''' मे उन्हे रंग नहीं पाते थे |यही कारण था की चुनाव मे सफलता पाने के बाद भी वे राजनीति की राह पर उन्हे अपने साथ ""ले जाने मे असफल"" रहते थे |
वर्तमान राजनीतिक हालत हुमे वापस उसी युग की याद दिलाते हैं , जब इस्लाम और ईसाइयो मे धर्म युद्ध हुआ था | क्योंकि आज कल कुछ लोग फिर यह मांग करने लगे हैं की फिर कोई '''सलादीन'''आएगा क्या ? आखिर क्यों ऐसी धारणा पनप रही हैं ? क्या इशारा करता हैं यह रुझान ? क्योंकि सलादीन ने जेरूशलम के लिए हुए दूसरे युद्ध मे इस्लामी राज्यो की सेनाओ का सेनापति था ,जिसने ईसाइयो की सेनाओ को पराजित किया था | कुछ ऐसी ही भावना इस्लाम के मानने वालों के मन तब पनपी थी जब इराक के सद्दाम हुसैन को ''मेंहदी'' के रूप मे देखा जा रहा था | घोड़े पर सवार उसकी मूरत को बताया गया | परंतु युद्ध मे अमेरिका के हाथो पराजित होने के बाद यह भरम टूट गया |
इस अतिवादी सोच ने साइप्रस का विभाजन कराया फिर लेबनान मे गृहयुध को जनम दिया जो आज तक जारी हैं | बम के धमाके और कार बम से मरने वालों की संख्या सैकड़ो तक मे पहुँच जाती हैं | इन बेगुनाहों की मौत का कारण बस इतना ही हैं की वे किसी ऐसे धर्म को मानते हैं जिसके दुश्मन सिर्फ मौत का नंगा नाच करना जानते हैं |शिया - सुन्नी अथवा कुर्द और तुर्क , अरबी और यमनी इन सम्प्रदायो अथवा इलाकाई कारणो से पनप रही दुश्मनी सिर्फ इस्लाम के बंदो मे क्यों हैं ? अन्य धर्मो के लोग जैसे ईसाई किसी भी संप्रदाय के हो आपस मे सहज हो कर ज़िंदगी बिताते हैं | परंतु इस्लाम के मानने वाले ही क्यो लड़ते रहते हैं ?यह सवाल जवाब चाहता हैं |
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