तथ्यो को नकारते तर्क और आरोप
खाद्य सुरक्षा कानून पर आलोचना के दो तीन मुख्य बिन्दु हैं , जिनके बारे मे या तो जन प्रतिनिधियों को कुछ गलत फहमी हैं अथवा वे जानबुझ कर इन तथ्यो की अनदेखी कर रहे हैः | फिलहाल जो भी हो , | सार्वजनिक वितरण प्रणाली को केंद्र सरकार द्वारा ""बर्बाद "" करने का आरोप लगाया गया | हक़ीक़त यह हैं की प्रदेश सरकारे ही इस व्यसथा को न केवल चलती हैं वरन यह उनका संवैधानिक दायित्व भी हैं | अब प्याज के दाम आसमान छूने लगे तो भी दिल्ली सरकार की कमजोरी | हर राज्य मे आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू हैं | जिसके अधीन प्रदेश का खाद्य एवं आपूर्ति विभाग राज्य मे जींसों की उपलब्धता निश्चित करता हैं | जब कभी जमाखोरी अथवा कालाबाजारी की कोशिस होती हैं तब इस मोहकमे की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती हैं | प्याज़ के आसमानी दामो के समय ही यह खबरे भी आई की आढतियो ने और कुछ कोल्ड स्टोरेज वालों ने प्याज का स्टॉक कर लिया हैं ,और वे दामो को जबर्दस्ती बदने दे रहे हैं | सभी खाद्यनों और वस्तुओ के लिए सरकार एक ''सीम्स'' निर्धारित करती हैं | अगर व्यापारी आम जनता का शोषण करने और मुनाफा कमाने के लिए जमाखोरी कर रहे हैं , तब शासन '''भंडारण''' की सीमा को ""घटा "" देता हैं , फलस्वरूप बाज़ार मे उस वस्तु की आवक बड़ जाने से दाम नियंत्रित रहते हैं | अब यह कारवाई राज्य सरकारो द्वारा नहीं की जाये और दोष केंद्र सरकार के माथे मढ दिया जाये तो यह बात हजम नहीं होती | क्योकि आरोप तथ्यो पर आधारित नहीं हैं |
राजनीतिक दलो द्वारा चुनाव के समय की जाने वाली घोसणाओ मे मुफ्त बांटी जानी वाली वस्तुओ का वादा आखिर क्या हैं ? क्या ? खाद्य सुरक्षा कानून को वोट कैचिग कानून कहने से क्या इस प्रयास की सार्थकता समाप्त हो जाती हैं ? आखिर पिछले बीस वर्षो से तमिलनाडु और आंध्र मे मुफ्त चावल और मंगल सूत्र वितरित करने वाली सरकारो को तो वोट के लिए '''दोष'''नहीं दिया गया ,वरन इन योजनाओ को जन - कल्याङ्कारी बताया गया |तब फिर अब इस भूख समाप्त करने वाले प्रयास को राजनीतिक बता कर विरोध का ढोंग करना कितना अर्थपूर्ण है ? लोकसभा मे विधेयक के प्रस्तुत करते समय संशोधनों की बा ढ आ गयी थी , परंतु काँग्रेस अदयक्ष सोनिया गांधी के भाषण के बाद जब यह स्पष्ट हो गया की सरकार का इरादा पक्का हैं , तब सौ से अधिक संशोधनों का परिणाम स्पष्ट हो गया था | आखिर मे वामपंथी दलो के अलावा सभी ने विधेयक पर मतदान करने की भी हिम्मत नहीं दिखाई | ऐसा क्यो ? क्या विरोध सिर्फ मीडिया मे भाषण देने के लिए ही था ?
एमजीआर ने तमिलनाडू मे मुफ्त चावल देने की शुरुआत की थी , फिर एनटीआर ने आंध्र मे भी गरीबो को राशन देने की शुरुआत की थी | इसके बाद मुंबई नगरनिगम पर काबिज होने के बाद झुमका -भख़र की दूकाने मुंबई के सार्वजनिक स्थलो पर खोली थी | जंहा पाँच रुपये मे एक रोटी बाजरे की और चटनी | इन सब तथ्यो को रखने का तात्पर्य यह हैं की सरकार के जिस प्रयास को ''साधनो पर गैर ज़रूरी ''' दबाव बता रहे थे उन सभी ने किसी न किसी वक़्त मे खुद ऐसी ही योजनाओ को शुरू किया था | भा जा पा के दोनों प्रदेशो की सरकारे यानि छतीसगढ और मध्य प्रदेश सरकरे भी गरीबो को सस्ता अनाज वितरित कर रही है | केंद्र की ''अंतयोदय'' योजना मे प्राप्त धनराशि को ''मुकया मंत्री खदायन्न योजना ''' के नाम से चलाया जा रहा है | हाँ इस ''जन कल्याण कारी योजनो मे बीजेपी का विकास मोडेल गुजरात शामिल नहीं है | फिर देश मे बेकार का इस योजना के ''दुष्प्रचार'' का अर्थ क्या है ?
खाद्य सुरक्षा कानून पर आलोचना के दो तीन मुख्य बिन्दु हैं , जिनके बारे मे या तो जन प्रतिनिधियों को कुछ गलत फहमी हैं अथवा वे जानबुझ कर इन तथ्यो की अनदेखी कर रहे हैः | फिलहाल जो भी हो , | सार्वजनिक वितरण प्रणाली को केंद्र सरकार द्वारा ""बर्बाद "" करने का आरोप लगाया गया | हक़ीक़त यह हैं की प्रदेश सरकारे ही इस व्यसथा को न केवल चलती हैं वरन यह उनका संवैधानिक दायित्व भी हैं | अब प्याज के दाम आसमान छूने लगे तो भी दिल्ली सरकार की कमजोरी | हर राज्य मे आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू हैं | जिसके अधीन प्रदेश का खाद्य एवं आपूर्ति विभाग राज्य मे जींसों की उपलब्धता निश्चित करता हैं | जब कभी जमाखोरी अथवा कालाबाजारी की कोशिस होती हैं तब इस मोहकमे की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती हैं | प्याज़ के आसमानी दामो के समय ही यह खबरे भी आई की आढतियो ने और कुछ कोल्ड स्टोरेज वालों ने प्याज का स्टॉक कर लिया हैं ,और वे दामो को जबर्दस्ती बदने दे रहे हैं | सभी खाद्यनों और वस्तुओ के लिए सरकार एक ''सीम्स'' निर्धारित करती हैं | अगर व्यापारी आम जनता का शोषण करने और मुनाफा कमाने के लिए जमाखोरी कर रहे हैं , तब शासन '''भंडारण''' की सीमा को ""घटा "" देता हैं , फलस्वरूप बाज़ार मे उस वस्तु की आवक बड़ जाने से दाम नियंत्रित रहते हैं | अब यह कारवाई राज्य सरकारो द्वारा नहीं की जाये और दोष केंद्र सरकार के माथे मढ दिया जाये तो यह बात हजम नहीं होती | क्योकि आरोप तथ्यो पर आधारित नहीं हैं |
राजनीतिक दलो द्वारा चुनाव के समय की जाने वाली घोसणाओ मे मुफ्त बांटी जानी वाली वस्तुओ का वादा आखिर क्या हैं ? क्या ? खाद्य सुरक्षा कानून को वोट कैचिग कानून कहने से क्या इस प्रयास की सार्थकता समाप्त हो जाती हैं ? आखिर पिछले बीस वर्षो से तमिलनाडु और आंध्र मे मुफ्त चावल और मंगल सूत्र वितरित करने वाली सरकारो को तो वोट के लिए '''दोष'''नहीं दिया गया ,वरन इन योजनाओ को जन - कल्याङ्कारी बताया गया |तब फिर अब इस भूख समाप्त करने वाले प्रयास को राजनीतिक बता कर विरोध का ढोंग करना कितना अर्थपूर्ण है ? लोकसभा मे विधेयक के प्रस्तुत करते समय संशोधनों की बा ढ आ गयी थी , परंतु काँग्रेस अदयक्ष सोनिया गांधी के भाषण के बाद जब यह स्पष्ट हो गया की सरकार का इरादा पक्का हैं , तब सौ से अधिक संशोधनों का परिणाम स्पष्ट हो गया था | आखिर मे वामपंथी दलो के अलावा सभी ने विधेयक पर मतदान करने की भी हिम्मत नहीं दिखाई | ऐसा क्यो ? क्या विरोध सिर्फ मीडिया मे भाषण देने के लिए ही था ?
एमजीआर ने तमिलनाडू मे मुफ्त चावल देने की शुरुआत की थी , फिर एनटीआर ने आंध्र मे भी गरीबो को राशन देने की शुरुआत की थी | इसके बाद मुंबई नगरनिगम पर काबिज होने के बाद झुमका -भख़र की दूकाने मुंबई के सार्वजनिक स्थलो पर खोली थी | जंहा पाँच रुपये मे एक रोटी बाजरे की और चटनी | इन सब तथ्यो को रखने का तात्पर्य यह हैं की सरकार के जिस प्रयास को ''साधनो पर गैर ज़रूरी ''' दबाव बता रहे थे उन सभी ने किसी न किसी वक़्त मे खुद ऐसी ही योजनाओ को शुरू किया था | भा जा पा के दोनों प्रदेशो की सरकारे यानि छतीसगढ और मध्य प्रदेश सरकरे भी गरीबो को सस्ता अनाज वितरित कर रही है | केंद्र की ''अंतयोदय'' योजना मे प्राप्त धनराशि को ''मुकया मंत्री खदायन्न योजना ''' के नाम से चलाया जा रहा है | हाँ इस ''जन कल्याण कारी योजनो मे बीजेपी का विकास मोडेल गुजरात शामिल नहीं है | फिर देश मे बेकार का इस योजना के ''दुष्प्रचार'' का अर्थ क्या है ?
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