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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Mar 8, 2025

 

याद यादों झरोखे से :-

आज सन 2024 मे यह कल्पना करना भी आज के युवकों को अचरज लगेगा की कभी देश की लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओ के चुनाव सामाजिक और आर्थिक नारों पर लड़े जाते थे ! और दलीय प्रतिद्वंदी भी एक दूसरे के प्रति सद्भाव रखते थे | आज मुझे कुछ ऐसी ही घटनाए याद आ रही है | 1957 का देश मे दूसरा आम चुनाव था | उस समय मुख्य रूप से काँग्रेस और प्रजा सोशलिस्ट तथा जनसंघ { भारतीय जनता पार्टी की पूर्वज } एवं कम्युनिस्ट पार्टी ही हुआ करती थी | यू तो सुभाष बाबू की फारवर्ड पार्टी और हिन्दू महासभा तथा करपात्री महराज की राम राज्य परिषद भी मैदान में कुछ जगहों पर अपना भाग्य आज़माती थी | काँग्रेस पार्टी महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य और किसानों के भूमि सुधारों की मांग पर जनता के बीच जाती थी | वनही प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नारा जो मुझे आज तक याद है -- वह देश में एक निश्चित वेतन पॉलिसी की पकसधार थी ----- नारा था "”” सौ से कम ,नया हजार से जयदा , सोशलिस्ट का यही तकाजा "” | तत्कालीन ब्रिटेन में लेबर पार्टी भी राष्टीय वेतन नीति की समर्थक थी |

आज यह नारा अपने अर्थ खो चुका हैं -- कारण है की मंहगाई ने "”मुद्रा "” की शक्ति काफी काम कर दी हैं | सोचिए 67 वर्ष पूर्व एक श्रमिक का महीने भर का वेतन एक सैकड़ा होता था ,जिसमे वह अपने परिवार का भरण पोषण करता था | 1957 मे ही सोलह आने , और चौसठ पैसे का रुपया --- सौ पैसे का हो गया | सोलह छाँटाक या चार पाव के सेर की जगह ग्राम और किलोग्राम आ गए थे ! उस समय छह आने का एक सेर चीनी {शक्कर} मैंने खरीदा हैं |

यह तो हुई आर्थिक स्थिति की बात , अब आते हैं राजनीतिक सदाशयता पर | रायबरेली संसदीय चुनाव छेत्र से स्वर्गीय फिरोज गांधी काँग्रेस प्रत्याशी के रूप मे लड़ते थे | उनके खिलाफ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नन्द किशोर प्रत्याशी थे | फिरोज साहब अपनी जीप से छेत्र का दौरा करते और चाय पीने रॉयबरेली रेलवे स्टेशन आते थे | उन दिनों चाय बहुत अभिजात्य वर्ग के लोगों का पे होता था | ब्रुक बॉन्ड और लिप्टन वाले अपनी चाय का प्रचार जुलूस निकाल कर करते और सड़क के किनारे खड़े लोगों को "”फ्री "” मे चे पिलाते थे | यही हाल बीड़ी और सिगरेट कंपनियों का था | मुझे स्मरण है कैवेंडर्स और बीड़ी नंबर 207 का प्रचार | वे भी दो - दो सिगरेट और बीड़ी के पैकेट बना कर लोगों को बांटते थे | सोचिए आज फ्री की चे और सिगरेट - बीड़ी वितरित करना संभव नहीं लगता | यह वैसे ही था जैसे रिलायंस कंपनी ने पहले - पहले मोबाईल मे डेडीकेटेड सिम देकर "”नाममात्र शुल्क पर सभी को बांटना शुरू किया था | जिससे उनके प्रतिद्वंदी टाटा और एयरटेल आदि मात कहा गए | और आज उनकी किराये की दरे हर छह माह मे बदती जाती हैं | मतलब यह की जनता को एक बार "”कोई लत या आदत डाल दो , फिर आपका काम सिर्फ बेचना ही रह जाएगा |

Mar 7, 2025

 

ट्रम्प ने बदल दिया --प्रशासन और कूटनीतिक संबंधों का धरातल !

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जिस आंधी तूफान की गति से अपनी विदेश नीति के आधार को बदल रहे हैं | उनके लिए प्रशासन “”लोकतंत्र “” नहीं वरन “”लोगों के लिए तंत्र हो गए हैं |, उससे कनही जयदा तेजी से वे अमेरिकी प्रशासन तंत्र मे उलट फेर कर रहे हैं | एक तरह से देखा जाए --- तो लोकतंत्र के अर्थ ही बदल रहे हैं | कुछ - कुछ ऐसा ही हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी आंतरिक प्रशासन मे नए - नए प्रयोग किए हैं | राजनीतिक रूप से भी दोनों ही नेताओ की अपनी पार्टी के सांसदों पर "”पकड़ " बड़ी मजबूत हैं | यानि इनके सांसदों को अपने वोटरों का हित प्राथमिकता "”नहीं "” हैं , बल्कि "”बॉस"’ का हुकूम या उनकी मर्जी ही सर्वोपरि हैं | मिसाल के तौर पर पर दोनों ही "”नैतिकता अथवा परंपरा "” के हामी नहीं है | दोनों का उद्देश्य अपने उद्योगपति दोस्तों को कैसे मुनाफा कमाने मे सरकारी स्तर पर मदद की जा सकती है --यही प्राथमिकता रहती हैं |

यानि इनका "”लोकतंत्र "” बहुमत अथवा बहु जनसंखया के हित का संवर्धन करना नहीं होता --वरन धनपतियों की झोली भरना होता हैं | आइए देखते हैं ट्रम्प साहब के फैसले -- सबसे पहले उन्होंने आम अमेरकी को मिलने वाले "”मेडिक्लेम "” को खतम करना था | चूंकि इस नीति से स्वास्थ्य का बीमा करने वाली कंपनियों को "’थोड़ा घाटा "’ हो रहा था , इसलिए ओबामा प्रशासन ने की इस परियोजना को बंद कर दिया गया | अब रिपब्लिकन सांसद और सेनेटर अपने छेत्र के मतदाताओ को जवाब देने मे कठिनाई का सामना कर रहे हैं | दूसरा फैसला हाल ही मे लिया गया है जिसके द्वरा संघीय शिक्षा विभाग को पूरी तरह से बंद कर दिया गया हैं | वैसे भारत की तरह अमेरिका में भी शिक्षा प्राथमिक तौर पर राज्यों का विषय हैं , परंतु विश्वविद्यालय स्तर पर संघीय एजेंसी ऐसे लोगों की मदद करती है जो या तो शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कमजोर होते हैं | ट्रम्प के नए फैसले से अब इन वर्गों को कोई मदद नहीं मिलेगी !! यह तो हुआ शिक्षा और स्वास्थ्य के छेत्र में ट्रम्प प्रयोग !

भारत में भी शिक्षा और स्वास्थ्य के छेत्र में केंद्र ने अपना योगदान यानि बजट में कमी की हैं | वनही निजी मेडिकल कालेज और बड़े बड़े अस्पतालों को साजो सामान के "”आयात "” मे सुविधा दी गई हैं | उत्तर प्रदेश में 22 हजार से अधिक प्राथमिक स्कूल आज बिना भवन अथवा पर्याप्त शिक्षकों के दम तोड़ रहे हैं | वनही गवों मे तो नहीं वरन कस्बों तक मे "”पब्लिक स्कूल " दिखाई पड़ते हैं | जिनकी सालाना फीस हजारों में होती हैं |जबकि सरकारी सकुलो में मात्र सैकड़े ही फीस के लिए जाते हैं | केंद्र सरकार द्वरा संचालित "” केन्द्रीय स्कूल "” मे भी आरक्षित वर्ग एवं सैनिकों अथवा वर्दीधारी संगठन के लोगों के बच्चों को भी नाम मात्र की फीस लगती हैं | जबकि उसका रिजलट सीबीएसई परीक्षाओ में सर्व श्रेष्ठ होता हैं | परंतु बीजेपी शासित राज्य सरकारों ने प्रधान मंत्री स्कूल नए तो नहीं बने हैं , परंतु पुराने स्कूल का ही नया नामकरण कर दिया गया हैं | परंतु केन्द्रीय बजट में शिक्षा का अनुदान काफी काम हैं |

राजनीतिक रूप से देखा जाए तो ट्रम्प ने वही उम्मीद अपने मतदाताओ को दिखाई है जैसे मोदी जी ने भारत मे किया था | उदाहरण के तौर पर मंहगाई कम करने के नारे की बात करे | तो पिछले दस सालों में { जब से मोदी जी सत्ता में हैं } खाने - पीने की वस्तुओ के दामों मे सौ प्रतिशत से भी अधिक बड़े हैं | बिजली की दरों में मे भी वर्धी हुई | अमेरिका में भी ट्रम्प के आने के बाद ब्रेड और अंडों के दाम मे भारी बडोटरी हुई हैं | फिलहाल डिपार्ट्मेन्टल स्टोर में खाने - पीने की वस्तुओ के शेल्फ खाली है | रही अमेरिका के नौजवानों को नौकरी के अवसरों को सुलभ कराने की | सो ट्रम्प की नई योजना के तहत सरकारी दफ्तरों मे काम कर रहे हजारों लोगों की छटनी हो चुकी हैं | एवं अभी और सरकारी दफ्तरों को बंद किया जाना है , अब ऐसे में जिन लोगों के पास नौकरी थी वे भी "” सोशल सेक्योरिटी "” मे नाम लिखा रहे हैं | वनही ट्रम्प के अंध भक्त सोशल सेक्युरिटी को बंद करने की मांग कर रहे हैं | अधिकतर यह मांग दक्षिण के राज्यों से हैं ----जो अधिकतर खेती और पशु पालन अथवा मुर्गी एवं सुवर पालन का काम करते हैं | वैसे औसत अमेरिकी नौजवान मेहनत का काम करना पसंद नहीं करते --- इन राज्यों में सर्वाधिक आप्रवासी है जो मेक्ससईको - कोलम्बिया और चीन फिलीपींस आदि के होते हैं | परंतु ट्रम्प के "”अवैध आप्रवासी "” निकलो के कार्यक्रम से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण के राज्य ही हहै |

कूटनीतिक स्तर पर :_ राष्ट्रपति ट्रम्प ने दूसरे देशों से संबंध को व्यापारिक हितों पर परखा हैं | अभी तक दो देशों मे दोनों ही देश अपने राजनीतिक सिद्धांतों और आर्थिक संबंधों को वरीयता देते थे | परंतु अब ट्रम्प साहेब ने राजनीतिक प्रतिबद्धता की परवाह नहीं की | इसीलिए उन्हे यूक्रेन से संबंध सिर्फ उसके "” खनिज भंडार को खरीदने "” का हैं | वे इस व्यापारिक हिट से अमेरिकी प्रशासन को कोई सीधा लाभ नहीं होना हैं ----परंतु ट्रम्प के रिपब्लिकन साथियों को लाभ होगा | अगर देखा जाए तो ट्रम्प अमेरिका के पहले राष्ट्रपति हैं जो खुले आम रूसी राष्ट्रपति पुतिन से "”दोस्ती"” का दावा करते हैं |इतना ही नहीं वे रूस को यूक्रेन पर "”आक्रमणकारी "” मानने से भी इनका करते हैं ! इतना ही नहीं वे संयुक्त राष्ट्र संघ में पूर्व अमेरिकी प्रस्ताव के खिलाफ भी अपने प्रतिनिधि से वोट करने को कहते हैं ! उनके इस निर्णय से "” नाटो "” सैन्य संगठन और यूरोपीय यूनियन के देश भी भी अब अमेरिका को अपना "” मित्र "” मानने से

हिचक रहे हैं | हालत यंहा तक बिगड़ गए की अमेरिका यूक्रेन को खुफिया जानकारी देने से मना कर दिया हैं | वनही नॉर्वे ने अमेरिका को अपनी खुफिया जानकारी देने से मना कर दिया हैं | यूक्रेन के मामले में ट्रम्प की "”पलटी "” ने यूरोपीय यूनियन के देशों को खुद रक्षा के लिए तैयारी करने को मजबूर कर दिया हैं |

Mar 2, 2025

महा शक्तियों के नेताओ द्वरा महान असभ्यताए की जाती हैं !

 

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वरा जिस कूटनीतिक असभ्यता का सार्वजनिक रूप से यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्सकी से दुर्व्यवहार किया गया ,वह सारी दुनिया ने देखा है ! दो देशों के राष्ट्रपति जब मिलते हैं ---तब उनसे बराबरी का व्यवहार होता हैं | भले ही वह छेत्रफल और आबादी में कितना ही छोटा हो | परंतु ट्रम्प का व्यवहार तो कूटनीति के इतिहास में एक उदाहरण बन गया हैं | जिस तरह से टीवी चैनलों के सामने वे यूक्रेन के राष्ट्रपति को धमक रहे थे ---वह उनके पूर्व के बयानों के अनुरूप ही था | जिस अभिमान भरे स्वरूप मे वे रूस और यूक्रेन के मध्य तीन साल से चल रहे युद्ध को "”रोक देने " का दावा कर रहे थे , उसी के अनुरूप उन्होंने व्हाइट हाउस मे हुई दोनों पक्षों की वार्ता के दौरान दादागिरी का प्रदर्शन किया | उनका जोर था की यूक्रेन पहले शांति प्रस्ताव को मंजूरी दे -रूस के हमले से सुरक्षा का वादा बाद में विचारणीय होगा ! जेलेन्सकी का कथन था की युद्ध रोकने की शांति वार्ता में उनके राष्ट्र की मौजूदगी अनिवार्य हैं | जिस पर ट्रम्प राजी नहीं थे | उनका स्वार्थ यूक्रेन के खनिज भंडार पर कब्जे का था | शांति प्रस्ताव में उसी का वर्णन था |


सोवियत रूस के नेता निकिता खुरसचेव ने 12 अक्टूबर 1960 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में उस समय अपना जूता निकाल कर मेज पर पटक दिया था ,जब फिलीपींस के नेता हिन्द महासागर मे उनकी जल सीमा के उल्लंघन पर चर्चा हो रही थी | इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प बदतमीजी करने वाले पहले नेता नहीं हैं |गौर तलब हैं की ट्रम्प और जेलेन्सकी प्रकरण पर प्रतिक्रिया देते हुए रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के सहयोगीयो ने जैसी भाषा का उपयोग किया ----- मसलन , ट्रम्प ने जेलेन्सकी को झापड़ क्यू नहीं मार दिया , दूसरे ने जेलेन्सकी को "”सुवर "” कहा !




ट्रम्प का व्यवहार द्वितीय महायुद्ध के बाद तीन बड़े राष्ट्रों की यूक्रेन के यालटा मे हुई बैठक के समान था | जिसमे अमेरिका -रूस और ब्रिटेन ने दुनिया का बंटवारा कर लिया था | गौरतलब है की इजराइल और सऊदी अरब राष्ट्र का निर्माण इस बैठक के बाद ही हुआ | लॉर्ड वालफोर को फिलिसतीन और अरब के कब्जे के इलाके को काट कर यहूदियों के लिए एक राष्ट्र का निर्माण किया गया , क्यूंकी यहूदियों का संहार जर्मन सत्ता द्वरा किया गया था | उन्हे तरह तरह की यंत्रनाए दी गई थी | आज भी आशविज {जर्मनी } में उन यंत्रणा घरों को देखा जा सकता हैं | इसके अलावा यहूदियों ने मित्र राष्ट्रों की वित्तीय रूप से भी मदद की थी | आज उसी का परिणाम हैं की फिलिसतीन के गाजा इलाके मे इजराइल की बमबारी से सम्पूर्ण इलाका ध्वस्त कर दिया गया हैं | डोनाल्ड ट्रम्प गाजा को मध्य पूर्व का रिवेरा बनान चाहते हैं | अन्तराष्ट्रिय रूप से गाजा से फिलिस्टिनी लोगों को दूसरे देश में चले जाने का "”सुझाव "” वे ही देसकते हैं ! कोई कैसे अपनी जन्म भूमि को छोड़कर दूसरे देश में शरणार्थी के रूप मे जा कर भासे | वह भी तब समस्त यूरोप के देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के प्रति "” नफरत "” का भाव हैं | जर्मनी मे तो एक राजनीतिक पार्टी ने देश में हो रहे अपराधों के लिए मुस्लिम देशों से आए इन शरणार्थियों को ही दोषी बताया , और वनहा की युवा मतदाताओ ने इस मांग का भरपूर समर्थन भी किया |

Mar 1, 2025

 

मिस्टर ट्रम्प आप भूल गया है वियतनाम और अफगानिस्तान !

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यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपने घर बुला कर अपने चमचों से बेइज्जत करवाने का काम जिस प्रकार अंतराष्टीय मीडिया के सामने किया उससे डोनाल्ड डक ही साबित हुए हैं ! ट्रम्प साहब यह भी भूल गए की "”अमेरिका फर्स्ट "” को वियतनाम से और फिर अफगानिस्तान से दम दबाकर भागना पड़ा था | वियतनाम और अफगानिस्तान मे ,दोनों ही स्थानों मे अमेरिकी सैनिकों के साथ यूरोपीय देशों के सैनिक कंधे से कंधा मिल कर लड़े थे | आज जो ताव ट्रम्प साहब युरोपियन देशों पर दिखा रहे हैं ----वे सभी नाटो संधि के कारण ही उसकी सनक मे साथ थे | आज अमेरिका फर्स्ट का नारा देने से वे "” विश्व गुरु "” नहीं बन जाएंगे , क्यूंकी वो तो भारत मे बाउठे है ,उनके मित्र भी हैं |

दूसरे महा युद्ध के बाद ब्रिटिश --फ्रेंच -- डच आदि साम्राज्यों ने अपने उपनिवेशों को आजाद करना शुरू कर दिया था | भारत -इंडोनेशिया और वियतनाम आदि उसी समय आजाद हुए थे | वियतनाम में फ्रांस के जाने बाद स्थानीय जनता ने चुनाव मे सरकार बनाई | परंतु वामपंथी विचारधारा के डॉ हो ची मिन्ह का प्रभाव लोगों पर अधिक था | उनकी सरल जीवन शैली और विचारों से वियतनामी प्रभावित थे | उसी प्रकार जैसे महात्मा गांधी के जीवन से भारत के लोग प्रभावित हैं | वियतनाम का दो भागों मे विभाजन हुआ | यह जेनेवा मे हुए अन्तराष्ट्रिय समझौते 1954 के मुताबिक हुआ | उत्तर विएटनाम वामपंथी और दक्षिण पंथी अमेरिका समर्थक शक्तियों को दे दिया गया | राष्ट्रपति ट्रूमन ने दक्षिणी वियतनाम पर जब उततार विएटनाम के सैनिकों ने हमला किया तब उन्होंने अपने सैनिक भेजे थे | 1955 स् 1968 तक छिटपुट और छापामार लड़ाई दोनों पक्षों मे चली बाब मे 1968 में अमेरिकी फौजों ने ने वियतनाम मे पैर रखा | राष्ट्रपति ट्रूमन से शुरू हुआ यह फौजी संघरस राष्ट्रपति आइजनहावेर से होता हुआ राष्ट्रपति कैनेडी के शासन काल तक आया | अमेरिकी सैनिकों की भारी संख्या मे मौतों से सैन्यबाल मे कमी आ गई थी | इसे देखते हुए अमेरिकी प्रशासन से देश "”” आम लामबंदी "” अर्थात सभी 18 से बीस वर्ष की आयु के नौजवानों को दो वर्ष के लिए सेना मे सेवा का करार भरना पड़ता था | राष्ट्रपति कैनेडी को इस लामबंदी का जन विरोध बहुत सहना पड़ा | उन्होंने वियतनन युद्ध को समाप्त करने का प्रयास किया , खैर उनकी इसी दौरान हत्या हो गई और उनके उतराधिकारी जानसन के समय अमेरिकी फौजों की वापसी हुई | फलस्वरूप उत्तर वियतनाम की पराजय हुई और दोनों वियतनाम का एकीकरन हुआ |


तो यह था ट्रम्प की "”शक्तिशाली अमेरिकी सेना "”” का पराक्रम !!!

दूसरा नमूना पड़ोसी देश अफगानिस्तान का हैं | जनहा ट्रम्प के अमेरिका फर्स्ट को दूम दबा कर बिना कोई तैयारी के काफी सैन्य सामान छोड़कर भागना पड|

यंहा तक की जिन अफगानियों ने अमेरिका के प्रोग्राम मे मदद की थी उन्हे भी ट्रम्प साहब सुरक्षा नहीं दे पाए | उनके दूतावासों मे काम करने वाले "”” तालिबान"” लड़कों के हाथ लग गए और उनकी हत्या हुई | अमेरिका के पहले रूस ने 1979 मे राष्ट्रपति के महल पर बम बरस केर हत्या कर दी थी | उसके बाद 1989 तक सोवियत सेनाए तालिबान लड़ाकों से जूझती रही | ओबामा से लेकर जनाब ट्रम्प के पहले शासन काल मे भी अमेरिकी और नाटो देशों के सैनिक अफगानी तालिबानी लोगों से लड़ते रहे | परंतु 31 अगस्त 2021 को काबुल से आखिरी अमेरिकी सैनिक जहाज उडा था |

इन संदर्भों मे व्यापारी कम धंधेबाज अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जब देश की आजादी के लिए लड़ रहे जेलेन्सकी से दुर्व्यवहार कर रहे थे ,राष्ट्रीय मीडिया के सामने ------उन्हे कैसे एक राष्ट्रीय नेता स्वीकार किया जाए ? चुनाव मे विजयी होना तो "”” तिकड़म "” सफलता है , परंतु सभ्य समाज मे स्वीकार्यता तो व्यवहार और ज्ञान से ही आती हैं | जिसका अमेरिकी राष्ट्रपति में अभाव दिखता है "” | इतना ही कहा जा सकता है की ट्रम्प ने अफगानिस्तान में सोवियत हमले के समय बयान दिया था की "” रूस ने अफगानिस्तान पर हमला नहीं किया बल्कि वह रूस की सीमा पर आतंक मचाने वाले तालीबानों का पीछा कर रहा था "” यह बयान ट्रम्प के रूस प्रेम के कारण को स्पष्ट कर देता हैं |


Feb 26, 2025

 

यादों के झरोखे से :-


बात तब की है जब मैं जूनियर हाई स्कूल का छात्र हुआ करता था | लखनऊ में पंडित नेहरू का दौरा था ' | अमौसी हवाई अड्डे पर उनका विमान उतरना था | अब हवाई अड्डे का नाम चौधरी चरण सिंह विमानपत्तन हो गया हैं | पंडित जी विक्टोरिया पार्क में सभा को संबोधित करने वाले थे | शाम को नियत वक्त पर देश के प्रथम प्रधान मंत्री पालिमाउथ कार से उतरे | उनके साथ शार्क स्किन की बुसशर्त और पैंट पहने लंबे से गलमुछ वाले व्यक्ति भी उतरे | पंडित जी पीछे की सीट से उतरे और यह सज्जन ड्राइवर की बगल से उतरे | पार्क में अनुमान से 20 से 30 पुलिस वाले थे ,जो व्ययस्थ देख रहे थे | वे नेहरू टोपी भी लगाए थे जो गुलाबी रंग की थी| पंडित जी के पीछे की कार से सम्पूर्णानन्द जी और एक और मंत्री भी उतरे थे | उनके साथ कोई भी आदमी नहीं था |

पूछने पर मुझे बताया गया की गलमूचों वाले व्यक्ति रॉय बहादुर जमुना प्रसाद त्रिपाठी थे ,जो उत्तर प्रदेश पुलिस मे पुलिस कप्तान थे | जो प्रधान मंत्री की सुरक्षा मे थे ,यानि बॉडीगार्ड थे | बाकी मंत्री अकेले थे | नेहरू जी के साथ शायद तीन या चार गड़िया थी हाँ दो पिकअप थी जिसमे से ही कुछ सिपाही उतरे थे | बस इतनी ही सुरक्षा प्रधान मंत्री की थी |

दूसरे वीआईपी थे ईरान के तत्कालीन शहंशाह आर्यमहर और एम्प्रेस

सुरैया का लखनऊ का दौरा | तब स्कूल की तरफ से हम लोगों को उनके गुजरत्ने वाले सड़क पर लाइन से खाद्य कर दिया गया था | हमरे मास्टर साहब ने कहा था की जब वे गुजरे तब नर लगाना था "” शाहे ईरान ज़िन्दाबाद " \| विदेशी शाही जोड़े के साथ खुली कर में दो लोग शायद सुरक्षा के थे | तीसरा वाकया था , प्रथम अंतरिक्ष यात्री रूस के "”यूरी गाग्रिन "” की लखनऊ यात्रा थी | तब शूली छात्रों को बस हाथ हिलाने थे | उनके साथ भी पाँच छा ही गड़िया रही होंगी | ये सभी राष्ट्र के प्रथम नागरिक के बराबर को उनकी सुरक्षा की हकदार थे |

ये वाकया इसलिए याद आया क्यूंकी भोपाल मे औद्योगिक अधिवेशन के उद्घाटन मे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को आना था ___ शहर को "” sanitaiez करने के एनएसजी के निर्देश पर भोपाल की एक तिहाई इलाके को बड़ाबांदी कर दी गई | बीस -तीस सड़क मार्ग को एकांगी कर दिया गया | अनेकों मार्गों को बंद कर दिया गया | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के राजभवन से ट्राइबल मूजियाम के रास्ते को तो घंटों पहले लोगों की आवाजाही को रोक दिया गया था | अब सुरक्षा के नाम पर ऐसी कवायद शायद ही किसी अन्य राष्ट्र में होती होगी , जन्हा तक मुझे जानकारी हैं | वैसे इतनी तो सुरक्षा इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की भी नहीं हुआ करती थी | हाँ आवागमन से आधे सेएक घंटे पूर्व ही ट्रैफिक रोक जाता था | पर अब तो ................|

 

आंदोलन का अधिकार मांगने वाले --- आज किसान और वकीलों के आंदोलन से भयभीत !


संभवतः आजाद भारत में सरकार के विरुद्ध पहला आंदोलन { गौ वध निरोधक कानून } की मांग को लेकर तत्कालीन जनसंघ और आरएसएस ने प्रभुदत्त ब्रमहचारी की अगुवाई में निकाला था | अब ब्रिटिश हुकूमत के ट्रेंड पुलिस वालों ने इन आंदोलनकारियों से उसी प्रकार निपटे ,जिस प्रकार वे स्वाधीनता आंदोलन के समय काँग्रेस के लोगों से निपटते थे | परंतु आजादी की लड़ाई से "”दूर "” रहने वाले स्वयंसेवकों को और सफेद वस्त्रधारी साधुओ को पुलिस के हथकंडों का अनुभव नहीं था ! इसलिए गौ रक्षा आंदोलन के इन कार्यकर्ताओ ने राजनीतिक सहयोगीयो की मदद से नेहरू सरकार को "”हिन्दू विरोधी "” और मलेकछ बताया था | आज वही जनसंघ और संघ की विरासत को आगे ले जाने वाली सरकार किसानों की मांग को दबाने केव लिए और वकीलों के विरोध को देखते हुए ----आंदोलन को दबाने के लिए "”कानून "” का सहारा ले रही हैं |

लेकिन मोदी सरकार के दोनों ही प्रयास बैक फायर कर गए |

गौर तलब हैं की 2020 में मोदी सरकार किसानों के हित के नाम पर तीन विधेयक

kraashi उपज व्यापार वाणिज्य विधेयक और क्रशक कीमत आश्वासन कर्षी व्यापार करार तथा आवश्यक वस्तु संशोधन बिल यह कह कर मोदी सरकार लाई थी की इन कानूनों द्वरा किसान की उपज का "”अच्छा मूल्य "” मिलेगा ! परंतु वास्तव यह विधेयक उद्योगपति अदानी की स्कीम मे ही मदद कर रहे थे | सरकार की मंशा को भाँपते हुए पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने "” दिल्ली चलो का नारा दिया | इस आवाहन पर हजारों ट्रकतोर जी टी रोड पर निकाल पड़े ---जिनका मकसद दिल्ली संसद भवन को घेरना था | परंतु सरकार अपने प्रयासों को किसानों के हिट मे बताती रही | परंतु किसान कानूनों को वापस लेने की मांग पर आड़े रहे |और किसान आंदोलन एक साल तक चला ! एक अनुमान के अनुसार 605 आंदोलनकारी किसानों की दिल्ली बार्डर पर मौत हुई | हालांकि "” संवेदनशील बताने वाली सरकार "” को ना ना तो मरने वाले किसानों की संख्या ज्ञात थी और इतनी संवेदना भी नहीं थी की लोकसभा में विपक्ष के संवेदना प्रस्ताव को विचार के लिए मंजूर करते | हालांकि एक साल तक सड़कों को खोदकर खाइनयां खोद कर और लोहे छड़े को सड़कों पर सीमेंट पर लगाने का काम मोदी सरकार के समय ही हुआ !! वैसे यह नरेंद्र मोदी सरकार की सार्वजनिक रूप से पहली "” खंदकी हार थी "” और किसानों की चमकती हुई विजय थी |

मोदी सरकार में "”सहनशक्ति "” का पूरी तरह से अभाव हैं | इसका उदाहरण हाल ही लाए गए एडवोकेट ऐक्ट 1961 मे संशोधन बिल को जनता की रॉय जानने के लिए सार्वजनिक डोमेन मे दल गया | संघ और सरकार समझते थे की सत्ता और अंधभक्तों की सहायता से वकीलों पर भी नियंत्रण कर लेंगे | विरोधी दल और सुप्रीम कोर्ट की बार काउंसिल के वरिस्थ सदस्य सरकार के कानूनों की "”वास्तविकता और सत्ता की मंशा "” को सार्वजनिक रूप से उजागर करते रहे हैं | जिससे सार्वजनिक रूप से सरकार की काफी "”किरकिरी" होती रहती हैं | सत्ता के भक्तों ने शीर्ष नेत्रत्व को वकीलों पर लगाम कसने की सलाह दी जिसका समर्थन "” प्रधान मंत्री के अंध भक्तों ने सोशल मीडिया पर किया | परंतु जब उत्तर प्रदेश और बीजेपी शासित राज्यों से भी सरकार की संशोधन की पहल का जोरदार विरोध हुआ तब सत्ता के कंगूरे पर बैठे लोगों को बताया गया की काफी विरोध है जो --- अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के बेतुके प्रशासनिक कदमों की भांति भर्त्सना की जा रही हैं | तब मोदी सरकार ने दूसरी बार "”अपने आगे उठे कदम को वापस लिया "” और केंद्र सरकार ने सार्वजनिक रूप से संशोधन वापस लिए जाने का ऐलान किया |यह शक्तिशाली प्रधान की सार्वजनिक पराजय थी |

Feb 25, 2025

 

लोकतंत्र बनाम जिम्मेदार सरकार ---भारतीय नागरिक


प्रयागराज में "”महा कुम्भ "” मे हुई अव्यवस्था और भगदड़ पर सोशल मीडिया पर "” एक भक्त"” ने पोस्ट लिखा की " सरकार के बेहतरीन इंतजाम के बावजूद ट्रेनों में तोडफोड और जगह -जगह गंदगी को देखते हुए , लगता हैं भारत के नागरिक "”लोकतंत्र "” के लिए तैयार नहीं हैं ! अब इन सज्जन को क्या कहे की आज के भारत को जिस प्रकार का राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा मिल हैं --वह हमारे पूर्वजों की "देन " नहीं हैं बल्कि ब्रिटिश या अंग्रेजों की विरासत हैं | कुछ अति उत्साही मौजूदा लोकतंत्र को सम्राट अशोक के "”नगर गणतंत्र" की विरासत मानेंगे ! वे पूरी तरह गलत नहीं हैं , परंतु सही भी नहीं हैं |

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वरा देशी रियासतों को परास्त करने के बाद शोषण और अत्याचार की परिणिती ही 1857 का विद्रोह का जनक था | जिसके बाद ब्रिटिश शासक ने भारत की प्रशासनिक और राजनीतिक बागडोर अपने हाथों मे ले ली | 1858 में विक्टोरिया चार्टर द्वरा भारत के उन प्रांतों को जन्हा कंपनी बहादुर सीधे लगान वसूलती थी और उन रियासतों का प्रबंध सीधे ब्रिटिश संसद के माध्यम से महारानी की सरकार ने अपने हाथों में ले लिया | 1861 में भारत में ब्रिटेन की सरकार की ओर से भारत के लिए वायासरॉय की नियुक्ति की गई जिसकी मदद के लिए पाँच सदस्यीय कौंसिल बनाई गई , जो महारानी के मंत्रिमंडल के , भारत के सचिव के अधीन थी | एक जिम्मेदार शासन व्यवस्था के लिए "”भारतीय सिविल सेवा "” का गठन किया गया | जो आज के मौजूदा आईएएस के पुरखे थे | वायसरॉय की मदद के लिए पाँच सदस्यीय काउंसिल का गठन हुआ --जो गृह -सेना --कानून --वित्त और राजस्व मामलों के लिए जिम्मेदार थी | इसमे वैसे तो अंग्रेज ही सदस्य होते थे परंतु भारतीयों के लिए भी एक जगह थी |

1905 में ब्रिटिश संसद ने भारत के लिए एक "”जनोन्मुखी "’ प्रशासन देने की पहल करते हुए 1909 में सीमित मताधिकार द्वरा धर्म आधारित निर्वाचन छेत्र बनाए | जिनको वायासरॉय को सलाह देने के लिए एक काउंसिल के लिए चुना जाता था | इसमे हिन्दू और मुसलमान लोगों के लिए अलग -अलग निर्वाचन छेत्र थे | 1919 में सिखों के लिए भी प्रथक निर्वाचन छेत्र गठित किए गये | ऐसा भारत के आम लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति सद भावना उत्पन्न करने का प्रयास था | एक विदेशी कौम द्वरा भारत को प्रशासनिक ढांचे मे बांधने का शायद यह प्रथम प्रयास था | 1919 के अधिनियम द्वरा केंद्र में दो सदन का गठन किया गया | जिसमे तत्कालीन "” नरेंद्र मण्डल "” यानि की खुद मुख्तार देशी राजाओ की ओर से प्रतिनिधि नामित होते थे | दूसरे सदन में नरेश मण्डल अर्थात बड़े -बड़े महराज बहादुर और राजा बहादुर , जो की वास्तव में इलाकों से किसानों से मालगुजारी --लगान वसूलते थे | ब्रिटिश शासित इलाकों में दो प्रथा थी | एक में इलाके की पैदावार के हिसाब से सरकार नियात राशि का भू राजस्व तय करती थी | फिर उसको वसूलने का अधिकार किसी देशी सेठ साहूकार या जमींदार को मिलता था | जिसकी जिम्मेदारी उस राजस्व को खजाने में पहुचने की थी | कुछ इलाकों में जन्हा अंग्रेज भी जमीन लेकर फसल उगाते थे , वन्हा किसानों को जमीन के रकबे के हिसाब से मालगुजारी नियत की जाती थी | इस प्रथा में किसान सीधे खजाने मे लगान जमा करता था | अवध में दोनों प्रथा थी | चूंकि उस समय शासन का मुख्य ये का श्रोत लगान या मालगुजारी ही हुआ करता था ------इसलिए जिलों मे सर्वोच अधिकारी को "”कलेक्टर '’ नाम दिया गया | जीसे आज हम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कहते हैं | जिम्मेदार प्रशासन की दिशा में यह पहला कदम था -----जिसमे कोई भी नागरिक अपनी शिकायत कलेक्टर साहब से सीधे कर सकता था , जो उसकी जांच करता था | आज तो आम आदमी सिर्फ मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री से ही शिकायत कर सकता हैं | हालांकि कलेक्टर साहेबान भी जन सुनवाई करते तो हैं | यह भी ब्रिटिश सीस्टम से ही आया हैं |



Feb 18, 2025

 

यादों के झरोखे से :-

हम पहले बता चुके हैं की आजादी के बाद किस तरह देश में उद्योग और खेती के विकास के लिए आवश्यक पूंजी का अभाव था| कुछ लोग इस देश में हैं जो इतिहास के पन्नों में विभिन्न राजाओ के काल को स्वर्णिम बताया कर --- वर्तमान की तुलना करते हैं ! अब उनका सारा ज्ञान इतिहास की किताबों का हैं | जब उनके तर्क को समर्थन के लिए इतिहास में तथ्य मिल जाते हैं ,तब गाने लगते हैं "””जनहा जनहा डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती हैं बसेरा वो भारत देश हैं मेरा "” | अब चंद बरदाई के "” चार बां स चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण ,तय ऊपर सुल्तान हैं मत चुकयो चौहान "” अब जिस तिथि और स्थान मे मुहम्मद गोरी को मारे जाने का प्रथविराज रासो मे जिक्र है वह इतिहास की तारीखों से नहीं मेल खाता हैं ! अब जन प्रचलित "”आल्हा "” में जिस आल्हा और उदल का जिक्र हैं --- उनकी लड़ाइयों का इतिहास में जिक्र नहीं मिलता हैं | लेकिन गावों में तो वे नौजवानों के आइडियल हैं | लेकिन वे इतिहास के पन्नों में नहीं हैं | अब काल्पनिक नायकों से इतिहास की हकीकत नहीं हुआ करती | कुछ ऐसे ही वे नव रईस थे जो नेहरू द्वरा मूल उद्योगों को सार्वजनिक छेत्र में रखे जाने से असहमत थे | उनसे पूछ लिया की स्टील - खनिज और पानी तथा हवाई जहाज के निर्माण के लिए पूंजी कान्हा से लाते ? उन्होंने कहा देश के उद्योगपति लगा सकते थे ! अब उन्हे कौन बताए की 1960 और 2020 मे बहुत अंतर हैं | तब टेक्सटाइल मिले बॉम्बे -कानपुर और कलकत्ता तथा कोयंबटूर मे ही थी | स्टील का बस एक कारखाना टाटा का जमशेदपुर मे था | रेलवे के एंजिन बनाए का कारखाना चितरंजन मे ही था | तब ट्रेन गिनी चुनी हुआ करती थी , पर दुर्घटनहीं ही होती थी | पंडित नेहरू के समय में एक रेल दुर्घटना हुई जिसमे जन -धन की हानि हुई थी , तब सरकार में सत्ता जिम्मेदारी निभाती थी | तब लाल बहादुर शास्त्री रेल मंत्री थे , उन्होंने नेहरू के मना करने के बावजूद मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया | अब तो रोज दुर्घटनाए होती हैं , और मंत्री को तो छोड़ो किसी अधिकारी का भी इस्तीफा नहीं होता | खैर बात छठे दशक ( 1960) की कर रहे थे तब सोना भी ढाई सौ से तीन सौ रुपये हुआ करता था | लेकिन सरकार के पास इतना पैसा नहीं था की वह स्टील और बिजली के बड़े कारखाने लगाए | तब पहला स्टील कारखाना आज के भिलाई में रूस की मदद से और बंगाल में दुर्गापुर ब्रिटेन की सहायता से तथा राऊरकेला कारखाना अमेरिका की सहायता से बना | यह तत्कालीन सरकार के नेत्रतव की दूरदर्शिता थी की आज खनिज तेल और बड़े -बड़े उद्योगों के छेत्र मे देशी सेठ कारखाने लगा रहे हैं | परंतु सार्वजनिक छेत्र की पूंजी तब सुलभ हुई जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंक का राष्ट्रीयकरण किया | तब सरकार को भी सार्वजनिक छेत्र में हिंदुस्तान ऐरीनौटिक्स और इंडियन ऑइल जैसे नवरतन उद्योग लगे | आगे फिर कुछ ........

Feb 17, 2025

 

यादों के झरोखे से :-

देश को आजादी मिले हुए अभी दस वर्ष भी नहीं हुए थे , और हम अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को खो चुके थे | परंतु अब हम बर्तनिया हुकूमत के अंदर कोई डोमिनियन स्टेट नहीं थे वरन एक सार्वभौम राष्ट्र थे | बहुत से लोगों के मन यह शंका होगी की क्या फरक होता हैं ----इन दोनों स्थितियों में ? तो समझे की कनाडा और आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड बारतनिया यानि की ब्रिटिश सिंहासन के औपचारिक अधीनता मंजूर करते हैं | इसका अर्थ यह हुआ की इनके गवर्नर जनरल की औपचारिक नियुक्ति बकिंघम पैलेस से घोषित होती है | वीज़े ये सभी राष्ट्र भी गणराजय है -----अर्थात देश के सर्वोच्च पद पर कोई भी नागरिक आसीन हो सकता हैं | यद्यपि ये देश भी "”राष्ट्रकुल "” यानि कामनवेल्थ के सदस्य हैं | परंतु भारत के राष्ट्रपति का चुनाव हम अपने "”संविधान "” के अंतर्गत करते हैं |

यह तो थी कानूनी बारीकी , अब आइए लौटकर बीसवी सदी के छठे दशक मे चलते हैं | बड़े -बड़े बांधों ने देश के किसानों को जरूरत भर का सिंचाई का जल सुलभ कर दिया था | कुछ छोटे -मोटे कारखाने भी अब शुरू हो रहे थे | पटसन उद्योग अब गाव गाव मे रस्सी बनाए के साथ नारियल के पेड़ों से निकली मुंज की रस्सी भी नौकायन उद्योग के काम आने लगी थी | अब देश की विकास की भूख बड़ रही थी | विकसित राष्ट्र बनने के लिए स्टील और बिजली बहुत जरूरी थे | जिनके लिए प्रशिक्षित लोग और , कल - कारखाने के लिए अनवरत बिजली की जरूरत थी | परंतु उस समय ब्रिटेन --- अमेरिका आदि स्टील के कारखाने और बिजली घर देने को राजी नहीं थे | ऐसे मे पंडित नेहरू की "”” गुट निरपेक्ष "” और पंचशील ही काम आए | सोवियत रूस ने आगे आकार नव स्वतंत्रता पाए भारत की ओर "”दोस्ती का हाथ आगे किया "” और इस प्रकार भारत को पहला स्टील प्लानट "” भिलाई "” मिला | अब स्टील के को बनाने मे बिजली की खपत बहुत ज्यादा होती है , इसलिए बिजली का एक छोटा प्लांट भी भी आया | परंतु देश को ताप बिजली यानि थर्मल विद्युत की जरूरत हुई | पनबिजली का उत्पादन बारह मास और चौबीस घंटे नहीं हो सकता हैं | परंतु स्टील के उत्पादन के लिए लगातार और अधिक बिजली जरूरत होती है | इसके लिए सोवियत रूस ने ओबरा और पत्र टूर मे तापबिजली घर प्लांट डालर के विनिमय पर नहीं वरन , रुपये के विनिमय के तहत दिया | इसका अर्थ यह था की भारत सोवियुत रूस को जो सामान बेचेगा उसका मूल्य रुपये मे दिया जाएगा | जिससे रूस अपने कर्ज की भर पाई करेगा | जब दुनिया मे राष्ट्रों के बीच व्यापार ब्रिटिश पाउंड या अमेरिकी डालर मे हो रहा था ------तब भारत ऐसे नव स्वतंत्रता पाए भारत को यह सुविधा बहूत्त बड़ा वरदान साबित हुआ | आगे फिर कभी


Feb 15, 2025

 

""उप महामहिम"” - पारदर्शिता और सत्य के लिए प्रधान न्यायधीश चयन समिति में बैठते हैं !


उप राष्ट्रपति धनखड़ जी ने भोपाल मे राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी मे सम्बोधन करते हुए "”आश्चर्य व्यक्त किया "” की कार्यपालिका की नियुक्ति के संबंध में न्यायपालिका को कैसे हम "”शामिल "” कर सकते हैं | उनके तर्क के अनुसार लोकतंत्र में राष्ट्र के तीनों निकायों मे शक्ति के विभाजन के अनुसार सीबीआई के डायरेक्टर के चयन मे प्रधान न्यायधीश का क्या काम !! उनके अनुसार कार्यपालिका {सरकार } के कार्य सम्पादन में किसी भी प्रकार का "”हस्तकछेप "” चाहे वह विधायिका से हो अथवा न्यायपालिका से हो --- संविधान तथा लोकतंत्र के उसूलों के विरुद्ध हैं | धनखड़ जी खुद अदालतों मे वकालत कर चुके हैं | हालांकि वे सफल वकील नहीं रहे | उन्होंने कहा की संविधान में संशोधन "”केवल संसद का अधिकार हैं "”! एक अनजाने महा न्याय वादी की किताब कॉ उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा "”मेरी समझ से तो संविधान के मूलभूत सिद्धांतों पर बहस की जरूरत हैं "”|

जगदीप धनखड़ जी संवैधानिक पद के नंबर दोयम पर आसीन हैं | परंतु वे उच्च सदन के सभापति भी हैं | अब वे सांविधानिक --रूप से नंबर दो पर होने के बाद राष्टीय विधायिका के "”सभापति "” भी हैं ! मेरी तुच्छ बुद्धि के अनुसार यदि सांविधानिक पद पर हैं तब ,उन्हे विधायिका और उससे जन्मे व्ययस्थापिक से बिल्कुल समान दूरी बना कर रखनी चाहिए | राज्यसभा मे बैठक का संचालन करते हुए उनके व्यवहार और फैसलों को समझा जा सकता है की "””वे कितने न्याय प्रिय हैं '” विपक्ष के सांसदों ने अनेकानेक बार उन पार "” न्याय नहीं नहीं करने "”का आरोप लगाया हैं "|


सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट से बार -बार यह सुनना पड़ा था की "”वह सरकारी तोता है "” | जिसका इशारा था की सीबीआई की जांच सरकार के समर्थन में ही होती हैं | वह "”न्याय"” पूर्ण नहीं होती हैं !! क्यूंकी अधिकतर सरकार अपने किसी "”स्वामिभक्त " अफसर को इस पद पर नियुक्त करती थी | सुप्रीम कोर्ट की फटकार से "” केंद्र सरकार "” ने सीबीआई मुखिया की नियुक्ति में सर्वोच्च अदालत के प्रधान को भी शामिल किया | जिसका अर्थ यह था की कम से कम अब सीबीआई को ""पिंजरे का तोता "” सुप्रीम कोर्ट नहीं कह सकेगी |

लेकिन मोदी सरकार के समय जिस प्रकार "”जांच एजेंसियों "” ने सत्ता विरोधियों को "”निशाना "” बनाने का काम किया है , उसके बाद ही सत्तारूद दल को "वाशिंग मशीन "” की उपाधि मिल गई है | अब सरकार सीबीआई से ज्यादा इ डी की जांच को प्रमुखता से अवसर दे रही हैं | मोदी सरकार के "”काल "” मे यह मुहावरा बन गया हैं की अगर आप गैर भाजपाई है तो आपको धरमराज बन के रहना होगा | वरना आप एंडी टीवी कर प्रणव रॉय और राधिका रॉय की भांति बेगुनाह होते हुए भी -- “”सरकारी "” जांच एजेंसी इतना परेशान करेगी की आप को देश छोड़ना पड़ेगा | यह बात और है की आठ माह बाद वही जांच एजेंसी -- अदालत मे बयान देती है की की रॉय दंपति के विरुद्ध कोई कोई अपराध किया जाना नहीं पाया गया !!! कुछ ऐसा ही झूठ तू जी घोटाले के बारे में विनोद राय ने भी देश से बोल था | जिसको आरएसएस और बीजेपी ने प्रचारित कर के तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार को बदनाम किया | फलस्वरूप चुनावों मे काँग्रेस की पराजय हुई |

उप महामहिम जी को यह समझना होगा की सरकार बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लोकतंत्र को कायम रखना हैं , और उसके लिए सत्ता रुड पार्टी के "”अनीतिक " और अवैध फैसलों को रोकने -- टोकने वाला अफसर चाहिए | ना की कार सेवको पर गोली चलवाने वाला मुख्य सचिव जो बाद में अयोध्या के राम मंदिर निर्माण का जिम्मा निभा रहा हैं | इन्ही कारणों से जांच एजेंसियों के मुखिया की रीड़ इतनी मजबूत होनी चाहिए की वह प्रधान मंत्री को भी गलत काम के लिए ना कह सके |