महभियोग
त्रयी
आखिर
क्यो न्यायपालिका मीडिया से
अछूत जैसा व्यवहार कर रही है
?
आखिर
लोकतन्त्र के लिए दोनों की
ही स्वतन्त्रता समान रूप से
आवश्यक है ---
टच
मी नाट का रवैया उचित नहीं है
|
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सर्वोच्च
न्यायालय की खंड पीठ मे
न्यायमूर्ति सीकरी और न्यायमूर्ति
भूसण ने एक जनहित याचिका की
सुनवाई करते हुए मीडिया मे
प्रकाशित और प्रसारित हो रहे
समाचारो मे न्यायपालिका के
लिए सम्मानजनक स्थिति को
बरकरार नहीं रखे जाने की शिकायत
की थी |
उन्होने
भारत के महान न्यायवादी
वेनुगोपाल से जानना चाहा की
क्या इस प्रकार के समाचारो
से सुप्रीम कोर्ट की साख पर
प्रश्न चिन्ह नहीं लगता ?
दूसरा
उदाहरण है प्रसाद ट्रस्ट के
मेडिकल कालेज मे भर्ती के
मामले मे उड़ीसा उच्च न्यायालय
के अवकाश प्राप्त न्यायधीश
आई एम कुदूसी के विरुद्ध सीबीआई
द्वारा दर्ज़ की गयी प्राथमिकी
की खबर लिखने या दिखाने पर
दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट
के अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश
ट्विंकिल वाधवा ने – प्रार्थी
की अर्ज़ी पर मीडिया द्वारा
इस केस से संबन्धित किसी भी
खबर को प्रसारित करने या
प्रकाशित करने पर "”रोक
"”
लगा
दी है !
यह
वे ही जज साहब है जिनको लेकर
प्रधान न्यायधीश दीपक मिश्रा
पर महाभियोग प्रस्ताव विरोधी
दलो के सांसदो ने दिया था |
घटना
क्रम कुछ इस तरह था की मेरठ के
प्रसाद ट्रस्ट द्वरा अपने
मेडिकल कालेज मे छात्रों के
दाख़लों को लेकर मामले मे अदालत
मे केस चला रहा था |
इस
मामले मे ट्रस्ट ने मन -माफिक
फैसले के लिए मुंहमांगी रकम
दिये जाने का प्रस्ताव दिया
था |
किनही
कारणो से जुस्टिस कुद्दूस इस
मामले मे बिचौलिये थे |
सीबीआई
ने शिकायत पर जांच की |
इस
मामले मे संलिप्त लोगो की
टेलीफोन पर हुई वार्ता को टेप
भी किया था |
जब
सीबीआई ने जुस्टिस कुद्दूस
की गिरफ्तारी के लिए प्रधान
न्यायधीश दीपक मिश्रा से
''अनुमति
चाहिए ''
का
आवेदन दिया ,
तब
प्रधान न्यायधीश ने गिरफ्तारी
पर रोकलगा दी |
मीडिया
सूत्रो के अनुसार रिश्वत खोरी
के आरोप की जांच कर रही सीबीआई
ने काफी सबूत एकत्र कर लिए थे
|परंतु
अभियुक्तों की गिरफ्तारी के
बिना मामले को आगे बड़ा पाना
संभव नहीं था |
सीबीआई
के प्रसाद ट्रस्ट मेडिकल कालेज
घोटाले की परते देश के बड़े -
बड़े
लोगो तक जुड़ी है |
अब
उन सफेडपोशों के नाम पर पर्दा
डालने के लिए ---अदालत
से संबन्धित मामलो के समाचारो
के प्रकाशन और प्रसारण पर
निषेधाज्ञा जारी कर के "”
मीडिया
की स्वतन्त्रता का हरण हो रहा
है |”
जज
कुदुषी इस मामले मे सिर्फ "”
अदालत
के फैसले के अलावा ,
इस
मामले से जुड़े किसी भी समाचार
के प्रकाशन और प्रसारण पर रोक
छाते थे ----वह
उन्हे मिल गयी !!
पर
प्रैस या मीडिया की आज़ादी पर
"”रोक
लगा दी गयी "”
| अब
न्यायपालिका की आज़ादी की रक्षा
भले ही हो गयी हो ,
परंतु
नागरिक के मौलिक अधिकार का
तो हनन हुआ !
संविधान
के अनुछेद 19
[क
]
के
द्वारा भारत के प्रत्येक
नागरिक को बोलने या अभिव्यक्ति
की स्वतन्त्रता को प्रदान की
गयी है |
अब
एक नागरिक के रूप मे भले ही आप
व्यक्ति की आज़ादी को "”सीमित
"”
कर
सके ,परंतु
एक प्रोफेसनल या पत्रकार को
उसके दायित्व निर्वहन से रोकना
क्या न्यायपालिका के लिए
तर्कसंगत होगा ?
अभी
हाल मे दिल्ली उच्च न्यायालय
की कार्यपालिक मुखी न्यायाधीश
ने कठुआ मे नाबालिग बच्ची से
बलात्कार के मामले मे पीड़िता
जिसकी मौत दरम्यान जुर्म हो
गयी थी ,
उसका
चित्र दिखाने को "”अपराध
"”
मान
कर दस मीडिया संस्थानो पर 10
- 10 लाख
का जुर्माना किया !
अपने
फैसले मे उन्होने लिखा की मरे
हुए व्यक्ति के नाम छापने या
प्रसारित होने से "”प्रभावित
की इज्ज़त पर बुरा असर होता है
"”
! वैसे
एक तर्क है की "”इज्ज़त
"”
का
संदर्भ जीवित व्यक्ति के लिए
होता है |
जो
इस दुनिया से ही बिदा हो गया
– वह "”
मान
-अपमान
''
से
परे हो जाता है |
दिल्ली
हाइ कोर्ट के इस फैसले के आधार
और दंड पर बहुत विवाद है |
जिस
प्रकार न्यायपालिका का रुख
"”टच
मी नाट "”
हो
रहा मीडिया के प्रति यह
"”लोकतन्त्र
के लिए स्वस्थ नहीं है "”
| दस
-बीस
वर्ष पुरानी घटना है --की
नयी दिल्ली के बड़े क्लब मे
तत्कालीन हरियाणा के काँग्रेस
के मंत्री के पुत्र ने एक बार
बाला की गोली मर कर हत्या कर
दी |
जैसा
होता है की रसूख और पैसे के
ज़ोर से पुलिस और गवाह सब खरीद
लिए गए |
मामला
अदालत मे आया --पुलिस
ने मुकदमे मे काफी सूराख छोड़
रखे थे |
फलस्वरूप
वही हुआ की क़ातिल -शक
की बिना मे छुट गए |
उस
कातिल का नाम था "”मनु
शर्मा "”
| परंतु
शासन और न्याय तंत्र की लापरवाही
को एक महिला पत्रकार बहुत ही
छुब्ध हुई |
उसने
मृतका को "”
न्याय
"
दिलाने
के लिए मुहिम चलायी |
कुछ
पत्रकार साथियो ने और उच्च
न्यायालय के संवेदनशील न्यायधीश
ने ,उनकी
मुहिम मे मदद की |
अंत
मे मामले की पुनः सुनवाई हुई
पुलिस के "”झूठ
"
और
"न्यायिक
तंत्र "
की
सुस्ती की पोल खुल गयी |
परिणाम
स्वरूप मनु शर्मा एवं उसका
एक साथी ''जीवन
की अंतिम सांस तक के लिए सलाखों
के पीछे भेज दिये गए |''
एक
और मामला भी है -
दिल्ली
का कटारा हत्याकांड |
एक
आईएएस अफसर का होनहार पुत्र
का प्रेम एक यादव कन्या से हो
गया |
लड़की
के पिता ,
पश्चिमी
उत्तर प्रदेश के ''डान''
थे
,
सत्तारूद
दल के विधायक भी थे |
संदेहास्पद
परिस्थितियो मे उस बालक की
मौत हो गयी और लाश भी शहर से
दूर मिली |
म्र्तक
की माँ और दो -एक
पत्रकार वालो ने इस मामले को
''
उल्टा
-
पुलटा
कर सुलटाने की पुलिसिया और
अदालती कोशिस "”
का
भन्डा फोड़ने का इरादा किया |
पुलिस
की जांच के बाद फिर दुबारा
जांच हुई तब ''सच
सामने आया "”
की
युवक की हत्या इसलिए विधायक
और उनके पुत्रो द्वारा कर दी
गयी थी ---क्योंकि
वे "”
जाति''
के
बाहर लड़की के शादी के इरादे
के खिलाफ थे !!
इन
घटनाओ का ज़िक्र करना यानहा
इसलिए ज़रूरी है की न्याय की
खोज मे लोकतन्त्र का यह "”प्रहरी
"”
भी
भरसक अपनी भूमिका निभाने की
कोशिस करता है |
हाँ
वेतन भोगी पत्रकार ही यह काम
कर सके थे |
परंतु
अब --मालिक
और सरकार के बाद न्यायपालिका
के "बेरूखे
रवैये ''ने
मुश्किल खड़ी कर दी है |
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