फैसले
मे नियम देखना होगा या नीयत
??
इलाहाबाद
उच्च न्यायालय के मुख्य
न्याधिपति भोसले ने लखनऊ के
ज़िला जज मिश्रा को इसलिए निलंबित
कर दिया क्योंकि उन्होने
अखिलेश मंत्रिमंडल के सदस्य
गायत्री प्रजापति
को
बलात्कार के मामले मे जमानत
दी थी |
संविधान मे
उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ
अदालतों के कामकाज पर निगरानी
का अधिकार दिया है |
परंतु अदालती
निर्णयो के आधार पर
किसी भी
न्यायाधीश को निलंबित करने
का अधिकार शायद इस डायरे के
तहत नहीं आता है |
क्योंकि निचली
अदालतों के फैसलो को "”स्वतः
अथवा अपील मे सुनने का अधिकार
है ,जिसमे
वह अपने समझ से फैसले को बरकरार
अथवा उलट सकता है |
“” प्रजापति
के मामले मे भी उच्च न्यायालय
ने ज़िला जज के फैसले को रद्द
करते हुए सीबीआई की याचिका
पर अपना निर्णय दिया "”
जज
मिश्रा का निलंबन उनके अवकाश
ग्रहण करने के 24
घंटे पूर्व
आया !
इस
मामले मे शायद उच्च न्यायालय
ने अपनी सीमाओ का और संवैधानिक
व्यस्थाओ का ख्याल नहीं रखा
| अव्वल
तो जमानत और स्थगन के आदेश आम
तौर पर एक लाइन के हुआ करते है
"”
HEARD THE COUNSALS OF BOTH THE SIDE , BAIL GRANTED OR HEARD
THE COUNSALS FOUND THAT STAY IS APPROPRIATE ऐसे
निर्णयो मे पीठासीन अधिकारी
का स्वविवेक ही अंतिम होता
है | उच्च
न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय
के फैसले भी कई बार सार्वजनिक
छेत्र मे विवाद का मुद्दा रहे
है | उच्च
न्यायालय के अनेक मामलो मे
उच्चतम न्यायालय ने उनके फैसले
को गलत और विधि सम्मत नहीं
मानते हुए निर्णयो को उलट दिया
है | परंतु
इस कारण संबन्धित न्यायधीश
को न तो कोई निलंबन किया गया
अथवा ना ही उनकी नीयत पर शंका
व्यक्त की गयी |
चलिये
एक अनुमान लगते है की जज मिश्रा
यदि इस "”
प्रशासनिक
आदेश को उच्चतम न्यायालय "”मे
चुनौती देते है और वनहा जुस्टिस
भोसले के आदेश को अवैधानिक
करार दिया जाता है तब क्या
स्थिति होगी ?
क्या उस निर्णय
को यह मान लिया जाए की मुख्य
न्यायाधीश ने मौजूदा सत्तारूढ
दल को संतुष्ट करने के लिए यह
कदम लिया है ??
ऐसा कहना वांछित
नहीं होगा ,परंतु
वर्तमान शाका के माहौल मे आम
नागरिक के मन मे कई प्रकार के
प्रश्न आएंगे |
ऐसा ही तब हुआ
था जब उत्तराखंड उच्च न्यायालय
ने तत्कालीन कांग्रेस्स की
रावत सरकार को बरख़ाष्त कर
राष्ट्रपति शासन लगाया था |
तब उच्च न्यायालय
ने बहुमत का फैसला विधानसभा
मे अदालत के प्रतिनिधि की
निगरानी मे कराये जाने का आदेश
दिया था |
तब केंद्र और
बीजेपी के अनेक मंत्रियो और
नेताओ ने अदालतों को शासकीय
मामलो मे दखलंदाज़ी नहीं करने
की सलाह दी थी |
यानहा तक
दुष्प्रचार किया गया की मुख्य
न्यायाधिपति ईसाई है इसलिए
वे केन्द्रीय सरकार के वीरुध
है |
यद्यपि बाद
मे उच्चतम न्यायालय ने भी
जस्टिस जोसफ की खंड पीठ को
वैध और संविधान सम्मत करार
दिया था |फलस्वरूप
राष्ट्रपति शासन हटा कर विश्वास
मत पर मतदान हुआ और रावत सरकार
को बहुमत मिला |
इस मामले
मे जिस जल्दबाज़ी मे फैसला लिया
गया वह कुछ ज्यादा ही तीव्र
गति से लिया गया है |
इस समय देश
मे न्यायपालिका की साख पर
प्रश्न चिन्ह लग रहे है सवाल
उठाए जा रहे है ,की
न्याया सिर्फ शक्तिशाली और
धनवानों को ही मिलता है |
देश के दो प्रधान
न्यायधीश
सार्वजनिक
मंचो से ऐसी बाते कह चुके है
| अभी
तक उच्च और उच्चतम न्यायालय
मे नियुक्ति मे सरकार की
दखलंदाज़ी को शीर्ष अदालत
का कालेजियम इने झटक दिया है
| उन्होने
केंद्र की इस मांग को नामंज़ूर
कर दिया है की नियुक्ति पाने
वाले व्यक्तियों की सुरक्षा
जांच के उपरांत ही उसे नियुक्त
किया जाये | इसका
सीधा सा मतलब है की सरकार का
विरोध राष्ट्र विरोध है |
जिसे
प्रधान न्यायाधीशो ने अपमांजंक
निरूपित किया है |
यह सही भी है
जज नियुक्त होने वाले की
निसपक्षता अधिक जरूरी है ना
की किसी विचारधारा का होने
की |
बंगाल
उच्च न्यायालय के जज करनन
साहब ने वैसे ही सार्वजनिक
रूप से जजो की प्रतिष्ठा को
विवादित बना दिया है |
सुप्रीम कोर्ट
की संवैधानिक पीठ ने उनकी
मानसिक स्थिति की जांच के आदेश
दिये --तो
उन्होने सुप्रीम कोर्ट के
प्रधान न्यायाधीश समेत सात
जजो की मेडिकला जांच कराये
जाने का फैसला जारी कर दिया
| अब
ऐसे परिणाम जो भी हो परंतु साख
तो न्यायपालिका
की
ही गिरेगी !
अतः ऐसी अप्रिय
स्थिति से बचने के लिए सतर्क
रहना होगा |
No comments:
Post a Comment