शिक्षा
-- मंदिर
का प्रसाद है -
या
किसी संस्थान की दुकान ?
फोरम
के अनुसार शिक्षा वस्तु नहीं
और छात्र उपभोक़ता
मध्य
प्रदेश सरकार ने निजी विद्यालयो
पर नियंत्रण के लिए निश्चय
तो किया है --परंतु
वह भी स्कूल प्रबंधन के हित
के लिए |
उसमे
छात्र और अभिभावक के हित की
पूरी तरह से अनदेखी की गयी है
|
शासन
मी मंशा इसी प्रावधान से उजागर
हो जाती है की "”
सरकार
इन विद्यालयो की फीस पर नियंत्रण
तो रखेगी पर यह नहीं तय
कर पाएगी की फीस कितनी हो ?
दूसरा
मुद्दा ज़िला और राज्य स्तर
पर बनने वाली समितियों मे
अभिभावकों का कोई भी प्रतिनिधित्व
नहीं होगा !
अब
यह कैसा नियंत्रण है वह तो
सरकार के सचिव और मंत्री ही
जाने |
सुप्रीम
कोर्ट ने हाल ही मे निजी मेडिकल
कालेजो की मनमानी फीस पर
नियंत्रण लगाने का आदेश दिया
था |
तब
इनके मालिको ने धम्की दी थी
की भर्ती और फीस के नियम सरकार
तय कर रही है तब वह खुद ही इन
संस्थानो को चलाये |
कई
ने तो चाभी देने की पेश काश की
थी |
परंतु
यह सिर्फ बंदर घुड़की ही साबित
हुई |
इस
परिप्रेक्ष्य मे निजी विद्यालयो
को दी जा रही रियायत समझ मे
नहीं आती |
दूसरी
ओर दिल्ली के उपभोक्ता फोरम
ने एक छात्र की शिकायत पर फरमान
सुना दिया की "””ना
तो शिक्षा कोई वस्तु है और ना
ही छत्र उपभोक्ता |
मामला
था की एक तकनीकी संस्थान ने
इवैंट मानेजमेंट के डिप्लोमा
के एक वर्षीय कोर्स के लिए
3.52
लाख
रुपये लिए |
यह
वादा करते हुए वह उसे इनतेरन्शिप
देंगे |
ऐसा
नहीं होने पर छत्र ने मुकदमा
किया था |
जिस
पर फोरम ने उपरयुक्त फैसला
दिया |
सवाल
यह है की जब शिक्षा को व्यापार
बना दिया गया है तब छात्र और
संस्थान मे कौन सा रिश्ता है
?
पुरातन
सभ्यता मे शिक्षा का महत्व
बहुत अधिक है |
प्राचीन
काल मे श्रृषियो के आश्रम मे
सभी जाते थे |
उसके
बाद गुरुकुल होने लगे जिनमे
विविध विद्याओ के लिए अलग
-अलग
गुरु हुआ करते थे |
फिर
ईशा पूर्व तछशीला और नालंदा
विषयाविदलयो का युग आया |
इस
समय तक गुरु और शिष्य की परंपरा
थी |
उसके
बाद शिक्षा व्यसस्था बिखर
सी गयी |
अंग्रेज़ो
के आगमन के बाद अमीर -
उम्र
के बच्चो के लिए विशिस्त
संस्थान बने |
जिनमे
भाषा के साथ उन्हे राज़ दरबार
के तौत तरीके तथा यूरोपियन
वेश भूषा और टेबल मैन्नर्स
सिखाये जाते थे |
वस्तुतः
इन स्कूलों मे इतने ही विषय
पदाए जाते थे जिनसे वे अंग्रेज़ो
की शिक्षा की परीक्षा पास कर
ले |
इन
छत्रों मे बिरले ही उच्च शिक्षा
के लिए ब्रिटेन जाया करते थे
|
ऐसे
स्कूलो मे लखनऊ का कोलविन
ताल्लुकदार ,
ग्वालियर
का सिंधिया स्कूल अजमेर का
मेयो और रायपुर का राजकुमार
तथा इंदूर का डेलि कॉलेज आदि
|
आज़ादी
के पूर्व 1935
मे
जब ब्रिटिश शासित इलाको मे
काँग्रेस की सरकरे बनी तब
प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूलो
का प्रादुर्भाव हुआ |
महारानी
विक्टोरिया के शासन काल की
जुबली मनाने के लिए हर ज़िले
मे एक इंटेर्मेडिएट स्कूल
खोले गए |
हालांकि
महामना मदन मोहन मालवीय ने
बनारस हिन्दू विषविदयालाय
और सर सैयद अहमद ने अलीगरह
मुस्लिम यूनिवरसिटि की स्थापना
कीथी |
उधर
कवि गुरु रवीद्र नाथ टैगोर
ने बंगाल मे विश्व भारती
विश्वविद्यालय की स्थापना
की थी |
आज़ादी
के बाद छात्राओ के लिए राजस्थान
मे गंगाधर शास्त्री ने वनस्थली
की स्थापना की |
जनहा
लड़कियो को घुड़सवारी -
राइफल
शूटिंग के अलावा तैराकी और
नौकयान भी सिखाया जाता था +|
देश
के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना
अबुल कलाम आज़ाद ने इस ओर बहुत
प्रयास किए |
उन्होने
विस्वविद्यालयों को वित्तीय
रूप से सक्षम बनाने के लिए
विशेस व्यवस्था की |
देश
की सभी संस्थानो मे विषयो की
एक रूपता तथा प्राध्यापको
के लिए नियम बनाए |
परंतु
उनके देहावसान के बाद उनका
काम धीमा पड गया |
किनही
कारणो से इस ओर आज़ादी के बाद
के बीस वर्षो मे अधिक कुछ
उल्लेखनीय नहीं हुआ |
हाँ
जवाहर लाल नेहरू की दूर दर्शिता
से देश मे तकनीकी शिक्षा के
लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ
टेक्नोलोजी खुले |
जिनकी
ज़रूरत देश के आने वाली परियोजनाओ
मे थी |
यानहा
से निकले इंजीनीयरों ने देश
का नाम रोशन किया |
|
बीसवी
सदी के छठे दशक से कुछ उदारमना
लोगो ने कालेजो की स्थापना
की बिहार -
उत्तर
प्रदेश महाराष्ट्र तमिलनाडू
बंगाल मे ऐसे संस्थान आज भी
चल रहे है |
जाती
विशेस या व्यक्ति विशेस के
नाम पर स्थापित इन संस्थानो
मे कोई साधारण तबके का भी बालक
या बालिका शिक्षा प्रापत कर
सकते थे |
देश
मे शिक्षा की बदती भूख ने कुछ
धनपतियों को सेवा के इस छेत्र
मे व्यापार और लाभ की अपार
समभावनए देखी |
फलस्वरूप
हर शहर और नगर मे मिशनरि
संस्थानो और "”पब्लिक
स्कूलो की बाढ"”
सी
आ गयी |
इन
निजी स्कूलो के पीछे प्रचार
-प्रसार
की संस्थाओ और भवन निर्माताओ
की लॉबी अधिक कर के थी |
जिनका
मूल उद्देश्य कम पूंजी मे
अधिक लाभ कमाना था |
शैछिक
संस्थाओ मे अपार सफलता के बाद
इन लोगो ने जगह -
जगह
पर अपने नाम के उपयोग की अनुमति
देकर एक प्रभावी लॉबी बना ली
|
जैसे
दिल्ली पब्लिक स्कूल – |
मिशनरी
इस बुराई से दूर रहे |
परंतु
उन्होने अपने साधनो से अपने
स्कूलो का प्रसार किया |
जैसा
की लिखा जा चुका है की इन स्कूलो
मे फीस के नाम पर प्रतिमाह सात
से द्पंद्रह हज़ार रुपये लिए
जाते है |
ड्रेस
और कितबे भी छत्रों को नियत
कीमत पर पहले से नियत दूकान
से ही लेना होता है |
इन
दोनों ही मामलो मे स्कूल प्रबंधन
की भागीदारी रहती है |
इनकी
बसे वातानुकुलित होती है
---इनके
भवनो मे सुविधाओ के नाम पर
खासी रकम वसूली जाती है |
औसतन
इन संस्थानो मे पड़ने वाले एक
बच्चे का खर्च दस से पंद्रह
हज़ार होता है !!
अब
आप ही सोचे की इतना खर्चा कोई
भी पालक कैसे उठाता होगा ?
जिन
परिवारों की माहवारी आय एक
लाख से कम होगी वे कैसे इन
संस्थानो मे बच्चो को पड़ा
सकते है ?
मज़े
की बात यह है की इन संस्थानो
का रेज़ल्ट भी केन्द्रीय
विद्यालयो के मुक़ाबले बहुत
पिछड़ा होता है |
इनकी
फीस और सुविधाओ का हिसाब -किताब
सरकार ना तो पूछती है ना ही
इन्हे नियंत्रित करती है |
क्योंकि
इनके चलाने वाले सरकार मे काफी
दखल रखते है |
पालको
के अनेक वर्षो के विरोध और
सरकार के आश्वासनों के बावजूद
इन निजी स्कूलो मे किताब और
ड्रेस की एक रूपता नहीं लायी
जा सकी है |
भरी
-
भरकम
फीस का औचित्य भी इनके प्रबन्धक
नहीं देना चाहते है |
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