लोक
सभा और राज्यो मे एक साथ चुनाव
कराने की पहल
लगता
है की निर्वाचन आयोग को विगत
कुछ वर्षो मे लगातार प्रदेश
की विधान सभा के चुनाव कराने
से काफी थकावट हो गयी है |
क्योंकि
हाल ही मे आयोग ने लोक सभा की
संसदीय समिति की सिफ़ारिश का
हवाला देते हुए सभी -
जी
हाँ लोक सभा और देश की सभी
विधान सभा के चुनाव एक साथ
कराने के लिए विधि मंत्रालय
को पत्र लिखा है |
भारत
के संविधान के अनुचेद्ध79
मे
संसद के गठन और 81
मे
लोकसभा की संरचना का वर्णन
है | जबकि
अनुच्छेद 83
[2] [ख]
मे
लोक सभा की अवधि पाँच वर्ष
नियत है | वनही
अनुच्छेद 85
[2] [ख
] मे
राष्ट्रपति को लोकसभा को
विघटित करने की शक्ति प्रापत
है | इसी
प्रकार अनुच्छेद 74
मे
देश की कार्यपालिका यानि
मंत्रिपरिषद के गठन की बात
तो कही गयी है परंतु इसका गठन
कैसे होगा इस पर प्राविधान
स्पष्ट नहीं है |
चूंकि
हमने ब्रिटेन की प्रजातांत्रिक
परम्पराओ को अपनाया है |
यद्यपि
वनहा राजतंत्र है और भारतीय
संविधान ''गणतन्त्र'
“' है
| जिसके
अनुसार वयस्क मताधिकार के
आधार पर होने वाले चुनाव मे
बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल
को सरकार यानि की देश की
कार्यपालिका ---अर्थात
मंत्री परिषद के गठन का अधिकार
मिलेगा | किसी
एक दल को बहुमत नहीं मिलने पर
बहुमत वाले गठबंधन को यह अवसर
मिलेगा | यह
परंपरा है |
बहुमत
ही प्रजातन्त्र की आत्मा है
, सर्वानुमत
की तो कल्पना ही की जा सकती
है , परंतु
वस्तुतः यह संभव नहीं है |
क्योंकि
विभिन्न दलो की अवधारनाए -
प्राथमिकताए
अलग अलग होती है |
परंतु
राज काज चलाने के लिए कम से
कम बहुमत का होना अनिवार्य
है | क्योंकि
लोक सभा मे या विधान सभा मे
सरकार का काम चलाने के लिए
बहुमत का होना आवश्यक है |
इसी
लिए परंपरा है की अगर कोई सरकारी
विधेयक सदन मे पास नहीं होता
तब सरकार विश्वास खो देती है
| सरकार
को अपदसथ करने के लिए भी बहुमत
जरूरी होता है |
यही
प्रजातन्त्र की परंपरा है |
अब
इन संदर्भों मे निर्वाचन आयोग
का सुझाव अथवा संसदीय समिति
की अनुषंशा का परीक्षण करे
तो पाएंगे की --सदन
के विघटित होने की शक्ति को
सीमित करती है |
देश
मे संविधान के अंतर्गत पहले
चुनाव 1952 मे
हुए थे | इस
चुनाव मे लोक सभा और राज्यो
की विधान सभा के सदस्यो के
निर्वाचन एक साथ हुए |
1957 और
1962 मे
तथा 1967 मे
एक साथ ही चुनाव हुए |
1967 मे
अनेक राज्यो मे काँग्रेस
पार्टी मे प्रादेशिक स्तर पर
विभाजन हुआ |
अलग
हुए गुटो ने अपना नाम ''जन
काँग्रेस '
रखा
| उत्तर
प्रदेश मे चरण सिंह बिहार मे
महामाया प्रसाद सिंह और उड़ीसा
मे विस्वनाथ दास विरोधी दलो
की मदद से मुख्य मंत्री बने
| परंतु
इनकी सरकारे आंतरिक वैचारिक
भिन्नता और प्राथमिकता के
कारण ज्यादा समय नहीं चल सकी
| फलस्वरूप
सरकारो ने सदन मे बहुमत खो
दिया | परिणामस्वरूप
राष्ट्रपति शासन लगाया गया
और चुनाव कराये गए |
चूंकि
यह सब उत्तर भारत के राज्यो
मे हुआ था इसलिए मध्यवधि चुनाव
कराये गए | अब
इस परिस्थिति मे निर्वाचन
आयोग की सिफ़ारिश को पारखे तो
पाएंगे की एक साथ सारे देश
मे चुनाव संभव ही नहीं |
क्योंकि
जनमत का अपमान करके बहुमत की
सरकारो को हटाया नहीं जा सकता
| यद्यपि
अयोध्या कांड के उपरांत बीजेपी
शासित राज्यो की सरकारो को
बर्खास्तगी का दंड बहुमत होते
हुए भी भुगतना पड़ा था |
परंतु
वह दंड उनही की पार्टी के एक
मुख्य मंत्री जो वर्तमान मे
राजस्थान के राज्यपाल है
कल्याण सिंह द्वरा "”असत्य
हलफनामा"'
देने
और परिणामस्वरूप देश मे
धार्मिक उन्माद को फैलाने
के दोषी थे |
कानूनी
तौर पर सरकारो ने शांति --व्यवसाथा
के दायित्व को भली भांति नहीं
निभाया था |
इन
संदर्भों से साफ है की सभी
राजनीतिक दलो की सहमति के
बावजूद भी संवैधानिक स्थिति
को तोड़ा - मरोड़ा
नहीं जा सकता |
और
फिर एक बार सुप्रीम कोर्ट को
दाखल देना पड़ेगा जो की मोदी
सरकार को काफी अखरेगा |
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