फरियादी
को न्याय अथवा -अदालत
का कानूनी फैसला !!!
न्याय
के मंदिर कहे जाने वाली इमारतों
को आम तौर पर हम अदालत भवन के
नाम से ही जानते हैं |
जनहा
विवादो का निपटारा कानून के
सबूतो के आधार पर होता हैं |
पर
क्या इसे हम न्याय कह सकते हैं
?
जिसमें
पीड़ित व्यक्ति को राहत और
अन्यायी को दंड मिले !
ऐसा
आम तौर पर कम ही होता हैं |
अगर
यही न्याय हैं तब ,
हमे
विक्रमादित्य और -नौशेरवाने
आदिल तथा जंहागीर के घंटे की
बात करना बेमानी हो जाएगी
|जिनहे
न्याय के लिए इतिहास में जाना
जाता हैं !!
पर
देश की आबादी का बहुत बड़ा
हिस्सा इन नामो को न्याय का
पर्याय ही मानता हैं |
ग्रामीण
छेत्रों में पंचायतों को भी
विवादो को निपटने का काम हैं
|
परंतु
मुंशी प्रेमचंद की कहानी के
पंच अब कल्पना हो गए हैं |
जो
मन -मुटाव
के बाद भी सच का ही साथ देते
हैं |
परंतु
अब तो इन की जगह "”खाप
पंचायतों "”
ने
काफी कुख्याति पायी हैं ---
अपने
उल -जलूल
फैसलो के लिए |
मामला
यानहा तक हुआ की सुप्रीम कोर्ट
को इन खाप पंचायेतो को ही बेअसर
करने का फैसला देना पड़ा |
इन
खाप पंचायतो के कुछ फैसले तो
काफी आपतिजनक हुए हैं ,
जैसे
बलात्कार के मामलो में मुआवजा
दिला कर मामले को रफा -दफा
करना |लड़कियो
के सलवार कमीज या पैंट पहनने
और मोबाइल के इस्तेमाल को
"”दंडनीय
अपराध "
बताना
!!
दलित
वर्ग के दूल्हे को घोड़ी पर
बैठने पर मार -
कुटाई
करना ,
यानहा
तक की पुलिस को भी बेबस कर देना
!
मेरठ
जिले में एक दलित वर्ग के लड़के
को पंचाट के इस अन्याय के खिलाफ
सालो अदालती लड़ाई करनी पड़ी ,
तब
इलाहाबाद हाइ कोर्ट ने वनहा
के ज़िला प्रशासन को अपनी देख
-
रेख
में बारात को गवन से निकलवाना
पड़ा !
कुछ
ऐसा ही हरियाणा में भी हुआ
---जनहा
दलित वर्ग की एक आईएएस लड़की
ने गाव से ही शादी करने का फैसला
किया ,
क्योंकि
वह गाव के पंचो -
सरपंच
को सबक देना चाहती थी ,
जिनहोने
उसे और उसके परिवार को बेइज़्ज़त
करने और सामाजिक बहिसकार करने
में कोई कसर नहीं छोड़ी थी |
इक्कीसवी
सदी के बीसवे साल में भी –
अदालत से क़ैद की सज़ा पाये अपराधी
को उसका समाज और गाव "””हिकारत
"”
से
नहीं वरन इज्ज़त से देखता हैं
|
लोगो
को डर सामाजिक बहिष्कार से
लगता हैं !
क्योंकि
यह हरकत किसी भी परिवार या
व्यक्ति को उसके इलाके में
"”असहाय
बना देती हैं "!
अब
इस सामूहिक हरकत को कैसे अपराध
साबित किया जाये ?
चौधरी
को बिना सलाम किए निकाल जाने
की सज़ा "”उसके
जूते को सर पर रख कर चलने पर
मजबूर करना ----सामाजिक
अन्याय ही तो हैं !
अब
इन हरकतों का असर दलित लोगो
को भयभीत करता हैं ,
क्या
इन्हे न्याय आज भी मिला हैं
?
बात
शुरू हुई थी न्याय और कानून
के अनुसार फैसले की ,
दीवानी
के मामलो में भले ही कानून का
नजरिया "”
कमजोर
के कल्याण "”
का
हो ,
परंतु
क्रिमिनल या फ़ौजदारी अथवा
आपराधिक मामले में तो "फरियादी
या प्रभावित "”
को
न्याय देने के बिलकुल निश्चित
नियम ----पहले
भी रहे हैं ,
और
आज भी हैं |
मसलन
हत्या या चोरी अथवा डकैती के
लिए मुग़ल काल से ब्रिटिश राज
तथा आज़ाद भारत में कमोबेश एक
जैसी प्रक्रिया और सज़ा का
प्रावधान हैं !!
हाँ
विक्रमादित्य के समय या जनहगिरी
काल में अथवा नौशेरवाने आदिल
के समय --तुरत
-होता
था |
तब
विवाद का फैसला जानने के लिए
अभियुक्त को अपना जुर्म पता
होता था ,
तथा
फरियादी को अपने साथ हुए अन्याय
का !
हाँ
तब राजा
ही राष्ट्र था और सरकार भी था
तथा न्यायकर्ता भी था !
विक्रमादित्य
के सिंहासन बत्तीसी के किस्से
तो आम हैं ,
जिन
32
पुतलियों
के सहारे वे दरबार में न्याया
करते थे |
तब
उन्हे अपनी गद्दी जाने का खौफ
हमेशा नहीं लगा रहता था जंहागीर
ने भी महल में एक घंटा लगवा
रखा था ---की
कोई भी रिआया कभी भी सुल्तान
को शिकायत कर सकता था |
किस्सा
हैं की एक बार रात में घंटा
बजा ,
फरियादी
एक औरत थी ,
जिसने
मालिका पर अपने पति की हत्या
का आरोप लगाया |उसे
सुबह दरबार में आने का कहकर
सुल्तान चले गए |
दूसरे
दिन दरबार में उस औरत ने बताया
की मालिका ने शिकार के दौरान
उसके पति पर तीर चलाया ,
जिससे
की उसकी मौत हो गयी |
मालिका
ने दरबार को बताया की उन के
निशाने में चूक के कारण मकतूल
को लगा और वह गिर गया |
उस
वक़्त के कानून के अनुसार हत्या
की सज़ा मौत थी |
जंहागीर
ने दरबारियों से न्याय करने
की सलाह मांगी ,
तब
दरबारियों ने मालिका को माफ
करने का सुझाव दिया |
परंतु
जंहागीर ने कहा की वह मालिका
को सज़ा नहीं दे पा रहा हैं इसलिए
वह चाहे तो अपने पति की मौत का
बदला मालिका के पति की जान से
ले सकती हैं ,
यह
कहते हुए वह सिंहासन से नीचे
उतर आया |
तब
दरबारियों के समझने पर उस औरत
ने पति के कत्ल के जुर्म से
मालिका को माफ कर दिया |
इसी
तरह फारस के शाह अग्निपूजक
नौशेरवाने आदिल ने अपने लड़के
को एक ईसाई लड़की से अपने धरम
के बारे में झूठ बोलने पर सज़ा
सुनाई ,
पर
गिरफ्तारी के दौरान राजकुमार
की मौत हो गयी |
नौशेरवाने
आदिल ने गम में अपना राज छोटे
भाई को सौप कर चला गया |
इन
किस्सो का सार यह हैं --तब
झूठ का बोलबाला वैसा नहीं था
---जैसा
की आज सरकारो की ओर से झूठे
आश्वासन और अहंकार भरे सहायता
के भाषण ----तथा
समाज में नफरत – ईर्ष्य तथा
बेईमानी का हैं |
कहावत
हैं की "”
यथा
राजा -तथा
प्रजा ----परंतु
लोकतन्त्र में इसको उलटना
होगा अर्थात "”यथा
प्रजा -तथा
राजा "”
क्योंकि
प्रजा जिसे गणतन्त्र में
नागरिक कहते हैं ,
उनका
बहुमत जैसा होगा ---उसी
के अनुसार उन्हे सरकार मिलेगी
|
आज
सरकार से जुड़े हर काम या फैसले
के लिए "”
लक्ष्मी
जी का चढावा देना आम बात हैं
"”|
कल्पना
करे यदि आप कभी अदालत नहीं गए
है ---
तब
जज की कुर्सी के नीचे बैठे
'’पेशकार'’
साहब
को इसलिए रिश्वत देनी होगी
की आपकी फाइल जज साहब की मेज़
पर चली जाए |फिर
चपरासी को पैसे देने होंगे
की वह जल्दी केस की आवाज़ लगा
दे ,
इतना
कर्मकांड करने के बाद भी आपको
न्याय के नाम पर '’’
तारीख
ही मिलेगी "
न्याय
नहीं !
फरियादी
फिर अदालत के बाहर बने हुए
देवता के मंदिर पर सवा रुपया
का चढावा फिर चड़ाता है -इस
प्रार्थना के साथ की प्रभु
जल्दी न्याय दिलवा दो ,
तब
जगराता कराउंगा -
गरीबो
को भोजन पंगत जिमौङ्गा |
यानि
न्याय पाने के लिए रात से तैयारी
!!
यह
राह और मुश्किल हो जाती हैं
जब – सरकार के इशारे पर पुलिस
"”एकतरफा
डडा चलाती हैं ,
और
अदालत को भी "”हुकुमते
-ए
-
वक़्त
"”
की
नियत बात दी जाती हैं --डरावने
अंदाज़ में ,
की
""अगर
उसने "”जैसा
इशारा किया गया हैं ,वैसा
नहीं किया तब वह भी -----
न्याय
मांगने वालो की भीड़ में खड़ा
कर दिया जाएगा !!!
इस
परिप्रेक्ष्य में जज लोया की
संदेहजनक स्थितियो में मौत
के लिए सुप्रीम कोर्ट मे "”
एस
आई टी "
से
जांच की मांग ठुकरा दी थी |
एवं
अभिनेता सुशांत राजपूत की
मौत के मामले में ---सीबीआई
-
ई
डी – नरकोटिक्स ---एम्स
के डाक्टरों की जांच टीम ,
लगी
हुई हैं !
क्या
इसलिए की बिहार के विधान सभा
चुनावो में इस घटना को भुनाया
जा सके !
भूल
जाते हैं की लाखो बिहारी लोगो
को मुंबई रोजी -रोटी
देती हैं ,
कनही
यह जातिवाद बूमरंग ना कर जाए
|
दस
दोषी भले छुट जाए -पर
एक बेगुनाह पर दाग न लगे :-
न्याय
शास्त्र कहता हैं की भले ही
दोषी सज़ा ना पाये ,
पर
कोई भी निर्दोष को राजकोप न
मिले |
परंतु
आज की हालत में देश की जेलो
में आरोपियों की संख्या और
अपराधियो की संख्या के अनुपात
में ज्यादा अंतर नहीं हैं |
बिना
जुर्म साबित हुए ये आरोपी
अक्सर --गुनाह
के लिए मिलने वाली क़ैद की मियाद
को सुनवाई पूरी होने से पहले
ही "”भुगत
चुके होते हैं |
“”
कुछ
मामलो में पुलिस की जांच -और
कारवाई हुकूमत के आँख के इशारे
पर काम करती हैं |
जैसे
दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू
विश्व विद्यालय में पुलिस
प्रवेश और एक संगठन के लोगो
द्वरा विरोधी संगठन के छत्रों
शिक्षको पर हमला मार पीट ---
मजे
की बात छत्र संघ की अध्यक्ष
ने जब पुलिस सहायता की गुहार
की ,
तब
उन्हे बताया गया की पुलिस भेज
दी गयी हैं
जामिया मिलिया में भी पुलिस बिना अनुमति लिए कैंपस में गयी और मार पीट की | दिल्ली में भड़के दंगो में जिन लोगो के भड़काऊ भासन वीडियो में प्रचारित हुए , पुलिस ने उनको छोडकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो को ही निशाना बनाया | जे एन यू के डॉ कनहिया पर देशद्रोह क मामला दर्ज़ पर सुनवाई नहीं तो फैसला भी नहीं ? अबहिमा -कोरेगाव्न अदालत यह तो कह सकती है की '’’’जांच की रफ्तार इतनी सुस्त क्यू की सालो गुजर गए और मुकदमाँ शुरू ही नहीं | कुछ ऐसा ही भीमा -कोरे गाव में गिरफ्तार प्रोफेसर तुलमुंडे और डॉ बरबरे ऐसे शिक्षको को 6 माह से ज़्यदा हो जाने और स्वास्थ्य खराब होने पर भी जमानत न देना --उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की न्याय देने की प्रणाली पर सवालिया निशान तो लगता हैं |
जामिया मिलिया में भी पुलिस बिना अनुमति लिए कैंपस में गयी और मार पीट की | दिल्ली में भड़के दंगो में जिन लोगो के भड़काऊ भासन वीडियो में प्रचारित हुए , पुलिस ने उनको छोडकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगो को ही निशाना बनाया | जे एन यू के डॉ कनहिया पर देशद्रोह क मामला दर्ज़ पर सुनवाई नहीं तो फैसला भी नहीं ? अबहिमा -कोरेगाव्न अदालत यह तो कह सकती है की '’’’जांच की रफ्तार इतनी सुस्त क्यू की सालो गुजर गए और मुकदमाँ शुरू ही नहीं | कुछ ऐसा ही भीमा -कोरे गाव में गिरफ्तार प्रोफेसर तुलमुंडे और डॉ बरबरे ऐसे शिक्षको को 6 माह से ज़्यदा हो जाने और स्वास्थ्य खराब होने पर भी जमानत न देना --उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की न्याय देने की प्रणाली पर सवालिया निशान तो लगता हैं |
अब
बात अदालत की अवमानना की ;-
मामला
ताज़ा -ताज़ा
हैं की मध्य प्रदेश उच्च
न्यायालय ने महिला आयोग -बाल
आयोग में कमलनाथ सरकार द्वरा
की गयी नियुक्तियों को शिवराज
सिंह द्वरा '’रद्द'
किए
जाने पर '’’
अगले
आदेश तक रोक '’’
लगा
दी |
फिर
भी शिवराज़ सरकार ने इन संस्थानो
के दफ्तरो में ताला लगा दिया
!!!
अब
सवाल है की किसके हुकुम का
पालन हो रहा है ?
अदालत
के अथवा सरकार के ??
क्या
यह अदालत की अवमानना नहीं है
?/क्या
जब तक न्यायमूर्ति के वीरुध
कुछ बोला जाये या लिखा जाये
---तभी
अवमानना होगी ?
जज
तो आते जाते रहेंगे ,
पर
अदालत एक संस्थान है ,
अगर
इसकी पवित्रता पर छींटे पड़े
तो वह आम आदमी के विश्वास को
डिगा देगा |
अभी
तक अदालत के फैसलो को जन -जन
न्याय पूर्ण मानकर सज़ा देने
वाले जजो की भी इज्ज़त करता हैं
|
उनसे
शत्रुता नहीं मानता ,
ना
उनके खिलाफ कोई वारदात करता
हैं ,
यह
इसलिए की भले ही
आज़ादी के सत्तर साल बाद भी
,
सरकार
आबादी को "”नागरिक
"”
के
रूप में नहीं ,वरन
"””वोटर"”
के
रूप में देखती हैं ,
जिसका
इस्तेमाल चुनावी मशीन के चारे
के रूप में किया जाता हैं |
जब
किसी भी राजनीतिक दल के पास
कोई कार्यक्रम ना हो तो {जो
की नहीं हैं }
तब
वोट मांगने के के लिए "”नफरत
"”
का
नशा सबसे सस्ता और सुलभ होता
हैं |
उसमें
भी धर्म -
को
राष्ट्रवाद मिला कर और जहरीला
बन दिया जाता हैं |
जैसे
शराब में जलती हुई सिगरेट की
राख़ डाली जाए |
धर्म
ऐसे व्यक्तिगत आस्था को सामाजिक
घृणा के रूप में परोसने का काम
,कुछ
कट्टर पंथियो का धंधा बन जाता
हैं |
फिर
इस नशे को किसी खास जाति या
समुदाय के लोगो को पिलाया जाता
हैं ,
जो
उस संगठन का "”आधार
अथवा बेस "”
बन
जाता हैं |
फिर
ये तत्व ध्रर्म की अलख के नाम
पर दूसरे धर्म या जाति के लोगो
कोनिशाना बनाते हैं |
अंत
में सरकार का राजनीतिक एजेंडा
आगे चलाने के लिए अदालतों को
अपनी पवित्रता दांव पर नहीं
लगाना चाहिए |