विज्ञापनो
के सहारे विकास की सुनहरी
तस्वीर की पेशकश
और
अपनी उपज को सड़क पर फेकने को
मजबूर किसान ??
जब
देश मे नोट बंदी को लेकर जगह
= जगह
अशन्तोष भड़क रहा हो ,बैको
के सामने लाइने लगी हो --तब
यह दिखाना की लोगो की जमा राशि
से देश मे बहुत अधिक पूंजी
बनेगी |
फलस्वरूप
देश मे अधिक उद्योग -
धंधे
लगेंगे |
असंख्यों
नौकरिया सुलभ होंगी |
परंतु
करोड़ो रुपये के सरकारी विज्ञापनो
मे वर्तमान हालत का ज़िक्र
कनही नहीं है ---अर्थात
8
नवंबर
से अब तक 90हज़ार
से ज्यादा लोग बेकार हो गए है
|
वह
भी बाज़ार मे नकद राशि की गैर
मौजूदगी से ??
विज्ञापन
से विकास के दावे लोगो के मन
मे झुंझलाहट ही भर देती |
क्योंकि
हक़ीक़त की पथरीली ज़मीन पर विकास
की तस्वीर दिखाना घाव पर नमक
छिड़कने जैसा है |
आज
भी देहातो मे किसान को बीज
और खाद तथा डीजल के लिए दर -
दर
भटकना पद रहा है |
मंडियो
मे किसान अपनी उपज को "”औने--पौने
"”
दामो
मे दलालो के हाथो मे बेचने को
मजबूर है |
फरुख़ाबाद
के आलू बोने वाले किसान हो या
मधी प्रदेश के टमाटर उत्पादन
करने वाले हो अथवा सिहोर --
रायसेन
के शाक भाजी उगाने वाले किसान
हो |
सबकी
मजबूरी है की नकदी के लिए वे
खेत की फसल को बेचे ----
फिर
चाहे वह किसी भी दाम पर खरीदी
जाये |
शर
के उपभोक्ताओ को दस और बीस
रुपये मे सुलभ हो रहे आलू -
टमाटर
और हरी मटर किसान को इतना भी
पैसा नहीं देती की वह "”उचित
"”
दाम
नहीं मिलने पर अपनी उपज को
वापस ले जाये |
क्योंकि
इतना पैसा भी उनको नहीं मिलता
है !
इसलिए
किसान अपनी उपज को सड़क पर फेकने
को भी मजबूर हो गए है |
आखिर
ऐसा क्यो की "”अन्नदाता
"”
इतना
बेबस हो गया है ??
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