फिरंगियो
और इस्लाम मे पंडित और ब्रांहण
!
शीर्षक
पदकर आम लोगो के मन यह धारणा
ज़रूर आएगी की वेदिक धर्म के
इन शब्दो का ईसाई और इस्लाम
धर्म मे क्या स्थान होगा ?
परंतु
अङ्ग्रेज़ी भाषा मे PUNDIT
TATHAA BRAMHIN का
उपयोग कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड
डिकसनरी मे बाकायदा हुआ है
| अमेरिका
मे बोस्टन शहर शिक्षा और
प्रबंधन के लिए विशिष्ट स्थान
रखता है |
डिकसनरी
मे BOSTENIYAN BRAMHIN
का
अर्थ खास प्रकार के "”सफल
लोगो "” के
लिए इस्तेमाल किया जाता है
---जिनहे
हम "”आभिजात्य"”
वर्ग
कहते है | यह
उसी प्रकार है जैसे भारत के
संदर्भ मे ज़ाती व्यसथा है |
जिसमे
सामाजिक रूप से ब्रांहण !–
छत्रीय-
वैश्य
एवं शूद्र |
पश्चिम
की दुनिया मे ऐसी कोई व्यवस्था
नहीं है | परंतु
इन शब्दो को भाषा मेव समेटने
से लगता है की वे भी "””
विशिष्ट"”
पहचान
के लिए खास संज्ञा की खोज मे
थे |
आज
कल देश मे जाति प्रथा पर राजनीतिक
रूप से कई ओर से प्रहार किए जा
रहे है | वस्तुतः
इसकी शुरुआत 1932मे
तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी
मे "द्रविड़
कडगम''' नामक
आंदोलन की शुरुआत रामा स्वामी
नायकर नामक सज्जन ने की थी |
जो
बाद मे ब्रांहण वाद का सशक्त
विरोधी बना |
जो
बाद मे द्रविड़ मुनेन्त्र कडगम
और मौजूदा समय मे अन्ना द्रविड़
मुनेत्र कडगम बना |
तमिलनाडू
की मुख्य मंत्री जे जयललिता
इसी पार्टी की नेता है |
जबकि
डीएमके के नेता के करुणानिधि
है |
लेकिन
एक ओर जंहा जाति के प्रति इतना
आक्रोश है -वनही
इस्लाम मे एक ऐसा "तबका
"” है
जिसे हुसैनी ब्रांहण "””
के
नाम से जाना जाता है |
अब
सवाल यह है की मध्य काल मे यानि
की लगभग 14 सौ
साल पूर्व जब इस्लाम धर्म
अवतरित हो रहा था तब ऐसा क्या
हुआ की भारतवर्ष से इराक़ मे
युद्ध करने ब्रांहण गए ?
ऐतिहासिक
तथ्यो के अनुसार कर्बला की
लड़ाई मे यजीद के विरुद्ध इमाम
अली की मदद के लिए चन्द्रगुप्त
नामक राजा ने दत्त ब्रांहण
के नेत्रत्व मे सेना भेजी थी
| परंतु
इन लोगो के पहुचने के पूर्व
ही इमाम हुसैन यजीद के हाथो
मारे जा चुके थे |
इस
स्थिति मे राजा की आज्ञा को
पूरा करने मे असमर्थ भूरे दत्त
ने अपने साथ आए लोगो को वापस
जाने की आज्ञा दी |
परंतु
स्वयं अपने कुछ चुनिन्दा
साथियो के साथ कुफा नगर मे रह
गए यद्यपि इन लोगो ने धरम
परिवर्तन नहीं किया परंतु
“हुसैन “” के प्रति आदर भाव
के कारण इन्हे हुसैनी ब्रामहण
कहा गया | इनके
रहने के इलाके को भी “”डेरा
-ए
- हिंदिया
“”' कहा
गया | कहते
है की अजमेर शरीफ मे मोइनूद्दीन
चिश्ती की मज़ार की सम्हाल भी
इनहि लोगो द्वारा की गयी
|
इन
लोगो के बारे मे एक कहावत इराक
मे कही जाती है "””वाह
दत्त सुल्तान ,
हिन्दू
का धर्म मुसलमान का ईमान ,
आधा
हिन्दू आधा मुसलमान "”
एक
ओर धार्मिक असहिष्णुता अपनी
चरम पर है दूसरी ओर सदियो पूर्व
दोनों धर्मो मे ऐसा भी एका था
| जब
एक मुसलमान की गुहार पर हिन्दू
राजा सेना भेज देता था |
और
उन सैनिको की स्वामिभक्ति की
--- फतेह
या विजय नहीं मिली तो स्वयं
को देश निकाला दे दिया |
भले
ही उनकी नसलों को इसका खामियाजा
! भुगतना
पड़ा हो |
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