जननी
जग ज़ाहिर -पर जनक का तो परिचय होता है
उच्चतम न्यायालय के एक फैसले पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महा सचिव कैलाश विजयवर्गीय का आलेख पड़ा | मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले मे ,जिसमे बलात्कार
के आरोपी को पीड़ित महिला से विवाह करने पर अपराध से मुक्त करने का फैसला किया था | उसे सुप्रीम कोर्ट ने नामंज़ूर करते हुए कहा की आरोपी के बलात्कार के कारण युवती छह वर्षीय
कन्या की माँ बनी , ऐसे मामलो मे समझौते नहीं होने चाहिए | दूसरे फैसले मे उच्चतम न्यायालय ने
एक अनब्याही माँ को उसके बच्चे का अभिभावक घोषित करने संबंधी आदेश पारित
करने का आदेश निचली अदालत को दिया | इन दो मामलो को विजयवर्गीय जी ने “”सनातन संसकृति को संघात पहुचाने वाला फैसला
निरूपित किया है | लोकतन्त्र मे अपनी बात रखने का हक़
सभी को है –तो उन्हे भी है |मै भी इस संदर्भ मे कुछ तथ्य रख रहा
हूँ की वेदिक धर्म की सनातन परंपरा क्या रही है और क्या समझी जा रही है | आज के युग मे अनेक किस्से है जहा माता-पिता और परिवार जनों ने लड़के या लड़की
इस लिए हत्या कर दी की उन्होने अपने समाज या जाति से बाहर शादी कर ली है | अथवा परिवार द्वारा तय गिए रिश्ते को अमान्य कर दिया | इसे ‘’’’आनर किलिंग “”” अथवा इज्ज़त के लिए क़तल माना
जाता है | हाल ही मे इंदौर मे नगर निगम के एक ज़ोनल अधिकारी आरोलिया
के परिवार जनों ने अपने इंजीनियर दामाद और पुत्री कीइसलिए हत्या करनी चाहिए चुकी उसने
अपनी मर्ज़ी से विवाह कर लिया था | मेरी निगाह मे तो यह आरोलिया
जी का कायरतापूर्ण कार्य था की रक्षा बंधन
को पुत्री और दामाद को घर बुलाकर हमला किया | वेदिक धर्म और उसकी
सनातन परंपरा मे यह कार्य अत्यंत घ्राणित और कलंकित करने वाला है | परंतु आज समाज मे बिना वेदिक धर्म को समझे ‘’अहंकार
और रजपूती शान ‘’’’’के
लिए बहुत से ऐसे कार्य किए जा रहे जिनहे ‘’आन – बान – शान ‘’’का सूचक माना जा रहा है | क्या इन दकियानूस सोच से उपजी
ऐसी हरकते हमारे धर्म और उसकी गौरवशाली परंपरा की वाहक है ??
जिन कार्यो की निंदा होनी चाहिए भ्रमवश और ज्ञान नहीं होने के कारण उनको हम तरजीह देते
है | अब आते है विजयवर्गीय जी के आलेख की ओर |
उनके
अनुसार पिता शब्द बहुत व्यापक है --- उन्होने इसकी व्याख्या मे “”पितर”” को समानार्थी निरूपित किया है | जीवित व्यक्ति “’पितर “” नहीं होते –पित् पक्ष मे
उनही का तर्पण किया जाता है जो स्वर्गवासी
हो चुके है ,,,, जीवित व्यक्ति केवल एक अवस्था मे ही ऐसा कर
सकता है | सन्यास ग्रहण के पूर्व उसे अपना तर्पण स्वयं करना
होता है –श्राद्ध भी | यह है वेदिक धर्म की सनातन परंपरा | कुछ और शंकाए भी उन्होने अपने
आलेख मे उठाई है , मसलन
पुत्र को संतान का पर्याय माना है | जो सत्य नहीं
है --- पुराण काल मे अनेक ऋषियों के
आशीर्वाद इसके प्रमाण है | कौरव राजमाता गांधारी को शिव
का वरदान था की वह सौ पुत्रो की माँ बने , उनके एक पुत्री भी थी जिसका नाम था “”दुशला “”
जो राजा जयद्रथ की पत्नी थी | इस प्रकार वे सौ पुत्रो की
माता थी परंतु उनके 101 संतान थी | जयद्रथ को अर्जुन ने अपने पुत्र अभिमन्यु का हत्यारा
माना था क्योंकि उसी ने चक्व्यूह मे अभिमन्यु
को मारा था ,वह भी युद्ध
के नियमो के विरुद्ध निशास्त्र यौद्धा पर प्रहार करके | इस पर
कुपित होकर अर्जुन ने दूसरे ही दिन , सूर्य अस्त के पूर्व जयद्रथ के वध का प्रण लिया था | योगेश्वर की माया से सूर्य का पुनः उदय होना और जयद्रथ का वध होने
की कथा तो सभी को मालूम है | इस उदाहरण से मै पुत्र और संतान
के अंतर को स्पष्ट करना चाहता हूँ |
पितृ
अर्थात पिता परिवार का मुखिया , और माँतृ सत्तात्मक जहा
परिवार का मुखिया जननी हो | मानव शास्त्र के अनुसार तथा
वेदिक इतिहास के अनुसार पूर्व वेदिक काल
मे स्त्री और पुरुष दोनों ही समान माने गए ,,यहा तक की कन्या
का भी यज्ञोपवीत होता था एवं वे भी पुरुषो की भाति शस्त्र धारण करती थी |ऋग्वेद की अनेकों ऋचाओ की रचना उनके द्वारा की गयी | स्वेक्षा से स्त्री -पुरुष
परिवार बनाते थे परंतु संतान का परिचय माता के नाम से ही होता था | समय बीता और आश्रमो मे अध्ययन के लिए बालक और -बलिकए आते थे | अधिकतर अपने माँ और परिवार के नाम से जाने जाते थे | ऋषि सत्यकाम जब गुरुकुल मे गए तो उनसे उनके माता -पिता का नाम पूछा गया
-तो वे पिता का नाम नहीं बता सके | क्योंकि उनका लालन पालन
माँ ने किया था | जब उन्होने अपने पिता का परिचय जानना चाहा
तब उनकी माता ने असमर्थता व्यक्त करते हुए
कहा की उन्होने सत्यकाम के जन्म के पूर्व अनेक ऋषियों - मुनियो की सेवा की है , वे निश्चित रूप से नहीं कह सकती की उसके ""जनक ""कौन
है | तब सत्यकाम के मन मे समुदाय द्वारा मिले दंश ने उन्हे ''''व्यवस्था ''' बनाने के लिए प्रेरित किया | इस घटना के उपरांत "" पाणिग्रहण"" की की संस्था का
प्रारम्भ हुआ | जिसे आम भाषा मे विवाह कहा जाता है |
मातृ सत्तात्मक
परिपाटी मे भी विवाह होता है , परंतु वह लड़का
अपनी पत्नी के घर रहता है ---कन्या घर छोड़ के नहीं जाती |
केरल मे नायर समुदाय मे किसी समय यह प्रथा थी | वह घर और
परिवार का परिचय माता के नाम से ही होता था | उत्तर -पूर्व
के राज्यो मे कुछ ज़न जातियो यह प्रथा आज भी देखि जा सकती है | केरल मे ब्रांम्हणो मे पितृ सत्तात्मक परंपरा ही थी | आदिगुरु शंकरचार्य की जीवनी से यह तथ्य पुष्ट होता है |आज भी नायर समुदाय मे ''''संबंधम ''' होता है पाणिग्रहण नहीं | विगत 40-50 वर्षो से इस
भेद मे सुधार आया है | दोनों संस्थाओ मे परिवार के सभी
निर्णय और संपति मुखिया के अधीन होते है --आज भी |
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मद्रास हाई
कोर्ट के बलात्कार के मामले मे पीड़िता और अभियुक्त के मध्य समझौते को तरजीह देने और अभियुक्त को
छूट देने को अस्वीकार कर दिया | यहा मै स्मरण कराना चाहूँगा
की स्म्रतियों और संहिताओ के अनुसार आठ प्रकार
के विवाह बताए गए है |जिनमे अंतिम दो - राक्षस और पैशाच भी है | हिन्दू
कोड के बाद केवल ब्रामह विवाह को ही कानूनी मान्यता है |
परंतु संहिताओ मे ऊपर लिखे दोनों प्रकार के विवाहो को मान्यता दी गयी थी | राक्षस विवाह मे कन्या को मादक
पदार्थ खिला -पिला कर जबरन अपहरण करके सप्तपदी सम्पन्न करना | दूसरे मे कन्या का बलात्कार करके पत्नी घोषित कर देना भी
- विवाह का एक रूप माना गया |जो की घ्राणित और हेय
निगाहों से देखा जाता था | इन तथ्यो के आधार पर भले ही वह विवाह की श्रेणी मे
आता हो ---परंतु आज ""गणतंत्र
व्यवस्था """ मे तो यह कानून मे अपरदधा ही है | भले ही सनातन परंपरा मे कभी यह '''स्वीकार्य
""" रहा हो |उन्होने वेदिक कर्म ""श्राद्ध ""
और ""पिंडदान "" को
आर्थिक हितो से अलग माना है | परंतु ऐसा नहीं है | यद्यपि अनेक अवसरो पर यह वसीयत और उत्तराधिकार का कारण बंता है ----वह इस परंपरा के कारण की
इन कर्मो को सपिंडा व्यक्ति ही कर सकता है | अर्थात परिवार
के ''गोत्र'' का हो | पर अनेक मौके ऐसे भी आए है
जब कन्या द्वारा इन कर्मो को किया गया |
यद्यपि वे विवाह के उपरांत दूसरे गोत्र मे शामिल हो जाती है | परंतु कानूनी प्रविधान के अनुसार वे पिता की संपति की उतराधिकारी बनती है
| परंतु ग्रामीण छेत्रों मे जहा भूमि का मसला होता है वहा श्राद्ध और तेरहवि करने वाला ही निसनतन की
संपति का अधिकारी परंपरा से बनता है |
एक अन्य मुद्दा
उन्होने विवाह पूर्व यौन संबंधो का उठाया है | इसे अगर हम वेदिक वांगमय मे देखेंगे तो
बहुतायत उदाहरण मिलेंगे | क्योंकि पूर्व वेदिक काल मे
बराबरी का दर्जा प्रपट होने के कारण लड़का और लड़की परस्पर अपना साथी चुन सकते थे | संसर्ग का अर्थ विवाह से नहीं था | ना ही यह कोई अनुबंध था जैसा की इस्लाम और
येहूदियों मे होता है |परंतु स्त्री द्वारा “”रति दान “”का उल्लेख हमारे धार्मिक आख्यानो मे
है | ` मै यहा दो उदाहरण देकर अपनी बात
को विराम दूंगा | पहला उदाहरण है दानव गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और ब्रहस्पति के पुत्र कच का , | एक बार रजस्वला होने पश्चात देवयानी
ने कच से प्रणय निवेदन कर के रतिदान की इच्छा व्यक्त की | देवताओ
के गुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने ने कहा गुरु पत्नी माता समान होती है इसलिए आप मेरी
भगिनी हुई और बहन से संसर्ग ""पाप"" है जिसकी व्यवस्था है | इस पर देवयानी ने श्राप दिया की जिस संजीवनी विद्या को सीखने तुम यहा आए हो
वह तुम्हें 'फलीभूत नहीं होगी | फलस्वरूप
कच उस विद्या को भूल गया | दूसरा उदाहरण महाभारत मे अर्जुन का है , जब अप्सरा उर्वशी ने अर्जुन पर आसक्त हो कर रतिदान मांगा -तब उन्होने भी कहा की आप देवेब्द्र
की अंकशायिनी हा इसलिए मेरी माता के समान हुई
अतः मै आपको उपक्रत नहीं कर सकता | इसपर अप्सरा ने कहा की हम देवलोक
वासियो मे इस प्रकार के रिश्ते नहीं होते है हम अछत यौनि की स्वामिनी है | सदैव कूवारी ही रहते है | अर्जुन से निराश होकर उर्वशी
ने अर्जुन को क्लीव अर्थात हिजड़ा बन जाने का श्राप दिया | देवराज
इंद्र की मध्यस्था से उर्वशी ने अपने श्राप
मे संशोधन किया की यह एक साल तक प्रभावी रहेगा | पांडवो के पंद्रहवर्ष
के वनवास मे एक वर्ष ''अज्ञातवाश "" का था | तब मत्स्य देश के राजा विराट के यहा वे उनकी पुत्री उत्तरा के संगीत गुरु बने | इस प्रकार
उनका श्राप पूरा हुआ | यह कुछ उदाहरण थे जो त्वरित रूप से स्मरण
है | जिनमे स्त्री की इच्छा सर्वोपरि होती है | वस्तुतः संभोग मे दोनों पक्षो के समान रूप से भोगने की स्थिति का द्योतक है |
इति
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