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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari
Oct 15, 2012
आरोप और उनकी जांच कौन करें ?
आजकल मौसम हैं आरोपों का और उनकी जांच की मांग का , पर इसमें एक दिक्कत यह हैं की --जांच कौन करें ? क्योंकि पुलिस और जांच की दीगर संस्थाओ को ''जन नेता '' पहली फुर्सत में अविश्वास के योग्य बताते हैं ।चाहे सी बी आई हो या कोई और संसथान उनके लिए सब सर्कार के ''पिठू ' हैं , लिहाजा उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता । फिर जब जांच सर्कार के किसी मंत्री की हो या उस से जुडे आदमी की हो तब तो उनकी बात सुनने में बड़ी तर्क सांगत लगती हैं ।भले ही विवेचना करने पर ऊपर की यह धरना गलत साबित हो ।अब बात करें अदालती जांच की , तो उस जांच की भी रिपोर्ट पुलिस को ही सौपी जाती हैं । क्योंकि हमारी न्याय व्ययस्था में अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने का दायितव उन्हें ही सौंपा गया हैं ।सजा दिलाने के लिए मुक़दमा चलाया जाना जरूरी हैं , जंहा सबूतों के आधार पर ही कारवाई की जाती हैं ।पर आजकल इन ''जन नेताओ ''को जल्दी फैसला देने वाली व्यस्था की दर्कार रहती हैं ।आम आदमी का रहनुमा हनी वाले भूल जाते हैं की अगर रोज -बा -रोज भी सुनवाई हो तो भी वक़्त तो लगेगा ।पर वे तो मुद्दे के गरम रहने तक ही फैसला चाहते हैं क्योंकि वे अपने मुद्दे को ज्यादा वक़्त तक नहीं गरमा सकते ,क्योंकि मीडिया एक ही बात को पब्लिक को कितने दिनों तक ''पेश ''करती रहेगी ।अक्सर देखा गया हैं की मीडिया में आये मुद्दे अदालती कसौटी पर बिखर जाते हैं ।वह इन वतन के रहनुमाओ के लिए लाभ दायक नहीं होता ।इसी लिए वे आईसी व्यस्था चाहते हैं जिसमें उनके द्वारा चाहे गए वक़्त के भीतर ही मामले का फैसला हों ।अब इस के लिए तो कोई नया प्रावधान संविधान में करना होगा ।क्योंकि वर्त्तमान व्यावस्था में तो संभव नहीं , इसलिए विचार करना होगा की क्या किया जाए ? यह लेख इसी लिए हैं ।
सभी दल और अदालतों के जज भी इस तथ्य को मानते हैं की हमारे यंहा लंबित मुक़दमों की संख्या लाखो में हैं , जिला से लेकर उच्च न्यायलय और सुप्रीम कोर्ट में भी यह संख्या लाखो में हैं , फिर इसका हल क्या हैं ? चाहे सर्कार कांग्रेस के नेतृत्व वाली हो या भा जा प् के नेतृत्व वाली हो सभी बस कहते रहते हैं की न्यायादिशो की संख्या में बढोतरी होनी चाहिए , कोई मजबूत कदम इस और नहीं उठाया जाता ।आखिर क्यों ।क्या सरकारों के पास संसाधनों की कमी हैं अथवा उच्च और उच्चतम अदालतों के लिए योय लोग नहीं मिलते , क्योंकि बहैसियत वकील उनकी आमदनी जो एक माह में होती हैं वह इन अदालतों के जज साहबान को साल भर की वेतन -भत्ते के रूप में मिलती हैं ।एक दिन की पैरवी के लिए दस लाख रुपये लेने वाले कानून मंत्री तो बनते हैं पर अदालतों में बैठना उन्हे तौहीन लगता हैं ।आपसी बातचीत में ये लोग अक्सर कहते सुनी जाते हैं की दो दिन की प्रक्टिस में ''इनके''दो माह की तनख्वाह निकल आती हैं ।सभी डालो में ऐसे नेता हैं जो इस श्रेणी में आते हैं पर बयां देने के अलावा और कुछ नहीं करते ।यंहा तक जिस सदन के वे सदस्य हैं उसमें भी वे इस मामले में कोई सार्थक कदम नहीं उठाते हैं ।
अब इस स्थिति में जिस से की फैसला जल्दी आये जांच और फैसले की ''इंस्टेंट ''मांग तो बेकार ही होनी हैं , मजे की बात यह हैं की मीडिया भी इस हालत से बाखबर हैं पर खबर को चटपटा बनाने के लिए त्वरित जांच और फैसले की मांग को वह भी हवा देता हैं , जिस से की टी ऑर पी बढे ।इसी लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों में सिवाय बार -बार के दुहराव के कोई नयी बात नहीं होती हैं ।इनके यंहा एक वाक्य हैं जो न्यूज़ रूम में बोला जाता हैं ''आज इस मुद्दे को खेल जाओ '' मतलब यह की लोगो को सूचित करने के बजे ''मजे ''लेने के लिए खबर ''बनायीं ''जाती हैं ।इसलिए लगता हैं की इनके संवादाताओ को समाचार एकत्र करने के बजाय कुछ ''खोद '' निकालने की जिम्मेदारी दे गयी हो ।अतः इन्हे अगर खबर बनाने वाले इंजिनियर कहा जाए तो कम न होगा क्योंकि आखिर ''स्टिंग' या डंक ओपरेसन भी तो खोदने जैसा ही तो काम हैं !
अब दो सवाल हैं की जांच कौन करें ?जिस से की फैसला जल्दी आये ? साथ मैं यह भी सवाल हैं की क्या इलेक्ट्रोनिक मीडिया का कोई ''स्वयं सिद्ध ''नियम भी हैं की एक खबर कितने देर तक चलायी जाए या पक्ष -विपक्ष को बराबर का समय दिया जाए की नहीं ? यूँ तो मीडिया सरकार और उसमें बैठे लोगो के लिए ''विवेकाधिकार '' की सुविधा समाप्त की पैरवी करता हैं तो क्या आपने काम में भी वह इस अधिकार को छोड़ेगा ?उम्मीद तो कम हैं क्योंकि यह मुद्दा बड़ी जल्दी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला मन जायेगा , इस से यह भी सिद्ध होता हैं की मीडिया खुद के लिए '' स्पेशल नियम चाहता हैं ।क्या यह वाजिब होगा ?आखिर मीडिया द्वारा लगाये गए आरोपों की जांच के लिए भी तो कोई एजेंसी हो। तभी तो आम लोगो को लगेगा की न्याय हुआ हैं ।
Oct 8, 2012
चुनावी घोषणा पत्र एक छलावा या जनता से किया गया एक पवित्र वादा?
चुनावी घोषणा पत्र एक छलावा या जनता से किया गया एक पवित्र वादा ? यह सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया हैं की अगले कुछ समय में गुजरात और हिमाचल में चुनाव होने वाले हैं ।सभी बड़ी राजनितिक पार्टियाँ जनता के सामने बड़े -बड़े वायदे कर के सत्ता प्राप्त करने के लोकतान्त्रिक आज़ादी का प्रयोग करेंगे ।पर सवाल यह हेंकी आम तौर पर इन वायदों का बुरा हाल होता हैं .। ऐसा लगता हैं की मतदाताओ को लुभाने के लिए कुबेर का खज़ाना खुल जाता हैं ।उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने सभी को काम सुलभ करने का वादा किया था , छात्रो को टैबलेट और लैपटॉप देने की बात कही गयी थी ।परन्तु जब रोजगार दफ्तरों में काम मांगने वालो भरी भीड़ आने लगी ,तब नौकरी के आवेदन पत्रों को लेकर दफ्तर की रद्दी में फेके जाने की खबरे आने लगी । जब इन खबरों ने राजनैतिक आंच देनी शुरू की तब वायदे में संशोधन किया गया की स्नातक पास लोगो की नौकरी लगेगी ।महिलाओ को काम देने के नियम थोडे कड़े किये गए ।जैसे भारतवर्ष में विधायिका में बैठे जन - प्रतिनिधि कानून बनाते हैं , परन्तु कानून की आत्मा का गला रूल्स के सहारे अफसर घोट देते हैं ।कलंक नेता के माथे और माल अफसर के पास ! किसान को क़र्ज़ न चूका पाने की स्थिति में आतम हत्या करनी पड़ती हैं , पर बड़े -बड़े उद्योगपति अरबो रुपये का कर्ज़ डकार जाते हैं ,और सरकार औद्योगिक उन्नति के नाम पर इस राशी को बत्ती खाते में दाल देती हैं । हैं न मज़ेदार किस्सा !
अभी किंग फिशर हवाई कंपनी का ही मामला हैं हजारो करोड़ रुपये सरकारी बैंको के अरबो रुपये डकार गए पर मालिको या प्रबधन के विरुद्ध कोई करवाई नहीं हुई ।
लेकिन अभी बात चुनावी घोषणा पत्र की पवित्रता पर ---तो बात थी की छात्रो को लैपटॉप बाँटने की पर उत्तर प्रदेश की सरकार को एक साल बीत जाने के बाद भी कोई ऐसी कंपनी नहीं मिल पायी जो उनके अनुसार टैब लेट की आपूर्ति कर सके ।अब सरकार कह रही हैं की हमारी मंशा तो साफ़ हैं पर कोई कंपनी ही नहीं तैयार हैं ? सवाल हैं की जब वादा किया था तब वित्तीय आंकलन किया था की प्रदेश में कितने छात्र-छात्राओं को यह उपकरण देना होगा ? इस पर कितना खर्च आएगा ?क्या सरकारी खज़ाना इस व्यय को सह पायेगा ? हकीक़त यह हैं की चुनाव के जोश में नेताओ में होड़ मची थी की कौन कितना बड़ा लुभावना वायदा मतदाताओ से कर के उनके वोट कबाड़ सकता हैं । जब प्रश्न वायदे को पूरा करने का आया तब सभी समस्याएं सामने आयी |इसे क्या समझे की वादा करते समय इसे पूरा करने की कवायद का विचार ही नहीं आया ।हालाँकि केंद्र सरकार का भी इस सम्बन्ध में ट्रैक रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं हैं , जिस आकाश उपकरण को दो हज़ार में छात्रो -छात्राओ को सुलभ करने की बात थी ,वह भी अभी तक पूरी नहीं हो पायी हैं ।अब अगर केंद्र नहीं अपने कहे हुए को पूरा नहीं कर पा रहा हैं तब उत्तर प्रदेश का क्या कहना ?
एक और मुद्दा हैं किसानो को बिजली देने का ,-- सभी राजनैतिक दलों में होड़ लगी रहती हैं ।कोई किसानो को सस्ती बिजली देने का वादा करती हैं , तो कोई चौबीस घंटे विद्युत् आपूर्ति की बात करता हैं ,तो अकाली दल ने तो मुफ्त में बिजली देने की बात की ,। परिणाम यह हुआ की सभी प्रदेशो के विद्युत् बोर्ड लम्बे -लम्बे घाटे में चल रहे हैं । हालत यह हो गए हैं की सभी प्रदेश सरकारे बिजली की कमी से दो -चार हो रही हैं ।अब अगर वादा न पूरा हुआ तो ग्रामीण छेत्र के मतदाता तो सरकार के खिलाफ हो जायेंगे ।यही डर सभी सत्तारूद दलों को प्रदेशो मैं सताता रहता हैं । परिणाम स्वरुप बोर्ड घाटे में चलते रहते हैं ।हर साल के बजट में राज्यों को अरबो रुपये का इंतजाम बिजली के मद में करना पड़ता हैं ।अगर सभी दल यह समझ ले की राज्यों की आधारभूत संरचना की कीमत पर राजनैतिक वायदे आखिर कार राज्य को रसातल में ही ले जायेंगे ।
एक और मुद्दा हैं किसानो को बिजली देने का ,-- सभी राजनैतिक दलों में होड़ लगी रहती हैं ।कोई किसानो को सस्ती बिजली देने का वादा करती हैं , तो कोई चौबीस घंटे विद्युत् आपूर्ति की बात करता हैं ,तो अकाली दल ने तो मुफ्त में बिजली देने की बात की ,। परिणाम यह हुआ की सभी प्रदेशो के विद्युत् बोर्ड लम्बे -लम्बे घाटे में चल रहे हैं । हालत यह हो गए हैं की सभी प्रदेश सरकारे बिजली की कमी से दो -चार हो रही हैं ।अब अगर वादा न पूरा हुआ तो ग्रामीण छेत्र के मतदाता तो सरकार के खिलाफ हो जायेंगे ।यही डर सभी सत्तारूद दलों को प्रदेशो मैं सताता रहता हैं । परिणाम स्वरुप बोर्ड घाटे में चलते रहते हैं ।हर साल के बजट में राज्यों को अरबो रुपये का इंतजाम बिजली के मद में करना पड़ता हैं ।अगर सभी दल यह समझ ले की राज्यों की आधारभूत संरचना की कीमत पर राजनैतिक वायदे आखिर कार राज्य को रसातल में ही ले जायेंगे ।
अब इन सब बातो का तात्पर्य यही हैं की सरकार बनाने के लालच में शासन को ही न लंगड़ा कर दे ।
Oct 7, 2012
फर्क होना दामाद --नेहरु और गाँधी परिवार का
यह शीर्षक हो सकता हैं की कुछ पाठको को विस्मित करने वाला लगे ---परन्तु नेहरु -गाँधी परिवार के दामादो में एक तुलना की कोशिश हैं । नेहरु के दामाद फ़िरोज़ गाँधी संसदीय प्रणाली के एक प्रतिमान थे ।भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु की पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी से उनके विवाह के कारन ही राजीव -संजय और सोनिया तथा राहुल तथा प्रियंका को गाँधी का सरनेम प्राप्त हुआअत्य हैं । । इसलिए कुछ लोगो का यह कहना की नेहरु परिवार ने महात्मा गाँधी के सरनेम का अनाधिकृत प्रयोग किया --पूरी तरह असत्य हैं । गुजरात में पटेल - गाँधी आदि कई ऐसे सरनामे हैं जो पारसियों और सनातन धरम मानने वालो मैं पाए जाते हैं ।
बात हैं की फिरोज गाँधी एक कांग्रेसी संसद और प्रधान मंत्री के दामाद होने के बावजूद भी उस काल में भी कभी गलत काम को उजागर करने में पीछे नहीं रहे ।मैं यंहा दो उदहारण रकः रहा हूँ --एक था तत्कालीन वितमंत्री टी टी कृष्णामचारी का जिन पर फ़िरोज़ साहेब ने एक सौदे में एक व्यासायिक घराने को गलत तरीके से फायदा पहुचने का आरोप लगाया था ।कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओ ने नेहरु जी से कहा की वे अपने दामाद को ऐसा करने से रोके , परन्तु नेहरु जी ने ऐसा करने से मना करते हुए कहा की आरोपों का वित्त मंत्री को सामना करना चहिये । बहस के दौरान वित्त मंत्री निरुतर हो गए परिणामस्वरूप उन्हे अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा ।ऐसा ही एक और उदहारण हैं जब ब्रिटिश इंडिया कारपोरेसन के सौदे में उन्होंने बंगाल के उद्योगपति हरी दास मुध्दा पर आइनैतिक व्यापारिक तरीको के इस्तेमाल का आरोप लगाया था ।इस सौदे के अनुसार कानपूर की लाल इमली मिल तथा अथर्तन वेस्ट मिलो के बेचे जाने की संसद में मांग की । जांच में उनके आरोप सत्य साबित हुए और हरी दास को जेल हुई । इन सभी प्रकरणों में प्रधान मंत्री की और से कोई भी हस्तछेप नहीं किया गया ।अब इन घटनाओ से यह तो स्पस्ट होता हैं की नेहरु के दामाद की निर्भीकता और सच का साथ देने का दम कितना था , इसके लिए आज के भारतीय जनता पार्टी के नेताओ से नेहरु -गाँधी परिवार को सर्टिफिकेट लेने की जरुरत नहीं हैं ।क्योंकि इस तरह का एक भी उदहारण वे प्रस्तुत नहीं कर सकते ।
अब रही बात रोबेर्ट वाड्रा के व्यापारिक संबंधो की और उनसे संभावित फायदे की , अरविन्द केजरीवाल नाम के नवोदित नेता ने सस्ती लोक प्रियता बटोरने के लिए टीवी चैनल को एक लिस्ट दे कर कहा की पञ्च लाख से व्यापार शुरू कर के वे इतनी जल्दी अरबपति बन गए । अभी हाल में एक ठेकेदार के यंहा आयकर का छापा पड़ा इन सज्जन ने सन 2006 में छः लाख की पूंजी से काम शुरू किया था , आज वे दस हज़ार करोड़ से ज्यादा मिलकियत के आदमी हैं ।जब कांग्रेस की और से जांच की बात की गयी तो सत्तारुद दल ने इसे व्यापारिक गतिविधि कह कर उनका बचाव किया ।आज देश की सबसे बड़े ओउदोगिक घराने अम्बानी घराने की प्रगति को देखे तो पिचले 28 सालो में यह ग्रुप बाद कर आज एक लाख करोड़ की सम्पति का स्वामी हैं , अब उनसे भी यह सवाल हो सकता हैं की इतनी प्रगति उन्होने कैसे कर ली ? यह सवाल आज की कई नवोदित कंपनियों से पूछा जा सकता हैं की पांच -छ वषों में उन्होने स्टाक मार्केट मैं आपनी साख कैसे बनायीं ? क्या इन सब मामलो की अदालती जांच की मांग केजरीवाल करेंगे ? शायद नहीं क्योंकि ऐसा करने का मैन डेट उनके पास नहीं होगा ,क्योंकि वे तो सिर्फ कांग्रेस को ही देश की सभी बुराइयों की जड़ मानते हैं ।अब उनके गलत सोच और इतिहास के अज्ञान के लिए क्या किया जाए ।हाँ रोबेर्ट वाड्रा अपनी और परिवार की प्रतिष्ठा के लिए अपनी और से सफाई पेश करे जिससे नेहरु -गाँधी परिवार की प्रतिष्ठा बरक़रार रख सके ।क्योंकि सत्तर =आस्सी साल में जो स्तिति इस परिवार को मिली हैं वह दाग -धब्बे लगाने वाले लोगो के प्रयास को निष्फल कर सके ।क्योंकि इस नव स्थापित पार्टी का न तो कोई कार्यक्रम हैं न ही कोई जन कल्याण की योजना , बस मीडिया की सुर्खियों में बने रहने का जूनून ।जिस पार्टी का उद्देश्य पोल-खोल हो वह धरना अनसन और हुडदंग के सिवा और किया कर सकती हैं ।
Oct 6, 2012
लाखो लोगो को रोजगार मिलने के वालमार्ट के दावे मैं कितना सच ?
फुटकर व्यापर मैं विदेशी निवेश से लाखो लोगो को रोजगार मिलने के दावे में कितना सच हैं ,इसका पता वालमार्ट के ही कागजो से चलता हैं ।इस विदेशी दात्याकर कंपनी की स्थापना 1962 में सम वाल्टन द्वारा अरकंसास राज्य में हुई ।यह united states of अमेरिका के पचास राज्यों में से काफी पिछड़ा राज्य हैं ।जंहा सिटी कौंसिल और राज्य के लेवल पर राजनैतिक एवं प्रशासनिक नेतृत्व को आसानी से प्रभावित किया जा सकता हैं ।इस दक्षिण में बसे राज्य में कुछ मुठी भर पैसे और प्रभाव वाले लोगो की ही चलती हैं ,लगभग 90प्रतिशत जनता की आवाज को राजनेताओ और धनपतियो के काकस द्वारा नियंत्रित रखा जाता हैं ।यही कारन हैं की इन स्थानों में '''जनहित''का लेवल लगा कर कुछ भी किया जा सकता हैं ।चाहे वह मामला पर्यावरण का हो अथवा जनता के स्वस्थ्य और सुरक्षा से सम्बंधित हो , सभी मामलो को छेत्र में ''नए रोजगार के अवसर '''के नाम पर पेश कर दिया जाता हैं ।
आब बात करे वालमार्ट द्वारा भारत में निवेश के उपरांत रोजगार के अवसर सुलाभ हनी के --में कुछ तथ्य सामने रख रहा हु ।दुनिया में वालमार्ट के कुल 8500रिटेल स्टोर हैं , जिनमें कुल 21 लाख लोग कार्यरत हैं ।इस संख्या में मेक्सिको के वाल्माक्स और ब्रिटेन के aasda तथा भारत में चल रहे बेस्ट price स्टोरों की संख्या शामिल हैं ।अब अगर हिसाब लगाये तो प्रति स्टरे 248 लोगो को ही नौकरिया मिल पाएंगी ।जबकि इस प्रस्ताव के समर्थको द्वारा इन निवेसो से लाखो लोगो को रोजगार मिलने का ''दावा ''किया जा रहा हैं ।फिलहाल भारत के 53 महानगरो में ही इन स्टोरों को खोलने की योजना हैं ।प्रति स्टरे पर ऊपर दर्शाए गए हिसाब से मात्र 13,094 लोगो के लिए काम के अवसर सृजित हो सकेगे । विदेशी निवेश की शर्त के अनुसार एक मल्टी ब्रांड प्रोजेक्ट में कम से कम 500 करोड़ का निवेश जरूरी होगा । इसमें से आधा अर्थात 250 करोड़ ''बैक एवं मूलभूत {INFRASTRUCTURE } सुविधाओ में लगाना होगा ।इस का मतलब यह हुआ की वे भवन और गोदाम के नाम पर कम्पनी स्थाई सम्पति खरीदेगी , तथा आपनी बैलेंस सीट में में उसे जोड़कर अपने निवेशको को बुद्धू बनायेंगी ।इधर भारत के खुदरा बाज़ार में काम कर रहे चार करोड़ लोगो का काम छिन जायेगा ।जन्हा तक किसान को वाजिब दाम मिलने की बात हैं तोउसकी कहानी उत्तरी अमरीका के किसानो से जाना जा सकता हैं ।जंहा इस कम्पनी के चरण पड़ चुके हैं ।
एक तरह से बड़े बाधों और औदोगिक कल कारखानों की स्थापना के नाम पर विकास की यात्रा में कैसे '''भूमिपति'' कंगाल बनजाता हैं ,और समर्थ लोगो का आर्थिक रूप से गुलाम बन जाता हैं ।उसी प्रकार तेरह हज़ार लोगो को काम पर वर्दी में आने का हुकुम सुनाकर , खरीदने की शक्ति रखने वाले वर्ग को जो देश की आबादी का दस प्रतिशत हैं उसे एक अहंकारी व्यक्ति में बदल देगी ।जो अपने ही लोगो का दुश्मन बन जायेगा । एक फ़िल्मी गाना याद आता हैं ''साला में तो साहेब बन गया '''।इस लिए सभी समझदार लोगो को इस फैसले का विरोध करना होगा ,नहीं तो हम फर आर्थिक गुलामी फंस जायेंगे ।।।
आब बात करे वालमार्ट द्वारा भारत में निवेश के उपरांत रोजगार के अवसर सुलाभ हनी के --में कुछ तथ्य सामने रख रहा हु ।दुनिया में वालमार्ट के कुल 8500रिटेल स्टोर हैं , जिनमें कुल 21 लाख लोग कार्यरत हैं ।इस संख्या में मेक्सिको के वाल्माक्स और ब्रिटेन के aasda तथा भारत में चल रहे बेस्ट price स्टोरों की संख्या शामिल हैं ।अब अगर हिसाब लगाये तो प्रति स्टरे 248 लोगो को ही नौकरिया मिल पाएंगी ।जबकि इस प्रस्ताव के समर्थको द्वारा इन निवेसो से लाखो लोगो को रोजगार मिलने का ''दावा ''किया जा रहा हैं ।फिलहाल भारत के 53 महानगरो में ही इन स्टोरों को खोलने की योजना हैं ।प्रति स्टरे पर ऊपर दर्शाए गए हिसाब से मात्र 13,094 लोगो के लिए काम के अवसर सृजित हो सकेगे । विदेशी निवेश की शर्त के अनुसार एक मल्टी ब्रांड प्रोजेक्ट में कम से कम 500 करोड़ का निवेश जरूरी होगा । इसमें से आधा अर्थात 250 करोड़ ''बैक एवं मूलभूत {INFRASTRUCTURE } सुविधाओ में लगाना होगा ।इस का मतलब यह हुआ की वे भवन और गोदाम के नाम पर कम्पनी स्थाई सम्पति खरीदेगी , तथा आपनी बैलेंस सीट में में उसे जोड़कर अपने निवेशको को बुद्धू बनायेंगी ।इधर भारत के खुदरा बाज़ार में काम कर रहे चार करोड़ लोगो का काम छिन जायेगा ।जन्हा तक किसान को वाजिब दाम मिलने की बात हैं तोउसकी कहानी उत्तरी अमरीका के किसानो से जाना जा सकता हैं ।जंहा इस कम्पनी के चरण पड़ चुके हैं ।
एक तरह से बड़े बाधों और औदोगिक कल कारखानों की स्थापना के नाम पर विकास की यात्रा में कैसे '''भूमिपति'' कंगाल बनजाता हैं ,और समर्थ लोगो का आर्थिक रूप से गुलाम बन जाता हैं ।उसी प्रकार तेरह हज़ार लोगो को काम पर वर्दी में आने का हुकुम सुनाकर , खरीदने की शक्ति रखने वाले वर्ग को जो देश की आबादी का दस प्रतिशत हैं उसे एक अहंकारी व्यक्ति में बदल देगी ।जो अपने ही लोगो का दुश्मन बन जायेगा । एक फ़िल्मी गाना याद आता हैं ''साला में तो साहेब बन गया '''।इस लिए सभी समझदार लोगो को इस फैसले का विरोध करना होगा ,नहीं तो हम फर आर्थिक गुलामी फंस जायेंगे ।।।
केजरीवाल की क्यों और कारवाई का सच ?
केजरीवाल की क्यों और कारवाई का सच ? वास्तव मैं भ्रस्टाचार के विरुद्ध एक आन्दोलन हुआ करता था ---अन्ना हजारे का , जिसे कुछ सरकारी नौकरी से छुट्टी पाए कुछ लोगो ने तथा वकील पिता -पुत्र ने अपनी जेबी संस्था बनाने का सफल प्रयास किया ।परन्तु अन्ना ने अपने को इन ''अभिजात्य' लोगो से अपने को अलग कर लिया । फिर भी नेता बनने के इन पूर्व अधिकारियो ने राजनितिक दल बना लिया .
जिसका मुख्य आधार एक हैं ----'''पोल खोल ''
उद्देश्य हैं जिसका --------मीडिया की सुर्खियों में बने रहना
तरीका -----खुद की उपलब्धि के बजाय -दूसरे को गाली देना
राजनीती ----जंतर -मंतर पर बैठक ,धरना,अनशन आन्दोलन
शंखनाद ----हमसे अच्छा कोई नहीं बाकी सब '''बेईमान '''
जिसका मुख्य आधार एक हैं ----'''पोल खोल ''
उद्देश्य हैं जिसका --------मीडिया की सुर्खियों में बने रहना
तरीका -----खुद की उपलब्धि के बजाय -दूसरे को गाली देना
राजनीती ----जंतर -मंतर पर बैठक ,धरना,अनशन आन्दोलन
शंखनाद ----हमसे अच्छा कोई नहीं बाकी सब '''बेईमान '''
- एक बयान में अरविन्द केजरीवाल और वकील प्रशांत भूषण ने सोनिया गाँधी के दामाद रोबेर्ट वाड्रा पर आरोप लगाया हैं की उन्होने तीन साल में पचास लाख रुपये कमाए हैं ।यहसब एक बिल्डर कंपनी डी एल ऍफ़ के साथ मिल कर उन्होने किया . ।वकील प्रशांत के पिता शांति भूषन ने तो सीधे कारवाई करने की मांग की हैं ।लेकिन यह नहीं बताया की किन धाराओ के तहत ऐसा करना हैं ?आरोप यह हैं की बिल्डर कंपनी ने रोबेर्ट को बिना गारंटी के 65 करोड़ रुपये का कर्ज दिया ।इस के पूर्व रोबर्ट की कम्पनी की पूंजी मात्र 50 लाख रुपये ही थी । इतना ही नहीं डी एल ऍफ़ ने उन्हे सस्ती दरो पर संपतियां सुलभ करा यी । अब इस चौकड़ी का एतराज इस बात पर हैं की यह सब सोनिया का रिश्तेदार होने के कारन हुआ ,क्योंकि हरियाणा और हिमांचल की सरकारों ने राजनीतिक दबाव में ऐसा किया ।वे भूल गए की हिमांचल में भारतीय जनता पार्टी की सरकार हैं ।न की कांग्रेस की ।अब अगर हिमांचल की सरकार ने भी सोनिया के दामाद को लाभ पहुँचाया तब तो उन्हे धूमल के विरुद्ध भी मोर्चा खोलना पड़ेगा ।
- वकील भूषण एंड भूषण के अनुसार उनके आरोप अंतिम सत्य हैं ,इसलिए उस पर करवाई करते हुये 10 जनपथ के खिलाफ कारवाई करने की मांग की ।अब सवाल हैं की अगर आयकर विभाग से हटाये गए एक कर्मचारी के कथन पर मुकदमा चलाया जाए तब तो ऐसे मुकदमें बहुत हो जायेंगे ,और कानून का राज्य समाप्त हो जायेगा ।क्योंकि केजरीवाल से हैसियत में काफी बड़े लोग और नेता रोज एक -दूसरे पर आरोप लगते हैं ---पर जिस पर आरोप लगता हैं वह जांच की मांग करता हैं जो वैधानिक भी हैं ,इन स्थितियों में केजरीवाल और भूषण एंड भूषण का दावा तो तभी कुछ ''लायक'' हो पायेगा जब वे जनता पार्टी के नेता स्वामी की सलाह मान कर एक ''जनहित'' याचिका दायर करना चाहिए , तभी उनके कहने का कुछ अर्थ निकलेगा । वरना मीडिया के लिए एक और शगूफा ही साबित होगा ।
Oct 3, 2012
तेल कंपनियों के घाटे का सच बैलेंस शीट मैं फायदा और बयान में घाटा
तेल कंपनियों को हो रहे घाटे का नाम लेकर केंद्र सरकार ने रसोई गैस के सिलेंडरो पर मिलने वाली सरकारी सहायता में कटौती कर के आम आदमी के लिए घर के खाने का खर्चा बड़ा दिया हैं । पर इन तेल कंपनियों के सालाना खर्चे के हिसाब -किताब में 2011-12 में इंडियन आयल कंपनी ने टैक्स चुकाने के बाद में 3955 करोड़ का फायदा दिखाया हैं ।बी पी सी एल ने इसी अवधि में 1311करोड़ तथा एच पी सी एल ने इस वित्तीय वर्ष में 911 करोड रुपये का फायदा दिखाया हैं ।अब इस रिपोर्ट के बाद केंद्र सरकार का वादा तो झूठा साबित हो जाता हैं ।\अब यह सच तो आम आदमी को केंद्र सरकार के प्रति और अविश्वास से भर देगा । इस स्थिति का केंद्र के पास क्या जवाब हैं ? अभी एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार फिर से गैस के दाम बढाने की तैयारी कर रही हैं । पेट्रोल और डीजल पर भी बढोतरी की तैयारी चल रही हैं ।आखिर इन सब बातो का क्या मतलब हैं ?
आम नागरिक के मन में संदेह का बीज इसलिए पनपा हैं चूँकि इन तेल कंपनियों ने लाभाश के रूप में भारत सरकार को अरबो रुपये का भुगतान किया हैं ।फिर उनसे अनुदान के रूप में वापस उसी राशि को वापस ले लेते हैं ।अब इस तरकीब को क्या कहेंगे ? जनता को मुर्ख बनाने का नुस्खा हैं या फिर आंकड़ो की बाजीगरी जिसे अर्थशास्त्र के तहत बजट का ''नया ''तरीका ! क्योंकि फायदे में चलने वाली एक कम्पनी को ''घाटा '' ''घाटा '' चिलाने का क्या मतलब हो सकता हैं ?आम आदमी की समझ के बाहर की बात हैं ।
इसी दौरान एक तथ्य सामने आया हैं की राजस्थान के तेल कुओं का ठेका एक अमेरिकेन कंपनी को दिया गया हैं , जिसे एक बैर्रल कच्चे तेल का दाम तीन डालर पड़ता हैं पर वह इस की मार्केटिंग 100 डालर में करती हैं । जो भारत सरकार भुगतान करती हैं ।अब तीन के दाम सौ दिए जायेंगे ,तो पेट्रोल तो महंगा होगा ही ! लेकिन एक सवाल यह भी हैं की आखिर भारत सरकार की क्या मजबूरी हैं की इतने महंगे दामो में तेल खरीदने की क्या मजबूरी हैं ? अगर सभी सरकारी और निजी तेल कंपनियों की तेल निकालने की लागत देश को बताना होगा ,जिस से देशवासियों को आवगत करना होगा ।नहीं तो आम आदमी के मन में हमेशा सरकार के प्रति एक संदेह बना रहेगा ।जो सरकार के लिए बेहद नुकसानदेह होगा , क्योंकि अगर सच और और बताये गए तथ्य में सरकारी तथ्य सही साबित नहीं हुए तो लोगो का गुस्सा फूटना पक्का हैं । जो राजनैतिक रूप से वर्त्तमान केंद्र सरकार के लिए घातक साबित हो सकती हैं .।
आम नागरिक के मन में संदेह का बीज इसलिए पनपा हैं चूँकि इन तेल कंपनियों ने लाभाश के रूप में भारत सरकार को अरबो रुपये का भुगतान किया हैं ।फिर उनसे अनुदान के रूप में वापस उसी राशि को वापस ले लेते हैं ।अब इस तरकीब को क्या कहेंगे ? जनता को मुर्ख बनाने का नुस्खा हैं या फिर आंकड़ो की बाजीगरी जिसे अर्थशास्त्र के तहत बजट का ''नया ''तरीका ! क्योंकि फायदे में चलने वाली एक कम्पनी को ''घाटा '' ''घाटा '' चिलाने का क्या मतलब हो सकता हैं ?आम आदमी की समझ के बाहर की बात हैं ।
इसी दौरान एक तथ्य सामने आया हैं की राजस्थान के तेल कुओं का ठेका एक अमेरिकेन कंपनी को दिया गया हैं , जिसे एक बैर्रल कच्चे तेल का दाम तीन डालर पड़ता हैं पर वह इस की मार्केटिंग 100 डालर में करती हैं । जो भारत सरकार भुगतान करती हैं ।अब तीन के दाम सौ दिए जायेंगे ,तो पेट्रोल तो महंगा होगा ही ! लेकिन एक सवाल यह भी हैं की आखिर भारत सरकार की क्या मजबूरी हैं की इतने महंगे दामो में तेल खरीदने की क्या मजबूरी हैं ? अगर सभी सरकारी और निजी तेल कंपनियों की तेल निकालने की लागत देश को बताना होगा ,जिस से देशवासियों को आवगत करना होगा ।नहीं तो आम आदमी के मन में हमेशा सरकार के प्रति एक संदेह बना रहेगा ।जो सरकार के लिए बेहद नुकसानदेह होगा , क्योंकि अगर सच और और बताये गए तथ्य में सरकारी तथ्य सही साबित नहीं हुए तो लोगो का गुस्सा फूटना पक्का हैं । जो राजनैतिक रूप से वर्त्तमान केंद्र सरकार के लिए घातक साबित हो सकती हैं .।
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