अब सुप्रीम कोर्ट को भी चुनाव आयोग की तरह मातहती में लाने की तैयारी !!
मोदी सरकार की सुप्रीम कोर्ट से “तकलीफ” विगत समय में आए फैसलो से
कुछ ज्यादा बड़ गयी हैं |
हाल में ही जयपुर में हुए पीठासीन अधिकारियों के दो दिनी सम्मेलन में उप राष्ट्रपति
से लेकर लोक सभा अध्यक्ष ॐ बिरला और बीजेपी शासित राज्यो के आधायक्षों
के बयान बस एक ही सुर में बोल रहे
थे --- “”” न्यायपालिका हमारे फैसलो
पर विचार करने से बाज़ आए , यह हमारे अधिकारो
का हनन है | आखिर हम जनता के प्रतिनिधि है , हम सार्वभौम है |
परंतु केंद्र की मोदी सरकार के इन
पाहुरूओ को यह भी देखना चाहिए -----की
दिल्ली के जन प्रतिनिधियों की सरकार को
अपने फैसले लागू करवाने के लिए जिन अफसरो की ज़िम्मेदारी हैं –वे सभी केंद्र
की ओर मुंह रखते हैं, और
वही करते हैं जो “”ऊपर से हुकुम आता है “” | क्या दिल्ली की केजरीवाल सरकार जनता की
चुनी नहीं हैं ! पर केंद्रीय विधि
मंत्री किरण ऋजुजु द्वारा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश
चंद्रचूड़ को लिखे पत्र में ---- जो
इरादे जताए गाये हैं वे साफ तौर से
देश की न्यायपालिका को केंद्रीय
निर्वाचन आयोग की तर्ज़ पर लाने का हैं ?
जनहा मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य
आयुक्तों की नियुक्ति केंद्र अपनी मर्जी से करता हैं ----जिसमे कोई “कसौटी” नहीं होती हैं , वरन
जी हुजूरियों को नियुक्ति मिलती हैं | अगर किसी ने भी सरकार की मर्जी के खिलाफ फैसला किया तो – उसके पीछे सीबीआई
लगा दी जाती है , और बदनाम किया जाता हैं | किसी की भी शिकायत पट बिना जांच किए की
वह शिकायत कितनी हक़ीक़त है और कितना “फसाना”” है |
बस सीबीआई का छापा उस व्यक्ति की
बदनामी का कारण बन जाता हैं | केंद्र सरकार विगत सात सालो में सार्वजनिक छेत्र के लोगो की
छवि बिगड़ने की कोशिस हुई है | सरकार की विभिन्न एजेंसियो के छापे
-- क्या खोज पाये इसका कोई “श्वेत पत्र “” मोदी सरकार ने संसद में नहीं रखा जबकि विपक्ष ने अनेकों बार इसकी मांग की हैं |
सुप्रीम कोर्ट
और हाइ कोर्ट के जजो की नियुक्ति एक
कालेजियम द्वरा की जाती है , जिसमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश और तीन अन्य
साथी जज होते हैं | जजो के नाम पर विचार करने के बाद कालेजियम
जिन नामो को हाइ कोर्ट के मुख्य
न्यायधीश या सुप्रीम कोर्ट के लिए नियुक्त
किया जाता हैं उनके नाम केंद्र के विधि
विभाग को शपथ दिलाने के लिए भेजा जाता हैं
| असली झगड़ा इसी सूची को लेकर हैं |
केंद्र आरक्षण का बहाना लेकर इस चयन प्रक्रिया में भाग लेना चाहता हैं | परंतु आरक्षण तो बहाना हैं ----- असली
बात तो अपने आदमियो को सुप्रीम कोर्ट में
बैठना है , जिससे की सरकार विरोधी फैसलो को होने से रोका जा सके !
ऐसा नहीं
की मोदी सरकार के हितकारियों को सुप्रीम
कोर्ट में जगह नहीं मिली हो ----
निवरतमान प्रधान न्यायाधीश यू यू ललित
एक नाम हैं |
उन्होने गुजरात हाइ कोर्ट मे वकालत
करते हुए गृह मंत्री अमित शाह की गिरफ्तारी
के खिलाफ केस लड़ा था | एवं वे सफलतापूर्वक मुकदमें को
जीत गए | बाद में उन्हे सीधे सुप्रीम कोर्ट में
जज नामित किया गया | वे 49 दिनो तक वे प्रधान न्यायधीश रहे |
परंतु इस अपवाद को छोड़ दे तो भी
अनेक संघ समर्थित वकील हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं |
किरण ऋजुजु ने जजो की नियुक्ति की प्रक्रिया की गोपनियता पर सावल उठाया हैं |
परंतु क्या वे सरकार के अनेक
गोपनीय नियुक्तियों में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश को शामिल करेंगे -----
जैसा की सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में
होता हैं | उसमे राष्ट्रपति एवं प्रधान मंत्री तथा प्रधान न्यायधीश एक मत होकर नियुक्ति करते थे | क्या यही प्रक्रिया चुनाव आयुक्तों
और आडिटर जनरल की नियुक्ति में
पारदर्शिता के लिए अपनाई जाएगी ! क्यूंकी देश में स्वास्थ्य लोकतन्त्र के ज़िंदा रहने के लिए निसपक्ष
चुनाव आयुक्तों का होना अत्यन्त
आवश्यक है , अन्यथा ईवी एम मशीनों के प्रबंध और परिचालन पर शंकाए उठती रहेंगी , जो लोकतन्त्र को भरष्ट करता रहेगा |
मोदी सरकार में चुनावो
में जिन नेताओ के कारण पार्टी को पराजय उठानी पड़ी है
उन लोगो को सीबीआई और ईडी
अथवा अन्य केन्द्रीय एजेंसियो की मदद से उन्हे परेशान करने और गिरफ्तार करने
का चलन बहुत बड़ गया हैं | इन जांच इकाइयो से कोई
न्यायिक इकाई यह नहीं पूछ सकती की “”
कितने सबूतो के आधार पर यह गिरफ्तारी हुई “” अक्सर उनका जवाब होता है की हमे
शक है , अब सिर्फ एसएचक्यू की वजह से लोगो को
महीनो जेल में रखा जाये तब क्या न्यायिक संस्थाओ
की भूमिका नहीं बनती ? परंतु अभी तक सुप्रीम कोर्ट
ने इन संस्थाओ के “”छापो”” के कानूनी आधार और जब्त दस्तावेज़ो को गिरफ्तारी
की “””वजह” की जांच नहीं की है | लेकिन सिर्फ जांच के लिए गिरफ्तारी करना जितना आसान है – आरोपो की साबित करना उतना ही मुश्किल है | इन सभी इकाइयो का
अदालत में सफलता का प्रतिशत
दस प्रतिशत से भी कम हैं | यह दर्शाता है की यह सभी एजेंसियो को केंद्रीय गृह मंत्रालय से ही निर्देश मिलते है |
बॉक्स
बॉक्स
सुप्रीम कोर्ट और हाइ कोर्ट के जजो की नियुक्ति की प्रक्रिया में
सरकार की सहभागिता नितांत
न्यायिक सिद्धांतों के वीरुध होगा |
क्यूंकी अदालतों में सर्वाधिक
मुकदमें सरकार के होते हैं | लंबित मुकदमें में राज्य और केंद्र के विभागो – मंत्रालयों तथा सार्वजनिक उपक्रमो के होते हैं |
ऐसे में अगर सरकार का दाखल न्यायिक
प्रक्रिया में हुआ तो वह एकांगी होगा | क्योंकि सरकार के खिलाफ व्यक्ति या व्यक्तिओ का समूह
होता हैं , जिनके अधिकारो के हनन का आरोप
होता है |
जजो की
नियुक्ति में सरकार के दखल से अदालतों का हालत वही होगा जो राज्य सरकारो
द्वरा गठित न्यायिक जँचो का होता है जिनमें
अक्सर वास्तवइक दोषी को बचाते हुए
किसी छोटे मुलजिम को दोषी बाते जाता हैं | जिन अदालती जँचो में बड़े अफसर
सीधे रूप से दोषी सीध हो जाते हैं , तब सरकारे कभी भी उन अफसरो के खिलाफ कारवाई की इज़्ज़जात नहीं देती हैं | इस प्रकार अगर न्यायपालिका की नियुक्तियों में सरकार का
हस्तचेप होगा तब अदालतों के फैसले भी न्यायिक जाँचो की भांति होगे ------जो ना तो
न्याया देंगे और नाही दोषी को सज़ा !
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