क्या
कभी कोई सैन्य अभियान --सरकार
के प्रचार का जरिया हुआ है ??
जब
आज तक के चार घोसीत युद्धो मे
ऐसा नहीं हुआ --तब
इस बार किस मक़सद से यह प्रचार
किया जा रहा है |
जो
लोग विरोधियो के डीएनए टेस्ट
की मांग कर रहे है उन्हे मालूम
होना चाहिए की जासूसी के आरोप
मे सनातनी ज्यादा बंदी बनाए
गए है |केन्द्रीय
कानून मंत्री रविशंकर ने राहुल
गांधी से सवाल किया की वे बताए
की वे इस वीडियो को '’सच'’
मानते
है की नहीं ??
कानून
मंत्री से सवाल पूछा जा सकता
है की महात्मा गांधी की हत्या
किन तत्वो ने की और क्यो की
उसका जवाब दे ??
क्योंकि
सरकार ने बिना पूर्व सूचना
के महात्मा की समाधि '’राजघाट
'’’
पर
ताला जड़ दिया था ---क्यो
?
देश
इनके भी जवाब सुन्न चाहेगा |
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
सैन्य
अभियानो के परिणाम भी -सतर्कता
पूर्वक ज़ाहिर किए जाते रहे
है ,
देश
ने आज़ादी के बाद तीन "””युद्ध
"”
किए
है ---परंतु
कभी भी छुटपुट भिड़ंत को युद्ध
की भांति ---प्रचार
तंत्र मे विवाद नहीं हुआ |
आज
28
मिनट
के सर्जिकल विडियो को लेकर
"”सवाल
भी है ---और
सरकार समर्थक के जवाब भी है
"””
1947-48
और
1965
तथा
1971
के
साथ पाकिस्तान के साथ हुए
युद्ध की रूपरेखा अथवा तैयारी
याकि झड़प की जानकारी कभी भी
भारत के नागरिकों के सम्मुख
नहीं आई |
युद्ध
किसी सरकार की प्राथमिकता
नहीं हो सकते ----
वे
तो देश के सम्मुख म्र्त्यु
के संकट के समान होते है !
जैसे
व्यक्ति बीमारी और मौत से लड़ता
है ----उसी
प्रकार युद्ध एक "”अनचाही
"”
ज़िम्मेदारी
होता है |देश
ने 1947
मे
आज़ादी के साथ ही सैनिक कारवाई
का अनुभव है |
हर
बार पड़ोसियो से ही झुजना पड़ा
|
तीन
बार पाकिस्तान से और एक बार
चीन से |
परंतु
प्रत्येक विजय के पीछे शोक
और गर्व भी था |
परंतु
युद्ध लोकतान्त्रिक देशो के
एजेंडे मे कभी नहीं होते
-------वे
सार्वभौमिकता -एकता
की रक्षा के लिए कर्तव्य होते
है|
हाँ
वे रूस के राष्ट्रपति पुतिन
हो सकते है --जो
क्रिमिया पर फौज की मदद से
कब्जा कर ले !
अथवा
चीन के आजीवन राष्ट्रपति शी
जिनहोने जापान और फिलीपींस
के अधिकार वाले छेत्रों पर
कब्जे के लिए सेना का इस्तेमाल
किया !
पूर्व
मे मे इराक के सद्दाम हुसैन
ने कुवैत पर कब्जा करने के लिए
सेना का इस्तेमाल किया था ,
परंतु
बाद मे उनका क्या परिणाम हुआ
--सर्वविदित
है |
सेना
किसी भी राजनेता की नहीं वरन
देश की ताकत होती है |
वह
देश के लिए होती है |
जब
भी राजनीतिक उद्देश्य के लिए
उसका इस्तेमाल होता --तब
तब परिणाम देश को उसके लोकतान्त्रिक
परंपरा को भुगतने पड़ते है |
इसलिए
सर काट कर लाने के ज़ंग ज़ू नारो
से देश से ना तो गरीबी मिटेगी
ना भूख का अंत होगा |
और
जो सरकार डाइरेक्टर जेनरल
मिलिटरी ऑपरेशन को निर्देश
दे की वे "””
सार्वजनिक
करे की सेना ने क्या किया "””
तब
यही कहा जा सकता है की नेत्रत्व
अपरिपक्व और अनुभहीन होने
के साथ लोकतन्त्र के साथ खिलवाड़
कर रहा है |
देश
की आज़ादी से लेकर अब तक देश को
"”हमेशा
कारवाई के बाद प्रधान मंत्री
द्वरा अवगत कराया गया है "”
परंतु
28
मिनट
का वीडियो पहली बार बाज़ार मे
आया -------यह
भी देश के लोगो को नहीं बताया
जा रहा की आखिर यह "””
किसने
किया ?किसकी
अनुमति से किया ?
एवं
इस कवायद का उद्देश्य से देश
का क्या हिट होने को है ??
अभी
तक चार युद्ध देश को झेलने पड़े
---
झेलने
का अर्थ है की हमारी मजबूरी
थी उनका प्रतिरोध करने की ।
इसमे एक मे हम चीन से पराजित
हुए और तीन मे हम विजयी हुए |
पर
किसी के भी फोटो वास्तविक हमले
के पहले नहीं जारी किए गए ?
देश
पर चीन का हमला नवोदित भारत
की सैनिक छमता की पहली परीछा
थी |
जिसमे
हमारे देश की सैन्य छ्म्ता
की कमजोरी को उजागर किया |
चीन
युद्ध को लेकर बाद मे काफी
कितबे भी लिखी गयी गनीमत है
की 28
मिनट
की छुटपुट भिड़ंत को लेकर अभी
कोई किताब नहीं आई है |
वैसे
आज के युग मे और मोदी जी के राज
मे यह पूरी तरह से संभव था |
चीन
युद्ध एक ऐसे माहौल मे हुआ जब
देश मे पंडित जवाहर लाल नेहरू
गुलामी से उबरे इस देश के विकास
का खाका खिच रहे थे |
पंचशील
का सिधान्त महाशक्तियों से
आज़ाद हुए "”नव
राष्ट्रो "”
की
आबादी को "””भूख
--भय
-
बीमारी
और गरीबी से मुक्त करा कर ,
विकसित
देशो के समान बनाने की कोशिस
था |
चीन
भी इसी जमात मे शामिल था |
परंतु
उसके नेताओ न संसदीय लोकतन्त्र
की जगह साम्यवादी तानाशाही
व्यव्स्था को चुना |
जिसमे
नागरिक अधिकारो का स्थान नहीं
होता |
भारत
ने बौद्ध गुरु और तिब्बतके
शासक दलाई लामा को 1959
| मे
राजनीतिक शरण दी थी ,उससे
कुपित साम्यवादी चीन ने ,
अनेकों
बार दलाई लामा को भारत से
निष्काषित करने की मांग की |
परंतु
शरण मे आए की रक्षा के वेदिक
धर्म के कर्तव्य का पालन करते
हुए पंडित नेहरू ने हर बार
इंकार किया |
फलस्वरूप
चीन का 1962
मे
भारत पर आक्रमण हुआ |
इस
युद्ध से बचा जा सकता -था
--
अगर
पंडित नेहरू भी -बौद्ध
गुरु को निस्काशीत कर देते
,परंतु
क्या यह देश और धर्म तथा शासक
के दायित्व के हिसाब से उचित
होता ?
इसलिए
चीन के हमले की पराजय राजपूतो
के जौहर की परंपरा के गौरव के
समान है |
जो
शरण मे आए को "”अभयदान
"”
देते
है ---धोखा
नहीं |
परंतु
भारत सरकार अथवा पंडित नेहरू
ने कभी भी सार्वजनिक रूप से
इस कारण को ना तो कहा ---ना
ही "””प्रचारित
किया "”
|
1947
-48 मे
जम्मू काश्मीर मे पराजय के
बाद और सयुक्त राष्ट्र संघ
की मध्यस्था के कारण पाकिस्तान
और भरत के बीच एक विभाजक रेखा
खिच दी गयी |
जिसकी
देखभाल के लिए ,
सयुक्त
राष्ट्र संघ के सैनिक पर्यवेचक
आज भी तैनात है |
1965
मे
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह
जनरल अयुब खान ने "”पुनः
काबाइयलियों को आगे कर जम्मू
कश्मीर मे पाकिस्तानी सेना
की फौज रवाना की |
सत्रह
दिन तक चले इस "”युद्ध
"”
मे
फिर एक बार अंतर्राष्ट्रीय
संगठनो ने मध्यस्था की |
संयुक्त
राष्ट्र संघ के सैनिक पर्यवेछ्को
को दोनों देश की सेनाओ के मध्य
खड़ा कर दिया |
प्रधान
मंत्री लाल बहादुर शास्त्री
ताशकंद गए जनहा सोवियत रूस
की मेजबानी मे समझौते पर दस्तखत
होने थे देश ने इस समझौते के
लिए अपने प्रधान मंत्री को
खोया !
परंतु
अंतराष्ट्रीय दबाव के सामने
सम्झौता ही विकल्प था |
जो
राष्ट्र्वादी ---
दम
भरते है की |भारत
को अंतराष्ट्रीय दबाव को नहीं
मानना चाहिए ------वे
भूल जाते है की एक तानाशाही
शासन मे तो यह संभव है ----परंतु
वह भी कुछ समय या वर्षो के लिए
|
अंततः
उत्तर कोरिया को भी लोकतान्त्रिक
अंतराष्ट्रीय दबाव के सामने
झुकना पड़ा |
क्योंकि
सभी प्रकार के प्रतिबंधों से
देश की प्रगति और उन्नति नहीं
हो सकती |
आज
भी दुनिया मे चुनाव से सरकारे
बनती है |
किसी
धर्म या समुदाय या जाती के
प्रति नफरत या "”हुंकार
भरने से लोकतन्त्र नहीं बचता
"”
!
आखिरी
बार पूरे सैन्य स्तर पर3
दिसंबर
1971
को
तत्कालीन "”पूर्वी
पाकिस्तान "’
की
ओर से पाकिस्तान सेना ने शेख
मुजीब की मुक्तिवाहिनी के
लोगो का पीछा करते भारत की
सीमा मे घुसने की घटनाओ पर
विरोध जताने के बाद भी ,
जनरल
याहिया खान चुप्पी साधे रहे
तब भारत की सेना ने उन्हे खदेड़ा
|
आखिरकार
3दिसंबर
को श्रीमति इन्दिरा गांधी ने
पाकिस्तान के वीरुध युद्ध
की घोसना की |
और
तब जनरल और बाद मे फील्ड मार्शल
मानेक शा को कमान सौप दी |
तेरह
दिन चले इस युद्ध मे 16
दिसंबर
1971
को
पाकिस्तान के 90,000
सैनिको
ने जनरल की अगुवाई मे भारत की
सेना के जनरल अरोरा के सामने
"””आतम
समर्पण किया "
| इतने
युद्ध बंदियो को अनतराष्ट्रीय
पर्यवेछ्को की निगरानी मे
पाकिस्तान भेज दिया गया |
अगर
चाहते तो कितनों के सर काट कर
रखे जा सकते थे !!
परंतु
इन्दिरा गांधी बर्बरता की
कतई हामी नहीं थी |
वे
मानवीय सम्मान की पक्छ्धर थी
|
इतनी
बड़ी सनिक उपलब्धि का "””
ट्रेलर
'’’
नहीं
जारी किया गया !
No comments:
Post a Comment