क्या
भारत के प्रधान न्यायधीश एक
संस्थान है ?
अतः
उन पर "अविश्वास
"
नहीं
किया जा सकता ?
सर्वोच्च
न्यायालय की इस टिप्पणी से
क्या संविधान की व्यवस्थाओ
को अनदेखा नहीं किया गया ?जैसा
की खंड पीठ द्वरा दलित अत्याचार
निवारण अधिनियम के बारे मे
संविधान पीठ के फैसले की अनदेखी
की गयी ?
तथ्य
एवं सत्य
सर्वोच्च
न्यायालय की यह टिप्पणी की
प्रधान न्यायाधीश स्वयं मे
एक संस्थान है अतः उन पर अविश्वास
नहीं किया जा सकता |
यह
कथन प्रधान न्यायाधीश को कुछ
वैसी ही शक्तियों के समान
बनाता है ---जो
किसी प्रधान मंत्री अथवा मुख्य
मंत्री को होती है |
संविधान
के अनुसार इन दोनों पदो को
धारण करने वाला व्यक्ति "
सरकार
होता है "
| क्योंकि
उसके इस्तीफा देने अथवा उसके
प्रति ''अविश्वास
"
प्रस्ताव
संबन्धित सदन द्वरा पारित
होने पर सम्पूर्ण मंत्रिमंडल
"”स्वमेव
"”
भंग
हो जाता है |
बिजनेस
रूल के अनुसार मंत्रिमंडल
की सारी शक्तीया उस व्यक्ति
मे ही निहित होती है |
वह
सरकार नेता होता है |
परंतु
राष्ट्रपति और न्यायपालिका
के सदस्य तथा मुख्य निर्वाचन
आयुक्त तथा महालेखा परीक्षा
नियंत्रक ऐसे संवैधानिक पदो
पर नियुक्त लोगो को अविश्वास
-कदाचरण
-तथा
भ्र्र्श्टाचार के आरोप मे
महाभियोग द्वारा हटाया जा
सकता है |
इसलिए
यह कहना की प्रधान न्यायधीश
एक संस्थान है -----इस
कारण उन पर अविश्वास नहीं किया
जा सकता |
वास्तव
मे संविधान के अनुछेद 124
[4] के
अनुसार उन्हे भी अविश्वास
के आधार पर संसद हटा सकती है
|
वास्तव
मे सर्वोच्च न्यायालय मे
प्रधान न्यायाधीश की स्थिति
"
प्रधान
मंत्री अथवा मुख्य मंत्री के
समान बिलकुल ही नहीं है |
वे
मात्र "ब्रदर
जजो "
के
अगुआ है |
उनके
नियंत्रक अथवा अफसर नहीं है
|
क्योंकि
"”महाभियोग
"”
जैसा
उनके लिए है वैसा ही सुप्रीम
कोर्ट एवं हाइ कोर्ट के जजो
के लिए भी है !
जनहा
तक अविश्वास का प्रश्न है वह
इन सभी के लिए समान है |
सभी
राष्ट्रपति द्वरा नियुक्त
किए जाते है और महाभियोग द्वरा
हटाये जा सकते है |
जस्टिस
करनन के मामले मे भी सुप्रीम
कोर्ट "”मात्र
उनके काम करने पर रोक लगाने
का आदेश दे सका "
जिसका
अनुपालन बंगाल हाइ कोर्ट के
मुख्य न्यायधीश द्वरा पालन
कराय गया |
प्रधान
न्यायाधीश द्वारा दलित अत्याचार
निवारण अधिनियम की प्रक्रिया
मे बदलाव करने का फैसला भी
सही नहीं कहा जा सकता |
क्योंकि
पाँच जजो की संविधान पीठ द्वरा
इसी मामले मे अपना फैसला कुछ
वर्ष पूर्व दे चुकी थी |
पाँच
जजो के फैसलो को दो जजो की खंड
पीठ द्वरा संशोधित किया जाना
"””न्यायिक
प्रक्रिया "”
का
उल्लंघन ही है |
क्योंकि
सुप्रीम कोर्ट "”कोर्ट
ऑफ रिकार्ड "”
है
|
जिसके
फैसले सभी न्यायालयों पर बाध्य
है |
स्वयं
सुप्रीम कोर्ट पर भी |
परंपरा
रही है की यदि किसी विषय वस्तु
के मामले पर सर्वोच्च न्यायालय
मे किसी ''बड़ी
पीठ ने फैसला दिया है '''
तब
उस पर पुनर्विचार उस पीठ के
जजो की संख्या से अधिक की पीठ
ही उस मामले की सुनवाई कर फैसला
कर सकती है |
परंतु
कहन्द पीठ ने इस परंपरा का
पालन नहीं किया |
अब
ऐसा जानकारी के अभाव मे हुआ
अथवा किसी अन्य कारण से यह
''शोध''
का
विषय हो सकता है |
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