क्या
संविधान मे रेखांकित शक्तियों
के विकेंद्रीकरण का –
विधायिका
---न्यायपालिका
और कार्यपालिका द्वरा पालन
हो रहा है ?
विगत
एक पखवाड़े मे सदन और न्यायालय
मे हुई घटनाओ से
तो
लगता है की शायद नहीं
लोकसभा
मे वित्तीय अधिनियम का ""ध्वनि
मत से पारित किया जाना "”
जंहा
सदन की संप्रभुता का मज़ाक बना
है ,वंही
सरकार --और
विपक्ष के अड़ियल रवैये का
उदाहरण है |
आश्चर्यजनक
यह है की लोकसभा मे "”शोरगुल
"”
के
कारण विरोधी दलो द्वारा लाया
जाने वाला सरकार के विरुद्ध
"अविश्वास
प्रस्ताव "”
नहीं
लिया जा सका !!
परंतु
स्पीकर द्वरा दिया गया कारण
"”
शोर
के कारण मै प्रस्ताव के लिए
अनिवार्य सांसदो की गिनती
नहीं कर सकती थी "””!!
नियमो
के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव
को पेश करने के लिए 50
सांसदो
का समर्थन ज़रूरी है |
सवाल
है की क्या लोकसभा मे सांसदो
की गिनती सिर्फ हाथ उठा कर ही
की जाती है ??
यदि
स्पीकर श्रीमति महाजन कहती
तो वे लॉबी डिवीजन का आदेश दे
सकती थी |
जिससे
यह साफ हो जाता की इस प्रस्ताव
को वांन्छित संख्या का समर्थन
है अथवा नहीं ??
परंतु
ऐसा नहीं हुआ |
कुछ
ऐसा ही मध्यप्रदेश की विधान
सभा मे हुआ ---
एक
मंत्री से जुड़े मामले मे एक
महिला द्वरा आतंहत्या किए
जाने को लेकर – विरोधी दल
"कामरोको
प्रस्ताव 'लाकर
सदन मे बहस करना चाहते थे |
परंतु
नियमो का हवाला देकर स्पीकर
सीताशरण शर्मा टालते रहे |
जबकि
संसदीय कार्य मंत्री नरोत्तम
मिश्रा प्रस्ताव का विरोध
करते रहे |
विपक्ष
का आग्रह था का प्रस्ताव को
सदन मे पड़ने दिया जाये |
तब
सरकार जवाब दे की यह प्रस्ताव
''स्वीकार
किया जाने योग्य है अथवा नहीं
!
परंतु
ऐसा हुआ नहीं -लगातार
दो दिनो की टकराहट के बाद विधान
सभा मे अनुपूरक मांगे भी लोकसभा
के समान ही "”
ध्वनि
मत से पारित की गयी "”
!! जब
विपछ प्रस्ताव लाने मे असफल
रहा तब – अध्यछ के प्रति
"”अविश्वास
प्रस्ताव "”
प्रस्तुत
किया |
परंतु
सत्ता और अध्यछ ने इसके उत्तर
मे सदन को पूर्व घोषित कार्यक्रम
से सप्ताह पूर्व ही अनिश्चित
काल के लिए स्थगित कर दिया !!
न्यायपालिका
मे सरकार का रुख भी कोई शुभ
नहीं रहा है ,
रोहिङ्ग्य
शरणार्थियो के मामले मे "”
सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट को चेताया
की वह सरकार को इस मामले मे इन
लोगो को स्वास्थ्य और भोजन
की सुविधा देने के लिए बाध्य
नहीं कर सकता "”
? वह
विदेशियों को देश मे आने के
लिए सरकार को बाध्य नहीं कर
सकता !!!
दूसरा
मामला था जिसमे अदालत ने ''कहा
था की साफ सूथरी राजनीति के
लिए "”
दागी
अर्थात अपराधी व्यक्तित्व
के लोगो को राजनैतिक दलो के
अध्यक्ष पद धारण के योग्य नहीं
कहा जा सकता "”
---इसके
उत्तर मे केंद्र सरकार ने कहा
की सुप्रीम
कोर्ट केंद्र सरकार को निर्वाचन
कानून मे संशोधन करने को बाध्य
नहीं कर सकता !!!
सर्वोच्च
न्यायालय विधायिका को निर्देश
नहीं दे सकती !
सुप्रीम
कोर्ट एक याचिका मे आदेश दे
चुकी है की किसी अपराधी या
भ्रष्ट को किसी भी दल की अगुवाई
करने देना "”लोकतन्त्र
के मूल सिद्धांतों के खिलाफ
है ---क्योंकि
ऐसा व्यक्ति उम्मीदवारों के
चयन मे प्रभावी होता है "”
अब
इस मसले पर केंद्र सरकार का
यह कहना की चुनाव आयोग के पास
ऐसी शक्तिया नहीं है की वह
किसी ऐसी पार्टी का रजिस्ट्रेशन
खारिज कर दे जिसके अध्यक्ष
को भ्रस्ताचर अथवा किसी संगीन
अपराध मे सज़ा मिल चुकी हो !!!!
अब
केंद्र सरकार का यह रुख संविधान
की विकेन्द्रीकरण की भावना
का उल्ल्ङ्घन है |
अपेक्छा
थी की कार्यपालिका के फैसलो
और कार्यो की न्यायिक समीछा
देश के उच्च न्यायालय और
सर्वोच्च न्यायालय करेंगे
|
दोनों
ही अदालतों के रिट के अधिकार
छेत्र शासकीय कार्यो और फैसलो
के बारे मे फैसला करने मे सक्षम
है !
इस
संवैधानिक स्थिति के बावजूद
केंद्र सरकार द्वरा न्यायपालिका
को "””
उसकी
सीमा बताने का प्रयास कितना
संवैधानिक है "”
??
लेकिन
एक मुकदमे मे सुप्रीम कोर्ट
के माननीय जजो ने कुछ ऐसा किया
जो की कान खड़ा करने वाला था |
हाल
ही मे 19
मार्च
को सुप्रीम कोर्ट की खंड पीठ
मे जिसके सदस्य न्यायमूर्ति
अगरवाल और न्यायमूर्ति अभय
मनोहर सप्रे थे ,
उनके
सामने एक मामला था जिसमे प्रदेश
के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह
और पूर्व मंत्री कैलाश विजयवर्गीय
सहित 11
लोगो
के विरुद्ध महू के काँग्रेस
नेता अंतरसिंह दरबार ने याचिका
दायर की थी |
मामले
की सुनवाई ही दोनों नेताओ को
प्रस्तुत होने का आदेश खंड
पीठ ने दिया |
परंतु
14
मिनट
के बाद ही इस आदेश को वापस लिए
जाने की घोसणा कोर्ट मास्टर
ने की |
कारण
यह बताया गया ---की
जस्टिस सप्रे इस मामले से खुद
को "”अलग
रखना चाहते है "”
!! सुनवाई
और निर्णय के बाद "”फैसले
को बदलने का यह पहला मामला था
जिसमे जज के कारण यह बदलाव
हुआ |
यद्यपि
जस्टिस सप्रे ने कोई कारण
नहीं दिया की वे किस वजह से इस
सुनवाई से अलग हो रहे है |
गौर
तलब है की इस मामले की जल्दी
सुनवाई के लिए चार बार "”
मेनशन
"”
अर्थात
प्रार्थना की गयी थी |
पाँचवी
बार मे यह हादसा हुआ |
खंडपीठ
ने इस मामले को दूसरी बेंच को
भेजने का आदेश दिया |
ऐसा
समझा जाता है की जस्टिस सप्रे
का संबंध जबलपुर से है |
उन्होने
वंही शिक्षा पायी और यही वे
पीठ मे शामिल हुए थे |
संभवतः
उन्होने अपनी छवि के लिए ऐसा
किया हो क्योंकि किसी भी
प्रकार का फैसला आने के बाद
खुसुर -
पुसुर
हो सकती थी |
अब
इस मामले से अलग हो जाने से
उनकी प्रतिष्ठा को कोई आंच
नहीं आएगी |
परंतु
वे सुनवाई के पूर्व भी अपने
को अलग कर सकते थे ?
परंतु
प्रारम्भिक आदेश देने के
उपरांत न्यायमूर्ति सप्रे
का अपने को सुनवाई से अलग करना
अनेक संदेह पैदा करता है |
इन
घटनाओ से संविधान के तीनों
अंगो के विकेन्द्रीकरण और
"””
संतुलन
एवं नियंत्रण "”
के
सिधान्त को धूल मे मिला दिया
है |
इन
घटनाओ से साफ है की कार्यपालिका
अर्थात सरकार विधायिका को तो
नियंत्रित करती ही है ----अपने
बहुमत के द्वारा |
परंतु
न्यायपालिका को प्रच्छन्न
रूप से नियंत्रित करने के ये
कुछ उदाहरण है |
अब
ऐसे मे लोकतन्त्र को बचाने
की ज़िम्मेदारी अंततः जनता पर
ही है |
इसी
तारतम्य मे मध्यप्रदेश की
विधान सभा द्वरा सवाल पुछे
जाने के विधायकों के अधिकार
को सीमित करने के संशोधन के
नितांत आलोकतांत्रिक निर्णय
का विरोध "”पत्रिका
के प्रधान संपादक श्री गुलाब
कोठारी जी ने किया समपादकीय
लिख कर और एक मुहिम द्वरा किया
जिसके – फलस्वरूप विधान सभा
स्पीकर सीता शरण शर्मा को
अपना फैसला बदलना पड़ा |
श्री
कोठारी ने राजस्थान मे वसुंधरा
राजे सरकार द्वरा ऐसे ही "”
काले
कानून लाये जाने की खिलाफत
भी मुहिम चला कर की थी |
परिणामस्वरूप
वसुंधरा सरकार को झुकना पड़ा
और उस "”काले
कानून को वापस लेना पड़ा !!!
वैसा
ही उनहोने मध्य प्रदेश मे
लोकतन्त्र की हिफाज़त के लिए
सफल प्रयास किया |
उन्होने
जनता से आग्रह किया की अपने
अधिकारो की स्वयं रक्षा के
लिए तैयार हो |
क्योंकि
सरकार जब अधिनायकवादी हो जाये
और संविधान और कानून -नियमो
की अनदेखी करने लगे तब जन मानस
ही उसका विरोध कर सकता है |
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