कंधे
- साइकल
और हाथठेला पर ले जाते शव –
बेशरम समाज
उड़ीसा
के कंधमाल के एक आदिवासी को
जब अपनी पत्नी का शव दस किलोमीटर
तक कंधे पर ले जाना पड़ा और दस
साल की बालिका झोला लिए रोती-रोती
चल रही थी वह फोटो देखकर सभी
सरकार की ह्रदय हीनता -अस्पताल
की लापरवाही को ही दोष देते
रहे | सत्तर
वर्ष की आयु मे यह मेरे लिए भी
पहला संयोग था |
पचास
साल के पत्रकारिता के अनुभव
मे भी --- समाज
के ऐसे निर्दयी चेहरे की मैंने
कल्पना भी नहीं की थी |
परंतु
सत्या यही है की ऐसा हुआ |
और
तकलिफ़देह बात है की अभी भी ऐसा
हो रहा है | शहडोल
मे भी एक आदिवासी को पत्नी का
शव साइकल पर बांध कर ले जाना
पड़ा | हाथठेला
पर पर लाश ले जाने की खबर
ग्वालियर छेत्र से आई थी |
सागर
के एक गाँव मे लोगो को शव की
दाह क्रिया के लिए कमर -
कमर
पानी मे चल कर जाना पड़ा |
क्योंकि
परंपरागत राह पर गाँव के दबंग
का कब्जा था |
भिंड
के पास एक गाँव मे दो नाबालिग
भाइयो को सड़क के किनारे ही बहन
को गाड़ना पड़ा --क्योंकि
शमशान की भूमि पर दबंगों का
कब्जा था |
इन
सभी घटनाओ मे प्रारम्भिक
ज़िम्मेदारी सरकार की ना होकर
उस समाज की बनती है जंहा ये
रहते है | क्योंकि
सदियो की सामाजिक और धार्मिक
परंपरा रही है की गाँव मे शोक
के अवसर पर सभी एकत्र हो कर
परिवार का संबल बनते थे |
दिलासा
देते थे | इलाके
के "”बड़े
और समर्थ "”
परिवार
गामी वाले घर को खाना भिजवाते
थे | प्रसिद्ध
कथाकार प्रेमचंद की कहानी
"”कफन
"” मे
भी ज़िक्र है |
वेदिक
धर्म मे शव को पूज्य माना गया
है भले वह चांडाल का ही हो |
अब इन
परम्पराओ के बावजूद समाज के
लोग इतने निर्मम हो गए की जाते
हुए शव के सम्मान मे सर झुकाने
के बजाय उसकी ''अनदेखी''
करे
| ?
आखिर
सरकार के पाहुचने से पूर्वा
उसके पड़ोसी और अन्य परिजन
कान्हा थे ? शायाद
इस सवाल का उत्तर जीवन शैली
के बदलाव मे है |
जंहा
पड़ोसी को यह नहीं मालों होता
की बगल मे कौन रहता है |
मिलने
- जुलने
के सभी सामाजिक सरोकार जैसे
खतम हो गए | इन
सभी उदाहरणो मे प्रभावित
व्यक्ति ''गरीबी
की रेखा के नीचे जीवन यापन
''करने
वाले थे | कंधमाल
मे बीमार महिला के इलाज़ के लिए
गाँव से उसके पति और बेटी के
अलावा कोई नहीं था |
आज के
''हानि
- लाभ''
नापने
वाले समय मे शायद परोपकार भी
बिकता होगा |
नहीं
तो शहरो मे इतनी धार्मिक
संस्थाए है --जो
शव को अंतिम संस्कार का "”सम्मान
"” दिला
सकती है | उन्के
पास धन और साधन की कमी नहीं
है | मंदिरो
-मस्जिदों
और गिरिजाघरों द्वारा इस ओर
पहल करने की आज सबसे ज्यादा
ज़रूरत है |
क्योंकि
जनम और मौत सभी की एक जैसी होती
है चाहे वह गरीब हो या अमीर |
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