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All Articles & Concept by:Vijay. K. Tewari

Sep 11, 2016

कंधे - साइकल और हाथठेला पर ले जाते शव – बेशरम समाज

कंधे - साइकल और हाथठेला पर ले जाते शव – बेशरम समाज

उड़ीसा के कंधमाल के एक आदिवासी को जब अपनी पत्नी का शव दस किलोमीटर तक कंधे पर ले जाना पड़ा और दस साल की बालिका झोला लिए रोती-रोती चल रही थी वह फोटो देखकर सभी सरकार की ह्रदय हीनता -अस्पताल की लापरवाही को ही दोष देते रहे | सत्तर वर्ष की आयु मे यह मेरे लिए भी पहला संयोग था | पचास साल के पत्रकारिता के अनुभव मे भी --- समाज के ऐसे निर्दयी चेहरे की मैंने कल्पना भी नहीं की थी | परंतु सत्या यही है की ऐसा हुआ | और तकलिफ़देह बात है की अभी भी ऐसा हो रहा है | शहडोल मे भी एक आदिवासी को पत्नी का शव साइकल पर बांध कर ले जाना पड़ा | हाथठेला पर पर लाश ले जाने की खबर ग्वालियर छेत्र से आई थी |

सागर के एक गाँव मे लोगो को शव की दाह क्रिया के लिए कमर - कमर पानी मे चल कर जाना पड़ा | क्योंकि परंपरागत राह पर गाँव के दबंग का कब्जा था | भिंड के पास एक गाँव मे दो नाबालिग भाइयो को सड़क के किनारे ही बहन को गाड़ना पड़ा --क्योंकि शमशान की भूमि पर दबंगों का कब्जा था |

इन सभी घटनाओ मे प्रारम्भिक ज़िम्मेदारी सरकार की ना होकर उस समाज की बनती है जंहा ये रहते है | क्योंकि सदियो की सामाजिक और धार्मिक परंपरा रही है की गाँव मे शोक के अवसर पर सभी एकत्र हो कर परिवार का संबल बनते थे | दिलासा देते थे | इलाके के "”बड़े और समर्थ "” परिवार गामी वाले घर को खाना भिजवाते थे | प्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद की कहानी "”कफन "” मे भी ज़िक्र है | वेदिक धर्म मे शव को पूज्य माना गया है भले वह चांडाल का ही हो | अब इन परम्पराओ के बावजूद समाज के लोग इतने निर्मम हो गए की जाते हुए शव के सम्मान मे सर झुकाने के बजाय उसकी ''अनदेखी'' करे | ?

आखिर सरकार के पाहुचने से पूर्वा उसके पड़ोसी और अन्य परिजन कान्हा थे ? शायाद इस सवाल का उत्तर जीवन शैली के बदलाव मे है | जंहा पड़ोसी को यह नहीं मालों होता की बगल मे कौन रहता है | मिलने - जुलने के सभी सामाजिक सरोकार जैसे खतम हो गए | इन सभी उदाहरणो मे प्रभावित व्यक्ति ''गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन ''करने वाले थे | कंधमाल मे बीमार महिला के इलाज़ के लिए गाँव से उसके पति और बेटी के अलावा कोई नहीं था | आज के ''हानि - लाभ'' नापने वाले समय मे शायद परोपकार भी बिकता होगा | नहीं तो शहरो मे इतनी धार्मिक संस्थाए है --जो शव को अंतिम संस्कार का "”सम्मान "” दिला सकती है | उन्के पास धन और साधन की कमी नहीं है | मंदिरो -मस्जिदों और गिरिजाघरों द्वारा इस ओर पहल करने की आज सबसे ज्यादा ज़रूरत है |


क्योंकि जनम और मौत सभी की एक जैसी होती है चाहे वह गरीब हो या अमीर

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