प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र क्या दिल्ली मे संभव हैं ?
आप पार्टी द्वारा दिल्ली विधान सभा चुनावो मे दूसरी बड़ी पार्टी केरूप मे उभार के आने के बाद भी , जिस प्रकार अलापमात की सरकार के गठन के लिए स्वयंभू जनमत संग्रह किया , उस से अनेक प्राशन खड़े हो गए हैं | सबसे पहला तो यह हैं की ''चुनाव'' किस हेतु सम्पन्न हुए थे और आप पार्टी ने किस भूमिका को निभाने के लिए इनमे भाग लिया था ?स्पष्ट हैं की सरकार गठन के लिए ही चुनाव कराये गए थे -क्योंकि वह संवैधानिक बाध्यता हैं | आप पार्टी ने भी सरकार के गठन के लिए ही इसमे भाग लिया था, अथवा सदन मे विपक्ष मे बैठने के लिए ?अब सवाल यह हैं की सबसे बड़ी पार्टी के रूप मे भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने से साफ माना कर दिया क्योंकि जनता ने उन्हे ''स्पष्ट बहुमत प्रदान नहीं किया | यद्यपि ज़िम्मेदारी उनकी ही बनती थी | परंतु काँग्रेस बहुमत के लिए उनका समर्थन नहीं कर सकती थी | अतः दूसरा विकल्प आप पार्टी का था | परंतु निर्वाचन की राजनीति मे पहली बार आयी इस पार्टी को शासन और सरकार का विरोध तो करने की कुशलता तो थी परंतु ""लोगो को किए गए वादो """ को पूरा कैसा किया जाएगा इसका ज्ञान नहीं था | जनता की निगाहों मे आप की साख बनी रहे इसके बारे मे उन्हे असमंजस था | शायद अपने संदेह को मिटाने और अपनी नव गठित पार्टी की ''साख''' बनाए रखने के लिए 1करोड़ 50 लाख मतदाताओ मे से कितने उनके पक्ष मे हैं , यह जानना उनके लिए ज़रूरी भी था | जो उन्होने किया |
परंतु उन्होने घोसणा की ''उनकी सरकार के सभी फैसले सार्वजनिक सभा मे लिए जाएँगे | अब सरकार के फैसले अधिकतर तो प्रशासन की सलाह पर ही किए जाते हैं | अतः क्या प्रशासन के भी सभी फैसले सभाओ मे किए जाएँगे , यह प्रश्न हैं ? क्योंकि अगर ऐसा किया गया तब तो ना तो Financial hand book and Rule of Buisness ""दोनों का पालन असंभव हो जाएगा फलस्वरूप कानून का शासन किस प्रकार संभव हो पाएगा कठिन हैं |क्योंकि ''जनता ''का समर्थन हर अधिकारी के लिए पाना कठिन होगा | फर्ज़ कीजिये पोलिक किसी अभियोगी को पकड़ के थाने मे लाती हैं और सौ लोगो की भीड़ उस अभियुक्त को रिहा करने का दबाव बनाते हैं तब अधिकारी क्या करेगा ?कानून का पालन अथवा जनता की मांग का सम्मान ? हरियाणा और मध्य प्रदेश के राजस्थान से सटे इलाक़ो मे जाति और धर्म के आधार पर ''साथ''' देने की पुरानी परंपरा हैं | अभी हाल मे मध्य प्रदेश मे एक थाने मे पारदी जाती के व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उसके जाती वालों ने थाने को घेर लिया | स्थिति इतनी बिगड़ गयी की अफसर को अभियुक्त को छोडना पड़ा | बाद मे बल के आने पर उसके निवास पर छापा मार कर उपद्रवियों को बंदी बनाया गया | अगर आप पार्टी की सरकार ऐसे मे भीड़ का साथ देती हैं तब वह कानून का उल्लंघन करती हैं
और ऐसा न करने पर उसकी ""टेक"" की पब्लिक सब जानती हैं ---की अवहेलना होती हैं |
प्रशासनिक फैसले अधिकतर सरकार की सहमति से अफसरो द्वारा लिए जाते हैं | विधि निर्माण के लिए--जनता के सामने जाना समझ मे आता हैं , परंतु प्रशासन के निर्णयो के लिए बहुमत नहीं वरन स्पष्ट मत की ज़रूरत होती हैं | अनेक उत्साही लोग सोश्ल मीडिया और काफी हाउस आदि मे यह कहते सुने जाते हैं की ""सभी फैसले हमारी सहमति से हो """ तभी तो वास्तविक प्रजातन्त्र आएगा | प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र --अर्थात शासन के हर फैसले पर जनता का बहुमत ''अनिवार्य '' हो | यह स्थिति काफी कल्पनाशील और लोक लुभावन तो हो सकती हैं , परंतु >संभव क़तई नहीं हैं | दुनिया मे दो ही स्थान हैं जनहा यह प्रणाली आज भी जारी हैं | दोनों ही स्थान स्विट्ज़रलैंड मे हैं | अब वनहा की व्यसथा को समझना जरूरी हैं | स्विट्ज़रलैंड कुल 26 कैन्टन अर्थात प्रशासनिक इकाइया हैं | जिनसे मिलकर वनहा का ""संघ"" बना हैं है | यह इकाइया एक तरह से प्रदेश हैं | इनमे INNERHAUM AND GLARUS इनमे पहले का छेत्रफल 137 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 15717 हैं जबकि दूसरे की जनसंख्या 39369 और सौ वर्ग किलो मिटर से कम का छेत्रफल हैं | यह प्रथा इन दोनों स्थानो मे 14 वी शताब्दी से चली आ रही हैं | वनहा के शेष 24 कंटन मे गोपनीय मताधिकार द्वारा निरण्य किए जाते हैं | अब केजरीवाल द्वारा 1.50 करोड़ मतदाताओ
मे जनमत संग्रह कितना वास्तविक होगा कहना मुश्किल हैं |
एक दैनिक समाचार पत्र ने इस मुद्दे पर विशेस सामाग्री प्रकाशित की | जिसमे उल्लिखित बारह मुद्दो पर जनमत संग्रह का सुझाव था | उसमे चीन -पाकिस्तान के साथ के साथ कैसे संबंध हो और सी बी आई स्वतंत्र आगेकी बने या नहीं जैसे मसलो पर आम राय लेने का सुझाव तह | क्या हम यह स्वीकार कर ले विदेश नीति को आम मतदाता ठीक से जानता हैं ? क्या वह उन सीमाओ को भी जानता हैं जिनके भीतर रहकर किसी भी देश को काम करना होता हैं ? क्या सभी मतदाताओ को संविधान की सीमाए मालूम हैं ?क्योंकि सरकार और प्रशासन इनहि सीमाओ मे रहकर ही किया जाता हैं | क्या सभी मतदाताओ को मालूम हैं की """ असंवैधानिक'' कौन कृत्य होगा और उसे कौन परिभासित करनेवाली संस्था हैं ? मेरी समझ से इन सभी बारीकियों को समझने वाले कुछ लाख लोग ही देश मे होंगे | अब ऐसे संवेदनशील मुद्दो पर कोई भी '''भड़काऊ भासण देकर जनभवना को गलत दिशा मे मोड सकता हैं | जो देश को युद्ध अथवा विघटनकारी घटना का भागीदार बना सकता हैं |एक्सपेर्ट रॉय के युग मे हम अगर आम आदमी से विशेष मुद्दे पर मत लेगे तो वह सही नहीं होगा | क्योंकि वह उस स्थिति के लिए तैयार नहीं हैं | किसी भी मिल मे मजदूर से लेकर अनेक श्रेणियों मे कार्य विभाजित रहता हैं | अब सभी को उनकी योग्यता के अनुसार ही काम दिया जाता हैं , एक का काम दूसरा नहीं कर पाएगा | बस यही वह ''सीमा'' हैं जो फर्क करती हैं | उन मुद्दो पर सभी से रॉय ली जा सकती हैं जिसका परिणाम उन्हे प्रभावित करता हो --जैसे लड़के --लड़की मे शारीरिक संबद्ध की क्या उम्र होनी चाहिए | सरकारी और निजी स्कूलो की फीस मे कितना अंतर मान्य होना चाहिए ---- समलैंगिकता को मान्य होना चाहिए या नहीं ? जनमत संग्रह की व्यसथा अभी भी हमारे संविधान मे हैं | परंतु वह विधि निर्माण तक ही सीमित हैं | सरकार या प्रशासन के मसलो पर नहीं | अतः जनमत संग्रह सबको संतुष्ट करने की औषधि नहीं हैं | वास्तविकता तो यह हैं हैं की """परमात्मा भी सभी को संतुष्ट नहीं कर सके """ तो हम क्या कर सकेंगे |
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Dec 22, 2013
Dec 18, 2013
अब अल्पमत और बहुमत नहीं बल्कि सर्व-मत की ज़िद्द हैं -राजनीति मे
अब अल्प्मत और बहुमत नहीं बल्कि सर्व-मत की ज़िद्द हैं -राजनीति मे
जिन देशो मे सरकार चुनने का हक़ जनता -जनार्दन के पास होता हैं उसे ही व्याहरिक उद्देस्यों के लिए प्रजातन्त्र या जनतंत्र मानते हैं | मसलन ब्रिटेन जहा तकनीकी रूप से राजशाही हैं लेकिन सरकार चुनने का अधिकार जनता के पास हैं -राजा के पास नहीं | ऐसे ही एक राष्ट्र हैं थाईलैन्ड वहा भी यही स्थिति हैं | बहुमत द्वारा सरकार का गठन ही जनतंत्र का आधार है , परंतु विपक्ष सदन मे बैठ कर दायित्व निर्वहन के बजाय अगर सड़क पर प्रदर्शन और हिंसात्मक तरीके से सरकार को हटाने का प्रयास करे अथवा अपनी मांगे मनवाने का प्रयास करे तो उसे क्या कहेंगे ? लोकतन्त्र या भीडतन्त्र ? अब चाहे यह वाक्य दिल्ली का हो या बैंकॉक या काठमांडू का अथवा ढाका का क्योंकि इन सभी स्थानो पर सरकार अथवा बहुमत का विरोध सदको पर हो रहा हैं -वह भी चुनाव के उपरांत ! हैं न अजीब बात , परंतु सत्य हैं |
थायलैंड मे शिंवात्रा की चुनी हुई सरकार के विरोध मे राजधानी बैंकॉक मे लगभग दो लाख लोगो ने सदको पर घोर प्रदर्शन किया जिसमे उन्होने गड़िया भी फूंकी और पुलिस मुख्यलाय को भी घेरा तथा पहले उनकी मांग थी की प्रधान मंत्री शिंवात्रा इस्तीफा दे कर चुनाव कराएं | कई डीनो के विरोध प्रदर्शन के उपरांत शिनवात्रा ने चुनाव करने की घोसना की | परंतु प्रदर्शन कारी इस मांग से संतुष्ट नहीं हुए , उन्होने नई मांग राखी की चुनाव एक गैर निर्वाचित निकाय की देखरेख मे कराये जाये जिस से निसपक्ष चुनाव सम्पन्न हो सके | यानहा सवाल उठता हैं की जब विगत निर्वाचन के परिणाम स्वरूप सरकार का गठन हुआ तब क्यो विरोधी डालो ने उसे स्वीकार किया ? फिर गैर निर्वाचित निकाय का प्रजातन्त्र मे क्या स्थान हैं ? परंतु नहीं वनहा गुथी अभी भी नहीं सुलझी हैं |
कुछ ऐसा ही माहौल पड़ोसी देश बंगला देश मे भी बना हुआ हैं | प्रधान मंत्री शेख हसीना की सरकार ने चुनाव करने की प्रक्रिया शुरू की --तब भी विरोधी दल आरोप लगाते रहे , मीरपुर के कसाई मुल्लाह को वार ट्राइबुनल ने फांसी की सज़ा सुनाई और उन्हेफांसी की सज़ा दे दी गयी | जिस को लेकर मीरपुर सिल्हट आदि मे काफी हिंसात्मक घटनाए हुई , पुलिस ने शांति स्थापित करने के लिए गोली चलायी लोग मारे गए | जिसके बाद तो फिर वही मांग दुहराई गयी की चुनाव किसी गैर निर्वाचित निकाय की अधीनता मे सम्पन्न हो | एक बार वनहा प्रधान न्यायादीष की आद्यक्षता मे चुनाव कराये गए थे - जिसमे शेख हसीना की अवामी पार्टी को बहुमत मिला था | इस बार चूंकि निर्वाचन प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी इसलिए विरोधी डालो की मांग को मंजूर करना संभव नहीं था | परिणाम स्वरूप उन्होने चुनाव के बहिसकार की घोसना करते हुए अपने को जन तांत्रिक प्रक्रिया से अलग कर लिया फलस्वरूप अवामी पार्टी के गठबंधन के उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित घोसित किए गए | अब इसका क्या परिणाम होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा |
तीसरा उदाहरण नेपाल का हैं -जहा पिछली बार की सत्तारूद पार्टी माओवादियो को करारी पराज्य का सामना करना पड़ा | राजशाही के अंत के उपरांत सरकार बनाकर संविधान निर्माण की प्रक्रिया सालो चली फिर चुनाव हुए , जिसमे ''प्रचंड'' तो पराजित हुए काठमाण्डू से और उनकी पार्टी हारी सारे नेपाल मे !अब हताश प्रचंड आरोप लगा रहे हैं की चुनव मे धांधली हुई है | परंतु जब उनकी बातों को उनसुना किया गया तब उन्होने फिर से हथियार उठाने की धम्की दी | जब उसपर भी किसी ने कोई परवाह नहीं की तब उन्होने नया राग अलापा की ""राष्ट्रिय सरकार बनाई जाये जिसमे उनकी पार्टी को भी हिस्सा दिया जाये | सीधा सा उनका मतलब था की शासन की प्रक्रिया मे उन्हे शामिल करें | सवाल हैं जब आपको और आपकी पार्टी को जनता ने नकार दिया तब किस आधार पर सरकार मे आपकी भागीदारी हो ? परंतु नहीं ज़िद्द हैं की हुमे भी सरकार मे लो |
इन तीन घटनाओ से प्रजातन्त्र मे निर्वाचन के परिणामो को व्यर्थ करने का प्रयास ही हैं | एक दल के रूप आप को चुनाव मे सफलता नहीं मिली तब आप को विपुक्ष मे बैठना होता हैं | चुनाव मे सफल होने का मतलब तुरंत सरकार मे भागीदारी नहीं होती | उसके लिए ""बहुमत"" चाहिए , जैसे मतदाता के बहुमत से प्रतिनिधि चुने जाते हैं वैसे ही बहुमत से ही सरकार बनती हैं | जिस प्रकार पराजित प्रत्याशी घर बैठता हैं वैसे ही अल्पमत की पार्टी सरकार से बाहर रहती हैं ----यही प्रजातन्त्र हैं | परंतु अब राजनीतिक दलो मे इतना धैर्य नहीं बचा की वे शासन से बाहर रह कर राजनीति करें | दिल्ली मे अरविंद केजरीवाल की पार्टी को बहुमत प्रपट नहीं हैं | ऐसे मे आम तौर पर गठबंधन की सरकार बनाई जाती हैं | परंतु राजनीति मे ""आप"" पार्टी सभी दूसरी पार्टियो को ""अछूत"" मानती हैं इसी लिए कहती हैं '''न हम किसी से समर्थन लेंगे न देंगे """ | अब उन्होने सरकार गठन के सवाल पर 25 लाख लोगो की रोयशुमारी करने का फैसला किया हैं | यह प्रक्रिया सरकार द्वारा तब की जाती हैं जब किसी मुद्दे पर जो विवादित हो उस पर जनता की प्रतिकृया ली जाती हैं | सरकार के गठन के लिए चुनाव हुए तब फिर किस बात की रॉय ले रहे हैं ? उनके अनुसार वे काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को मतदाताओ के सामने एक्सपोज करना चाहते हैं | अर्थात वे यह बताना चाहते हैं की वे ही ""ईमानदार और श्रेस्थ हैं """ परंतु उनसे अधिक स्थान विधान सभा मे भारतीय जनता पार्टी को मिला हैं ,जो यह साबित करता हैं की आप पार्टी से ज्यादा लोकप्रियता उनकी हैं | इस सत्या को वे शायद मंजूर नहीं कर प रहे हैं | यही हैं अल्पमत की दादागिरी !
Dec 14, 2013
सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का परिणाम हैं शिवराज की तीसरी ताजपोशी
सामाजिक सरोकारों को पूरा करने का परिणाम हैं शिवराज की तीसरी ताजपोशी
वैसे तो चुनाव राजनैतिक मुद्दो और कार्यक्रम पर लड़े जाते हैं, परंतु प्रदेश मे मुख्य मंत्री शिवराज सिंह की तीसरी पारी का राज --उनके द्वारा सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता देने का परिणाम हैं | मेरी समझ से तो उनकी विजय का सबसे बड़ा श्रेय गरीब कन्याओ का विवाह और उनकी लाड़ली लक्ष्मी योजना को जाता हैं , जिसके कारण ग्रामीण और शहरी मतदाताओ मे उनकी छवि एक उदार और संवेदन शील शासक की उभरी | अभी तक राजनीतिक छेत्रों मे यह धारणा थी की ""विकास"" ही चुनाव मे मुद्दा होता हैं | परंतु सड़क - बिजली -पानी से भी बड़ा मुद्दा होता हैं की "'पंक्ति का अंतिम व्यक्ति की प्रथमिकताए क्या हैं , वह सामाजिक और आर्थिक रूप से किन अभावो से पीड़ित रहता हैं , उनको दूर करने मे शासन कितना सजग और सहायक हैं | कन्याओ के हितो के लिए चलायी गयी योजनाओ की सफलता से ही उन्हे ""मामा"" कहा जाने लगा हैं | वैसे भी वेदिक संसक्राति मे मामा की विशेस महता हैं , माता के बाद पिता के बाद मामा ही सहायक - रक्षक माना गया हैं | कन्या के जनम पर उसके विवाह के लिए एक लाख रुपये की फ़िक्स्ड डिपॉज़िट जो उसे वयस्क होने पर मिलेगा तथा स्कूल के लिए ड्रेस और आने -जाने के लिए साइकल ने वास्तव मे ग्रामीण छेत्र मे एक नव जागरण किया हैं |
ग्राम मे सड़क हैं या नहीं बिजली आती हैं अथवा गायब रहती हैं इसका बहुत ज्यादा अथवा निर्णायक महत्व नहीं हैं |परंतु व्यक्ति और परिवार के अभाव से झुझते रहने के बाद भी उससे यह अपेक्षा रहती हैं की वह सामाजिक दायित्वों को ज़रूर पूरा करे | इसमे सबसे पहला होता हैं लड़की की शादी | लड़के की शादी बड़ी बात नहीं हैं जिन छेत्रों या जातियो मे लड़के कुँवारे रह जाते हैं वनहा भी कारण लड़की को जन्म के समय मार देने की परंपरा का ही हैं |फलस्वरूप लिंग अनुपात बहुत विषम हो जाता हैं |
2003 मे भारतीय जनता पार्टी के चुनाव मे विजयी होने पर लाल कृष्ण आडवाणी ने टिप्पणी की थी की " लोगो से जब मैंने पूछा की भाई काँग्रेस की हार क्यो हुई और हम कैसे जीते ? तब लोगो ने कहा था बी एस पी , मेरी समझ मे नहीं आया की कैसे बहुजन समाज पार्टी हमारी विजय का कारण बन सकती हैं ? तब मुझे बताया गया की बी - का मतलब हैं बिजली और एस -का मतलब हैं सड़क और पी का अर्थ हैं पानी , अर्थात इन तीनों ही फ्रंट पर दिग्विजय सिंह सरकार बुरी तरह से असफल रही हैं इसी लिए भ जा प की जीत हुई हैं | तब की गयी यह टिप्पणी इस बार भी मौंजू हैं , विगत दस सालो मे प्रदेश मे विद्युत की आपूर्ति काफी संतोसजनक रही हैं , सिये कुछ ट्रान्स्फ़ोर्मर और लाइन की गड़बड़ी के | चाहे गाँव हो या शहर विद्युत की आपूर्ति से लोगो को शिकायत नहीं हैं ,यूं तो वोल्टेज अथवा बिजली ठप होने की छिटपुट शिकायते रही हैं | जंहा तक सड़क का मामला हैं तो बड़े - बड़े शहरो को जोड़ने वाली सभी सड़के बी ओ टी द्वारा चलायी जाने के कारण काफी ठीक हालत मे हैं जिस से आवागमन बड़ा हैं अब सड़क पर ट्रैक्टर की संख्या संख्या मे बदोतरी हुई हैं , जिनहे किसान फसल के अलावा माल धो कर अपनी किश्त निकाल रहे हैं | पानी की समस्या का समाधान भी बारगी बांध का पानी इस बार से किसानो को सिंचाई के लिए सुलभ हो गया क्योंकि नहरों का निर्माण हो गया | कैसी विडम्बना हैं की बीस वर्ष से बने हुए इस बांध की नहरों का निर्माण काँग्रेस सरकारो द्वारा नहीं कराया गया |
वैसे मध्य प्रदेश मे यह पहला मौका हैं की जब एक व्यक्ति ने तीसरी बार मुख्य मंत्री का पद सम्हाला हैं | यह चमत्कार ''व्यक्ति और संगठन की शक्ति के साथ ही किए गए ""जन कलयाणकारी "" कार्यो के फलस्वरूप ही मिली हैं | यह सफलता न तो चुनावी ELECTION MANAGEMENT" की हैं ना ही जोड़ - तोड़ कर वोट घेरने की | इस सफलता से बहुत से खुर्राट नेताओ के दिमाग के जाले साफ हो जाएँगे | क्योंकि दो बार मुख्य मंत्री बनने के बाद ''राजनीति के पंडित'' बने इन स्वमभू महानुभावों को आज प्रदेश की जनता फूटी आंखो भी नहीं देखना चाहती हैं | शिवराज की तीसरी ताजपोशी ने शासन की प्राथमिकताओ --राजनीतिक छवि --और चुनाव लड़ने के तरीके के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं |
Dec 1, 2013
आरोपो के घेरे मे न्यायाधीश
आरोपो के घेरे मे न्यायाधीश
यूं तो अक्सर ही अदालतों मे व्याप्त भ्रस्टाचार के किस्से कहानिया गली चौराहो मे सुनने को मिल जाते हैं , परंतु जैसा की होता हैं की पुलिस को लाख गाली देते हो पर जब कोई बात होती हैं तब पहुँचते थाने ही हैं | फिर भले ही वह रिपोर्ट लिखने के लिए चार -पाँच सौ रुपये निकल जाये | पर जाते तो वंही हैं | उसी प्रकार हर अत्याचार या ज्यादती के खिलाफ लोग अदालत की शरण मे ही जाते हैं , फिर भले ही वंहा अहलकार - पेशकार और वकील साहब धीरे - धीरे नोट निकलवाते जाये | पर न्याया पाने की आशा मे वह लुटता रहता हैं | सिर्फ एक उम्मीद पर की '''जज''' साहब दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे |
उस भले मानुष को क्या मालूम की आज के बाजरवाद की दुनिया मे सब कुछ बिकाऊ हैं , यहा तक की '''इंसाफ''' की भी बोली लगती हैं | कई बार एक जैसे मामलो मे अलग - अलग प्रकार का फैसला होना अथवा गरीब को हथकड़ी और धन पशु या दबंग आरोपी को पुलिस बड़े आराम से ले जाती हैं | तब लगता हैं की कानून भी बिकता हैं | अब बात करे न्याया धीशों की , अभी -अभी सूप्रीम कोर्ट के जज गांगुली साहब पर एक ट्रेनी वकील ने यौन शोषण का आरोप लगाया | सूप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने तीन जजो की समिति छानबीन के लिए बना दी |अब महिला संगठनो ने तो तुरंत जज साहब के खिलाफ पुलिस मे रिपोर्ट लिखा कर कारवाई करने की मांग की | मतलब उनकी गिरफ्तारी की ....| जबकि पूर्वा न्यायाधीश आलतमस कबीर साहब ने ट्रेनी वकील के आरोप को बेबुनियाद करार दिया | पेंच इस मामले यह हैं की 2जी स्पेकट्रूम के फैसले मे गांगुली जी ने उद्योग घरानो के खिलाफ फैसला दिया था , उन्होने अन्य मामलो मे भी बड़े - बड़े लोगो के हितो के खिलाफ फैसला दिया था | अब यह शक हो रहा हैं की जज के अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्हे नीचा दिखने की यह कारवाई तो नहीं हैं ? आज के माहौल मे इस को खारिज भी नहीं किया जा सकता | लेवकिन फिलवक्त तो जज साहब आरोपो के घेरे मे आ गए या लाये गए यही सवाल हैं ?
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