उनकी हंसी जो सरकार के गले में फंसी -अदालती टिंप्प्णी
हाल में ही सूप्रीम कोर्ट की टिप्पणियॉ ने सरकार की साख पर प्रश्न चिन्ह सा लग गया | फैसला तो कुछ हुआ नहीं था , इसलिए कोई स्थायी नुकसान नहीं हुआ , पर लोगो को चटखारे ले कर बात बनाने का मुद्दा मिल गया | वैसे अदालतों की कटूक्तियों से सरकारे पहले भी '''झटके '''खाती रही हैं , यह सिलसिला नया नहीं हैं | छटे दशक में इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायधीश आनद नारायण मुल्ला ने एक फैसले मैं उत्तर प्रदेश पुलिस को डकैतो और गुंडो का गिरोह बता दिया था | सरकार को सूप्रीम कोर्ट जा कर इस टिप्पणी को खारिज कराया था | अस्सी के दशक मैं मध्य प्रदेश सरकार ने शराब की आसवनियों को ठेके पर देने का मंत्रिमंडलीय फैसला हुआ ,था | जिसे अदालत मैं चुनौती दी गयी | हाइ कोर्ट ने अपने फैसले मैं टिप्पणी की जो तत्कालीन मुख्य मंत्री के मकान के बारे मैं कहा गया की वे राष्ट्र को इस बारे मैं स्पस्टिकरण दे की यह आलीशान निवास उन्होने कैसे बनाया ? अब इस फैसलो को भी सूप्रीम कोर्ट मैं रिवियू के लिए पेश किया गया | जिसने हाईकोटृ को ताकीद दी की सुनवाई के दौरान अनावस्यक टिप्पणियॉ से सुनवाई के दौरान बचा जाये , यह कहते हुए टिप्पणियॉ को फैसले से हटाने का आदेश दिया |
तो यह थी अदालती टिप्पणियॉ की दास्तान | सूप्रीम कोर्ट मैं जस्टिस काटजू ने अपने कार्यकाल के दौरान अनेकों ऐसे फैसले दिये जो लीक से काफी हट के थे |जिन पर थोड़ा विवाद भी हुआ | उसी तारतम्य में यह '''तोता वाली ''टिप्पणी को भी लिया जाना चाहिए | क्योंकि अदालत की यह बात उसके फैसले का भाग नहीं हैं ,वरन कारवाही का हिस्सा ''भर''ही हैं | लेकिन संदर्भ से निकाल कर पेश करने की मीडिया की आदत काफी पुरानी हैं | वैसे खुस्क अदालती निरण्य खबर नहीं बन पाते हैं , जब ताक़ उनमे कुछ मिर्च --मसाला न मिलाया जाये , क्योंकि इन्ही हैड लाइंस को आवाज लगाकर हाकर सड्को पर अखबार बेचते हैं |
अब इस संदर्भ में अगर हम सूप्रीम कोर्ट के न्यायाधीस की टीका को देखे तो यही कह सकते की यह उनकी चिंता को दर्शाता हैं , उनका कोई इरादा सी बी आइ को बेइज़्ज़त करना नहीं था | क्योंकि अदालत ने खुद ही गुजरात के दंगो के मामले मैं ,तथा 2जी की जांच हो सभी महत्वपूर्ण मामलो मैं सी बी आइ को ही जांच का जिम्मा दिया जो इस एजेंसी के प्रति उनके विश्वाश को रेखांकित करता हैं |
वैसे अनेकों बार अदालत द्वारा किए गए आबिटरडिक्टा के कारण भले संदेश भी दिये जाते हैं | हाल ही में एक महिला प्र ताड़ना के मसले पर सूप्रीम कोर्ट ने कहा '''बहुओ को घर की नौकरानी नहीं वरन शोभा समझना चाहिए ''' अब इस सलाह को अखबारो की सुर्खी नहीं मिली क्योंकि यह '''उपदेश'' समाज के बुजुर्ग और परिवार के लोग अक्सर देते रहते हैं ,यंहा तक की अब तो धर्म के गुरुओ ने भी प्रवचनों में कहना शुरू कर दिया हैं | पर बहुओ की प्रताड़णा क्या बंद हुई ? जवाब हैं ''जी नहीं ''..........
हाल में ही सूप्रीम कोर्ट की टिप्पणियॉ ने सरकार की साख पर प्रश्न चिन्ह सा लग गया | फैसला तो कुछ हुआ नहीं था , इसलिए कोई स्थायी नुकसान नहीं हुआ , पर लोगो को चटखारे ले कर बात बनाने का मुद्दा मिल गया | वैसे अदालतों की कटूक्तियों से सरकारे पहले भी '''झटके '''खाती रही हैं , यह सिलसिला नया नहीं हैं | छटे दशक में इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायधीश आनद नारायण मुल्ला ने एक फैसले मैं उत्तर प्रदेश पुलिस को डकैतो और गुंडो का गिरोह बता दिया था | सरकार को सूप्रीम कोर्ट जा कर इस टिप्पणी को खारिज कराया था | अस्सी के दशक मैं मध्य प्रदेश सरकार ने शराब की आसवनियों को ठेके पर देने का मंत्रिमंडलीय फैसला हुआ ,था | जिसे अदालत मैं चुनौती दी गयी | हाइ कोर्ट ने अपने फैसले मैं टिप्पणी की जो तत्कालीन मुख्य मंत्री के मकान के बारे मैं कहा गया की वे राष्ट्र को इस बारे मैं स्पस्टिकरण दे की यह आलीशान निवास उन्होने कैसे बनाया ? अब इस फैसलो को भी सूप्रीम कोर्ट मैं रिवियू के लिए पेश किया गया | जिसने हाईकोटृ को ताकीद दी की सुनवाई के दौरान अनावस्यक टिप्पणियॉ से सुनवाई के दौरान बचा जाये , यह कहते हुए टिप्पणियॉ को फैसले से हटाने का आदेश दिया |
तो यह थी अदालती टिप्पणियॉ की दास्तान | सूप्रीम कोर्ट मैं जस्टिस काटजू ने अपने कार्यकाल के दौरान अनेकों ऐसे फैसले दिये जो लीक से काफी हट के थे |जिन पर थोड़ा विवाद भी हुआ | उसी तारतम्य में यह '''तोता वाली ''टिप्पणी को भी लिया जाना चाहिए | क्योंकि अदालत की यह बात उसके फैसले का भाग नहीं हैं ,वरन कारवाही का हिस्सा ''भर''ही हैं | लेकिन संदर्भ से निकाल कर पेश करने की मीडिया की आदत काफी पुरानी हैं | वैसे खुस्क अदालती निरण्य खबर नहीं बन पाते हैं , जब ताक़ उनमे कुछ मिर्च --मसाला न मिलाया जाये , क्योंकि इन्ही हैड लाइंस को आवाज लगाकर हाकर सड्को पर अखबार बेचते हैं |
अब इस संदर्भ में अगर हम सूप्रीम कोर्ट के न्यायाधीस की टीका को देखे तो यही कह सकते की यह उनकी चिंता को दर्शाता हैं , उनका कोई इरादा सी बी आइ को बेइज़्ज़त करना नहीं था | क्योंकि अदालत ने खुद ही गुजरात के दंगो के मामले मैं ,तथा 2जी की जांच हो सभी महत्वपूर्ण मामलो मैं सी बी आइ को ही जांच का जिम्मा दिया जो इस एजेंसी के प्रति उनके विश्वाश को रेखांकित करता हैं |
वैसे अनेकों बार अदालत द्वारा किए गए आबिटरडिक्टा के कारण भले संदेश भी दिये जाते हैं | हाल ही में एक महिला प्र ताड़ना के मसले पर सूप्रीम कोर्ट ने कहा '''बहुओ को घर की नौकरानी नहीं वरन शोभा समझना चाहिए ''' अब इस सलाह को अखबारो की सुर्खी नहीं मिली क्योंकि यह '''उपदेश'' समाज के बुजुर्ग और परिवार के लोग अक्सर देते रहते हैं ,यंहा तक की अब तो धर्म के गुरुओ ने भी प्रवचनों में कहना शुरू कर दिया हैं | पर बहुओ की प्रताड़णा क्या बंद हुई ? जवाब हैं ''जी नहीं ''..........
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