जेल भरी है ,अपराधियो से नहीं -आरोपियों से कौन जिम्मेदार है ?
कानून का राज़ यानि की संविधान के अनुसार देश का राजकाज
चलना चाहिए – पर आज हक़ीक़त इसके विपरीत हैं
|कुछ हद तक देश की जांच एजेंसिया जिम्मेदार हैं , जो आरोप लगाने के लिए कोई प्रारम्भिक पुख्ता कारवाई नहीं करती है , बिना सबूतो के सिर्फ रपट लिख कर ही वे किसी को भी हथकड़ी डालकर , दुनिया के सामने अपराधी घोसीट कर देती हैं | मीडिया में भी जांच एजेंसियो द्वारा की गयी गिरफ्तारी
की कारवाई को ज़ोर – शोर द्वारा अंजाम दिया जाता हैं |अब ऐसे व्यक्ति की सामाजिक
इज्ज़त का तो फ़ालूदा उसे हिरासत में लिए जाने से ही हो जाता हैं , क्यूंकी अखबार और टीवी के लिए तो यह एक ‘’और आइटम होता है -परंतु जो कानून के जाल में फँसता है –उसकी इज्ज़त -और उसके
परिवार जनो की पीड़ा को समाज के सदस्य नहीं समझ पाते हैं |
कानुनन पुलिस हो या सीआईडी या फिर केंद्र की सीबीआई हो
या एन आई ए हो सभी की कारवाई का यही हाल हैं
| इन भारी भरकम अमले और अफसरो के वज़न वाली संसथाओ का
सफलता प्रतिशत इनके वजूद और करोड़ो रुपये के खर्चे को को – नकारता हैं !
बॉक्स
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आजकल इन एजेंसियो में एक और “”हाथ जुड़ गया हैं – ई डी यानि की हिन्दी में प्रवर्तन
निदेशालय ! आजकल बड़े – बड़े नेताओ के लिए सरकार
का यही हाथ मुफीद साबित हो रहा हैं | आरोप लगाने भर के लिए ही ! वैसे इनके मुकदमे सालो
चलते हैं | हालत यह हैं की अनेकों
बार अदालतों ने इन्हे आरोप पत्र दाखिल करने
में विलंब और अपूर्णता के लिए फटकार भी लगाई हैं ---पर हुक्मरानो के इशारो पर कारवाई में बस गिरफ्तारी
ही होती हैं -विवेचना तो सालो चलती हैं | और अभी सुप्रीम कोर्ट की तीन जजो की पीठ ने इन्हे
और जबर बना दिया हैं | जिसमें कहा गया हैं की ई डी की “”बिना वजह बताए गिरफ्तारी और बिना प्राथमिकी दायर किए बगैर कारवाई कानून सम्मत हैं !! एक ओर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला हैं ---जिसके अनुसार बिना कारण और -सबूत के गिरफ्तारी नागरिक की आज़ादी का हनन हैं – और हर नागरिक को जमानत
का अधिकार हैं | वनही बिना सबूत और प्राथमिकी के ढ़ोल -धमाके के साथ गैर बीजेपी नेताओ की गिरफ्तारी हो रही हैं |
अब ऐसे में यह न्यायिक विरोधाभास लोगो को सोचने पर मजबूर करता हैं --- की आम नागरिक
की आज़ादी संविधान के अनुसार उचित है या ईडी की कारवाई ! यह एक उदाहरण
हैं की देश में “”विधि का राज् हैं या विधि द्वारा राज़ है
? “” सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज जनहा संविधान को सर्वोच्च मानते हुए नागरिक की रक्षा के
पछधर हैं वनही उनके कुछ “”ब्रदर “” राज्य के कानून
के अनुसार शासन को महत्व दे रहे हैं | हाँ एक बात और इन जांच एजेंसियो की “”योगयता “” को
इस तथ्य से भी नापा जा सकता हैं की की हर मामले में “” उनका कहना होता हैं की आरोपी जांच की कारवाई में सहयोग नहीं कर रहा हैं !! मतलब
यह की आरोपी को चाहिए की वह जांच एजेंसियो को अपने खिलाफ सबूत इन अधिकारियों को उपलब्ध कराये !! जबकि देश के कानुन के अनुसार किसी भी आरोपी को स्वयं
के खिलाफ गवाही या सबूत देने के लिए कानुनन नजबूर नहीं किया जा सकता ! ऐसे जांच अधिकारियों के लिए तो “”निर्देशानुसार
“ आरोप लगाने के बाद आरोपी को ही खुद अपने वीरुध सबूत मुहैया करना चाहिए ! हैं न मजे की बात |
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---------- अब इन हालातो में केंद्र सरकार भी इन
एजेंसियो के माध्यम से विरोधी दलो के नेताओ
को ही अपना निशाना बना रही हैं | एक भी सत्तारूड दल का सदस्य अथवा किसी बड़े व्यापारी
या उद्योगपति के वीरुध ना तो कोई छापा
पड़ा और ना ही कोई गिरफ्तारी हुई ! क्या बैंको से अरबों – खरबो का क़र्ज़ लेकर
“”डिफाल्टर”” होने लायक कर्ज़ो के लिए कोई कारवाई सरकार नहीं कर सकती ? एक ओर घर बनाने के लिए गए क़र्ज़ की बकाया वसूली के लिए तो अखबारो में एक -एक पेज़
की बैंक नोटिस छपती हैं , वनही अरबों रुपये के क़र्ज़ की किशते नहीं चुकाने वाले उद्योगपतियों के कर्जे की सूचना भी सरकार “”ज़ाहिर “” नहीं होने
देती ! आखिर यह हालत न्याय के सामने सभी नागरिकों
के बराबर होने का खुला उल्लंघन ही तो हैं | अफसोस यह हैं की सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस रुख
को कानून सम्मत बता देती हैं | यह कैसा न्याय है – इसे तो “”मत्स्य न्याय “” ही
कहा जा सकता हैं |
हाल ही में में
सुप्रीम कोर्ट द्वरा जमानत और विचाराधीन बंदियो को लेकर दिये गए फैसले राज्य सरकारो और
ज़िला न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा
रहे हैं | आंकड़ो के अनुसार देश की जेलो में कुल 4.84 लाख
बंदी हैं ,जिनमें सजायाफ्ता
कुल 1.12 लाख ही हैं शेष 3.71 लाख हवालाती या विचारधीन बंदी हैं !
यह स्थिति एक ओर अपराध की जांच
एजेंसियो की कार्यप्रणाली पर सवाल उठती हैं वनही ज़िला स्टार पर न्यायिक अधिकारियों की छंमता और योग्यता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती हैं | सुप्रीम कोर्ट के तीन जजो की पीठ ने हाल ही में
एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया की जमानत हर
नागरिक का अधिकार हैं , जब तक कोई विशेस
तथ्य नहीं हो जमानत की मनाही अधीनस्थ अदालतों द्वरा नहीं किया जाना चाहिए | संविधान के अनुसार हाइ कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
“” कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड “” है , जिसका अर्थ हैं की
अधीनस्थ अदालतों को उनके निर्देशों का
पालन करना ज़रूरी हैं | परंतु ऐसा वास्तविकता में नहीं होता हैं | अन्यथा
भारत की जेलो में अपराधियो से अधिक “”विचारधीन क़ैदी “ नहीं होते !
मजबूरी यह हैं की अगर
निचली अदालतों में इस फैसले को को वकील
अपने मुवक्किल की जमानत के लिए कोट करता
हैं तब भी ,मजिस्ट्रेट और ज़िला
अदालते इस निर्णय की “””अनदेखी “” करती हैं | फलस्वरूप
जेलो में आरोपी सड़ता रहता हैं | लोकसभा में दिये गए आंकड़ो के
अनुसार 23 हज़ार बंदी 3 साल से 8 साल से
बंदी हैं , भले ही उन पर
आरोपित अपराध की सज़ा इससे कम या बराबर ही
क्यू ना हो ! अब इसे नागरिक की आज़ादी का हनन नहीं कहा जाये तो क्या कहा जाए ?