गुजरात चुनाव -पर्सन या पर्सनालिटी नरेन्द्र ंमोदी की तीसरी ताजपोशी को उन्देखा तो कतई नहीं किया जा सकता हैं , परन्तु यह ऐसी उपलब्धी भी नहीं हैं जिसे "ना भूतो ना भाविसायती " कहा जा सके । क्यों कि भले ही छोटे राज्य हो पर कांग्रेस के तीन मुख्या मंत्री भी तीसरी बार यह कारनामा दिखा चुके हैं ,दिल्ली में शीला दीक्षित एवं आसाम में तरुण गोगोई तथा मणिपुर के सिंह । सबसे दीर्घ काल तक मुख्या मंत्री रहने वाले वेस्ट बंगाल के ज्योति बासु थे ।ऐसे में यह करिश्मा तो नहीं ही हैं । हाँ एक बात साफ़ तौर पर उभर कर आई हैं , की पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी पर मोदी का क़द भारी पड़ा हैं । वही कांग्रेस के पांचवी बार पराजित होने से स्पस्ट हो गया हैं की उसने अभी भी कोई सबक नहीं सीखा हैं । नेतृत्व की स्पष्टता जन्हा भा जा पा की ताक़त साबित हुई ,वंही कांग्रेस की असमर्थता साबित हुई हैं । क्योंकि पांचवी बार की हार असफलता तो नहीं हैं । हाँ गजनवी की भांति अगर कांग्रेस प्रयासरत हैं तो बात दूसरी हैं । वैसे वह दिल्ली में तो काबिज हैं ही , भले ही मुग़ल साम्राज्य की तरह उसका हुकुम चांदनी चौक या नईदिल्ली तक ही बरक़रार हों । लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में यह न केवल शर्मनाक हैं बल्कि इस हालत के जिम्मेदार लोगो को , बरक़रार तो नहीं रखना चहिये । इतना ही नहीं नयी रणनीति भी बनाने पर विचार करना चहिये ,नहीं तो लहराने वाला परचम रुमाल बन के रह जायेगा ।
यूँ तो गुजरात में चुनाव विधान सभा के लिए हुएथे , पर मोदी रास्ट्रीय मुद्दों पर प्रचार कर रहे थे ,और लोग विधयक की जगह प्रधान मंत्री का चुनाव कर रहे थे । अजीब सी बात हैं , पर हैं सच । सफलता तो फिर सफलता होती हैं भले ही वह एक वोट से ही क्यों न मिली हों । पर मोदी जी का यह कहना की कांग्रेस पर विजय का मत प्रतिशत बड़ा हैं , गलत साबित हुआ , एवं भले ही एक सीट से पिछले चुनाव के मुकाबले वे कांग्रेस से पीछे रह गए पर कमी तो फिर कमी होती हैं ।हालाँकि कांग्रेस का 1977 में उत्तर भारत में सफाया हो गया था , परन्तु वोट परसेंटेज में बढोतरी हुई थी । , यही लोकतंत्र की माया हैं , की वोट बढ़े पर सीट गयी ।
एक बात और की मोदी ने खुद मंजूर किया की 3डी माध्यम से चुनाव प्रचार काफी सफल रहा , अब कोई उस तकनीक को खर्चीला बताये ,या चुनावी ख़र्चे की सीमा को ""द्रविड़ प्राणायाम " के तरीके से तोडने -मरोडने का आरोप लगाये , पर अपनी बात को प्रभावशाली तरीके से मतदाता तक ले जाने का सटीक तरीका तो हैं ही । क्योंकि प्रत्याशी के खर्च की सीमा तो हैं पर उसकी पार्टी के खर्चने पर कोई पाबंदी नहीं हैं । चुनाव के दौरान मीडिया के सभी साधनों में रास्ट्रीय मुद्दों को ही तरजीह मिली , यह हैं प्रचार तंत्र की सफल भूमिका ।जिस पर पार्टियों को नए सिरे से विचार करना होगा }यह तो साफ़ हो गया की विज्ञापन से मतदाता नहीं प्रभावित होता । हाँ , आप की बात उसे अपील करे तो वह जरूर सोचेगा , अब उस तक अपना सन्देश किस भाषा या शैली में पंहुचा पाते हैं यह बात निर्णायक होगी ।किया लिखा गया , कैसे लिखा गया यह चुनाव का फैसला बन सकता हैं ।इस बात पर विचार करना होगा ।
लेकिन गुजरात की आकांछा को देश की रॉय बने इसका सबसे बड़ा लिटमस टेस्ट मीडिया प्रचार नहीं होगा ,वरन सभी छेत्रो -और वर्गों द्वारा मंज़ूर व्यक्तित्व ही रास्त्र का नेतृत्व कर सकेगा । संसदीय लोकतंत्र में व्यक्ति पार्टी का संबल तो हो सकता हैं पर मुहर तो पार्टी के निशान पर ही लगेगी । इसलिए पर्सनाल्टी कितनी ही बड़ी हो पार्टी के नीचे ही रहेगी । सरकार बनाने का न्योता भी पार्टी को ही दिया जाता हैं ।ऐसे में मोदी को पहले अपने को भा जा पा मैं निर्विवादित नेता साबित करना होगा ,तभी बात आगे बढेगी ।वर्ना ज्योति बासु की तरह उनकी भी प्रधान मंत्री बन ने की उम्मीद ""घर"" मैं ही दफ़न हो जाएगी । कुछ नेताओ द्वारा उन्हे प्रधानमंत्री पद के ""योग्य"" मानने के बयानों से बात नहीं बनेगी । मीडिया तो किसी का भी बयां ""चला"" कर आपना काम कर देगा , पर वह वास्तविकता नहीं होगी । हकीक़त तो ""पार्टी '' का नेतृत्व ही तय करेगा । टी वी पर हनी वाली बहसों से ऐसे सवाल नहीं हल होते , उन्हे तो बस फैसले ही बताये जाते हैं ।वे फैसलों को प्रभावित करने की ताक़त नहीं रखते , भले ही वे दर्शको को प्रभावित करें । क्योंकि दलों के निर्णय पूरी तरह जनतांत्रिक नहीं होते हैं ।वंहा इमोशन की कम और यथार्थ पर फैसला होता हैं । इसलिए गांधीनगर की यात्रा तो पूरी हो गयी पर दिल्ली अभी दूर हैं उनके लिये जिनके लिए सडको पर नारे लग रहे हैं ।। ।